1789 ई. – प्रधान सोमचन्द गांधी की हत्या :- अपने बढ़ते प्रभाव के कारण प्रधान सोमचन्द को चुंडावतों का विरोध झेलना पड़ रहा था। इस समय मेवाड़ में सामंत 2 टुकड़ों में बंट गए। एक दल मेवाड़ के चुंडावत राजपूतों का था व दूसरा दल प्रधान सोमचंद व शक्तावत राजपूतों का था।
चुंडावतों का दल कमजोर पड़ रहा था, क्योंकि प्रधान सोमचन्द अपनी शक्ति बढ़ाते जा रहे थे। वे दूरदर्शी थे, इसलिए चुंडावत भी उन्हें मारने का कोई अवसर नहीं खोज पा रहे थे। सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत व उनके साथी चित्तौड़गढ़ चले गए।
नेकदिल व मेवाड़ हितैषी प्रधान सोमचन्द गांधी ने महाराणा भीमसिंह को सलाह दी और कहा कि हम लोगों की आपस में नाइत्तफाकी से रियासत को नुकसान पहुंच रहा है, इसलिए आप सलूम्बर के रावत व उनके साथियों को बुलाकर रियासती कारोबार में शुमार कर दीजिए।
महाराणा भीमसिंह ने दासी रामप्यारी के ज़रिए सलूम्बर के रावत भीमसिंह व कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत को उदयपुर राजमहलों में बुलाकर दोनों पक्षों में सुलह करा दी, लेकिन रावत भीमसिंह ने ये सुलह मन से नहीं की थी, उनका इरादा सोमचन्द को मारने का ही था।
24 अक्टूबर, 1789 ई. को शनिवार के दिन कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत व भदेसर के रावत सरदार सिंह उदयपुर के राजमहलों में गए और बाईजीराज के भंडार के कमरे में सोमचन्द गांधी को बुलाया और पूछा कि “तूने हमारी जागीर किस तरह छीनी ?”
दरअसल सलूम्बर के रावत कुबेरसिंह के बड़े बेटे जोधसिंह व छोटे बेटे भीमसिंह थे। सलूम्बर की गद्दी पर तो जोधसिंह बैठे और महाराणा ने भीमसिंह को कंवारिया के साथ-साथ सावा की जागीर भी दे दी।
फिर जोधसिंह के पुत्र पहाड़सिंह गद्दी पर बैठे और जब पहाड़सिंह का निसंतान देहांत हो गया, तो भीमसिंह सलूम्बर की गद्दी पर बैठे। तब प्रधान सोमचन्द ने कंवारिया की जागीर भीमसिंह से छीनकर खालिसा (महाराणा की भूमि) में शुमार कर लिया, क्योंकि दो जागीरदारों की भूमि का स्वामी एक आदमी नहीं हो सकता था।
बहरहाल, प्रधान सोमचन्द जवाब देते, उसके पहले ही दोनों सरदारों ने दोनों तरफ से कटार घोंपकर सोमचन्द की हत्या कर दी। फिर दोनों सरदार उदयपुर के त्रिपोलिया द्वार पर पहुंच गए, जहां उनकी फौजी टुकड़ियां खड़ी थीं।
रावत अर्जुनसिंह बिना किसी पश्चाताप व भय के, खून से रंगे हाथ बिना धोए ही महाराणा भीमसिंह के समक्ष गए। महाराणा भीमसिंह इस समय सहेलियों की बाड़ी में बदनोर के रावत जैतसिंह राठौड़ से विचार विमर्श कर रहे थे।
महाराणा ने अर्जुनसिंह पर क्रोधित होते हुए कहा कि “हरामखोर, मेरे सामने से चला जा, मुझे मुंह मत दिखला”। चुंडावतों के बढ़ते प्रभाव के कारण महाराणा भीमसिंह रावत अर्जुनसिंह को इस पाप के लिए कोई दंड नहीं दे सके।
शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह, जो इस समय हजारेश्वर में ठहरे हुए थे, यह ख़बर सुनकर चुंडावतों के पास गए और उनसे कहा कि “तुम लोग अपने बुरे आचरण व स्वामिद्रोह के कारण रावत चूंडा के पवित्र वंश पर धब्बा लगा रहे हो। तुम्हें महाराणा और उनके हितैषियों का विरोध हरगिज़ नहीं करना चाहिए।”
शिवरती महाराज के वचन सुनकर रावत अर्जुनसिंह सहित सभी चुंडावत बड़े शर्मिंदा हुए और चित्तौड़ चले गए। महाराणा भीमसिंह की माता को लगा कि सोमचन्द की हत्या महाराणा ने करवाई है। इसलिए राजमाता ने कहा कि “मैं ऐसे पुत्र का मुंह तक नहीं देखना चाहती, जिसने ऐसे खैरख्वाह प्रधान की हत्या करवा दी।”
फिर शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह ने जनानी ड्योढ़ी पर जाकर कहा कि आपके पुत्र का इसमें कोई दोष नहीं है। महाराणा भीमसिंह की आज्ञा से प्रधान सोमचन्द का दाह संस्कार पिछोला झील की बड़ी पाल पर करवाया गया, जहां उनकी छतरी अब तक मौजूद है।
महाराणा भीमसिंह ने सोमचन्द के भाई सतीदास को प्रधान पद पर नियुक्त किया व छोटे भाई शिवदास को उसका सहायक बनाया। महाराणा ने सतीदास से कहा कि सोमचन्द के पुत्र जयचंद की अच्छे से परवरिश करना, क्योंकि अभी उसकी आयु कम है।
सतीदास व शिवदास दोनों भाइयों ने सोमचन्द की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए भींडर के मुहकम सिंह शक्तावत से फौजी मदद लेकर चित्तौड़ की तरफ कूच किया। चित्तौड़ से कुराबड़ रावत अर्जुनसिंह चुंडावत की अध्यक्षता में चुंडावतों की फौज रवाना हुई।
आकोला के पास लड़ाई हुई, जिसमें सतीदास की जीत हुई व रावत अर्जुनसिंह को भागकर अपने प्राण बचाने पड़े। लेकिन इस लड़ाई से चुंडावतों को बड़ा नुकसान हुआ।
फिर कुछ समय बाद शक्तावतों को खेरोदा के पास पराजित कर चुंडावतों ने प्रतिशोध लिया। इस प्रतिशोध की आग में मेवाड़ जल रहा था। किसान, मजदूर, जुलाहे अन्यत्र जाकर बसने लगे। मेवाड़ में अशांति व अराजकता का वातावरण बन गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)