बारहट शिवदान की हत्या :- चुंडावत राजपूतों ने मेवाड़ के प्रधान सोमचन्द गांधी की हत्या कर दी, जिससे महाराणा भीमसिंह चुंडावतों से सख़्त नाराज़ हो गए। बारहट शिवदान महाराणा भीमसिंह के प्रमुख सलाहकार थे व सोमचन्द गांधी के अच्छे मित्र थे।
एक दिन बारहट शिवदान कृष्णगढ़ जा रहे थे, तब रास्ते में मुखालिफ सरदारों के भेजे हुए आदमियों ने बनास नदी के किनारे मदारा गांव में उनकी हत्या कर दी। बारहट शिवदान के कुछ साथी भी मारे गए और उनके भतीजे रामदान सख़्त ज़ख्मी हुए। इस घटना की तारीख ज्ञात नहीं हो पाई है।
1790 ई. – चुंडावतों द्वारा शक्तावतों से प्रतिशोध लेना :- कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत अपने बेटे जालिमसिंह की हत्या का प्रतिशोध शक्तावत राजपूतों से लेना चाहते थे। रावत संग्रामसिंह शक्तावत ने अपने पिता लालसिंह व अपने बाल-बच्चों को शिवगढ़ में भेज दिया।
शिवगढ़ डूंगरपुर में सोम नदी के किनारे स्थित था, जो कि रावत संग्रामसिंह को डूंगरपुर रावल की तरफ से जागीर में मिला था। रावत अर्जुनसिंह ने फौज समेत शिवगढ़ की तरफ कूच किया। इस समय संग्रामसिंह वहां नहीं थे।
संग्रामसिंह के 70 वर्षीय पिता लालसिंह शक्तावत बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अर्जुनसिंह ने संग्रामसिंह के 2 बेटों को भी कत्ल किया, जिससे ये पारस्परिक कलह और बढ़ गया। लालसिंह की स्त्री उनके साथ सती हो गईं।
1791 ई. – चुंडावतों के खिलाफ महाराणा की कार्यवाही :- चुंडावतों ने चित्तौड़ दुर्ग पर रहते हुए महाराणा के आदेशों की अवहेलना करनी शुरू कर दी। इसके अतिरिक्त वे आपसी कलह से मेवाड़ को नुकसान पहुंचाने लगे। इसलिए इसका ठोस उत्तर देना आवश्यक हो गया, क्योंकि वे पथभ्रष्ट हो चुके थे।
महाराणा भीमसिंह ने कोटा के झाला जालिमसिंह को चुंडावतों के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा। भींडर के रावत मुहकम सिंह शक्तावत, प्रधान सतीदास, शिवदास आदि भी महाराणा के साथ थे। मराठा सरदार आंबाजी इंगलिया को भी बुला लिया गया।
यह बात तय ठहरी कि सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत व उनके साथियों को चित्तौड़गढ़ दुर्ग से निकाल देना चाहिए। जालिमसिंह ने पुष्कर जाकर अपने मित्र माधवराव सिंधिया को भी अपने साथ मिला लिया।
इस मिली-जुली फौज ने हमीरगढ़ पर हमला किया, जहां सलूम्बर रावत भीमसिंह चुंडावत के सलाहकार धीरतसिंह का कब्ज़ा था। आंबाजी इंगलिया ने गोलन्दाजी शुरू कर दी। 6 हफ़्तों तक लड़ाई के बाद धीरतसिंह किला छोड़कर चित्तौड़ चले गए।
आंबाजी ने हमीरगढ़ के किले पर बंदोबस्त कर दिया। इसी तरह बसी का दुर्ग भी चुंडावतों के हाथों से निकल गया। विजयी फौज ने चित्तौड़ के करीब पड़ाव डाला। महादजी सिंधिया और महाराणा भीमसिंह के बीच यह सन्धि हुई कि इस विजय अभियान में 64 लाख रुपए मुख़ालिफ़ों से वसूले जाएंगे, जिसका एक हिस्सा महाराणा रखेंगे व शेष 3 हिस्से सिंधिया को दिए जाएंगे।
झाला जालिमसिंह व महादजी सिंधिया की फ़ौज ने नाहर मगरा में पड़ाव डाला, जो कि मेवाड़ के महाराणाओं की शिकारगाह थी। महाराणा भीमसिंह ने भी देलवाड़ा के राज कल्याणसिंह झाला और प्रधान साह सतीदास को उदयपुर की हिफाज़त के लिए तैनात किया और स्वयं निम्नलिखित सरदारों, पासवानों आदि के साथ उदयपुर से रवाना हुए :-
सादड़ी के राज सुल्तानसिंह झाला, कोठारिया के रावत विजयसिंह चौहान, भींडर के महाराज मुहकम सिंह शक्तावत, महाराणा के काका करजाली के महाराज भैरव सिंह बाघसिंहोत, महाराज बख्तावर सिंह, रावत संग्रामसिंह लालसिंहोत शक्तावत,
खैराबाद के बाबा सालिमसिंह राणावत, महाराज भगवंत सिंह, महाराज जालिमसिंह नाथसिंहोत, भगवानपुरा के रावत जोरावर सिंह सांगावत चुंडावत, करेड़े के राजा विष्णुसिंह सांगावत चुंडावत, बाठरड़ा के राव एकलिंगदास सारंगदेवोत,
सनवाड़ के बाबा दौलतसिंह राणावत, कोठारिया के रावत फतहसिंह चौहान के छोटे बेटे उदयसिंह चौहान और रावत फतहसिंह के भाई दलेलसिंह चौहान, खैराबाद के राणावत बख्तसिंह भारतसिंहोत, मुहकमसिंह शक्तावत, बनेडिया के विष्णुसिंह चतरसिंहोत चौहान,
अदोत चतरसिंहोत चौहान, महाराणा के 7 पासवानिये भाई (गोपालदास, देवीदास, मनोहरदास, भगवानदास, चैनदास, मोहनदास, जवानदास), पीथावास के जागीरदार तख़्तसिंह जगावत चुंडावत, महता अगरचन्द, साह किशोरदास देपुरा,
साह एकलिंगदास बौल्या, पाणेर के चारण सौदा बारहट भोपसिंह, पसूंद के चारण आसिया जसवंत सिंह, धायभाई उदयराम, धायभाई फत्ता, धायभाई हट्टू, पंचोली नाथ सहीवाला, पंचोली चतुर्भुज, महासाणी पंचोली रामा, पंचोली स्वरूपनाथ, व्यास शिवदत्त, त्रिवाड़ी गुलाब,
पुरोहित केशवराय, फ़र्राशखाना के दारोगा साह नग्गा पटवारी, पाणेरी लाला, पाणेरी गजसिंह, बिशनदास पांडे, गुहिलोत ज़ोरा ढींकड्या, भोई लाला, भोई नीका, झारादार कृष्णदास, जमादार सादिक सिंधी, पठान शेर खां, कपूर खां (2 हज़ार पठानों सहित), भाणेज जालिमसिंह (पांच सौ सवारों सहित), साह शिवदास, जयचंद।
सितम्बर, 1791 ई. में महाराणा भीमसिंह व महादजी सिंधिया की मुलाकात हुई। महादजी सिंधिया महाराणा से मिलने के लिए उत्सुक भी था और स्वयं 2 कोस तक आगे आकर महाराणा की पेशवाई करके अपने डेरों में लौट गया और महाराणा नाहरमगरा के महलों में चले गए। इसके आगे का वर्णन अगले भाग में किया जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)