महाराणा भीमसिंह का जीवन परिचय :- इन महाराणा का जन्म 10 मार्च, 1768 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा अरिसिंह द्वितीय थे। महाराणा भीमसिंह की माता सरदार कँवर जी थीं।
महाराणा भीमसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा भीमसिंह का कद छोटा, आंखें बड़ी, दाढ़ी बड़ी, शरीर सुदृढ़ व पेशानी बड़ी थी। ये दानी, क्षमाशील, हंसमुख व मृदुभाषी थे। महाराणा स्वयं कवि व कवियों के आश्रयदाता थे। इन्हें इतिहास का अच्छा ज्ञान था। अन्य राज्यों का इतिहास भी इनको ज़बानी याद था।
ये महाराणा अपने नौकरों का बहुत ख़्याल रखते थे। उनके मरने के बाद उनके बाल-बच्चों की रक्षा और परवरिश अपने बच्चों की तरह करते थे। महाराणा भीमसिंह में शारीरिक बल बहुत अधिक था। इनका चलाया हुआ तीर भैंसे की देह को पार कर जाता था।
ये महाराणा अपने हाथों से मज़बूत ढाल को चीरने में सक्षम थे। महाराणा भीमसिंह का शासनकाल मेवाड़ के सभी महाराणाओं में सर्वाधिक था। ये महाराणा लगभग 50 वर्षों तक मेवाड़ की गद्दी पर विराजमान रहे। ख़ूबियों के साथ-साथ इन महाराणा में कुछ दोष भी थे।
ये फ़िज़ूल खर्च बहुत करते थे और वचन के पक्के नहीं थे। इनके सबसे बड़े दोष इनकी अत्यधिक उदारता व दयालुता जैसे गुण थे, जिन्होंने राज्य के उन अपराधियों को भी जीवनदान दिया जो मृत्युदंड के अधिकारी थे।
इन्हीं कारणों से इनके राज में सरदार अपनी मनमानी करने लगे, मराठों का वर्चस्व बढ़ने लगा। इन महाराणा के शासनकाल की सबसे बड़ी दुखदायी घटना राजकुमारी कृष्णाकुमारी की हत्या थी।
उदारता निश्चित ही एक अच्छा गुण माना जाता है, मगर एक राजा के लिए कठोर निर्णय लेना बहुत जरूरी होता है। राजा हर दोषी को क्षमा करने लगे, तो निश्चित ही गुनहगारों की हिम्मत बढ़ती है और राजा का रुतबा औरों की नज़रों में कम होता जाता है।
मेवाड़ के सभी शासकों में कठोर दंड देने वालों में महाराणा प्रताप व महाराणा राजसिंह का नाम अव्वल माना जाना चाहिए और उक्त दोनों ही शासकों के राज में अनुशासन अपनी चरम सीमा पर था। हर किसी में राज आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं होती थी, परन्तु महाराणा भीमसिंह इस मामले में ठीक इनके विपरीत थे।
मराठों द्वारा लूटमार :- महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में मराठों ने मेवाड़ से चौथ वसूली की थी। तब से लेकर महाराणा भीमसिंह के राज्याभिषेक के समय तक के लगभग 30-40 वर्षों में मराठों की वजह से 28 लाख 50 हज़ार रुपए सालाना आमदनी का मुल्क मेवाड़ के हाथों से निकल गया।
इन परगनों की आमदनी के अलावा इस समयकाल तक मराठों ने मेवाड़ से 1 करोड़ 81 लाख रुपए लूट लिए थे। लेकिन ये अंत नहीं था, महाराणा भीमसिंह के शासनकाल में ही मराठों ने मेवाड़ में सबसे ज्यादा कहर बरपाया और इन्हीं महाराणा के समय अंग्रेजों से मेवाड़ ने सन्धि की।
हिन्दू होकर हिंदुओं को लूटना निहायत ही अनुचित कार्रवाई थी। यही कारण रहा कि मराठे ज्यादा समय तक राज नहीं कर सके, क्योंकि चौथ वसूली की नींव पर खड़ा साम्राज्य ज्यादा दिन नहीं ठहरता। राजस्थान की पाठ्यपुस्तकों में मराठों की ज्यादती का वर्णन स्पष्ट रूप से लिखा गया है, इसलिए पाठक ये न समझें कि यहां पक्षपात किया जा रहा है।
हम छत्रपति शिवाजी महाराज को अपना आदर्श मानते हैं, परन्तु जिन्होंने राजपूताने में अवैध लूटमार की, वे निश्चित ही छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्शों को ताक पर रख चुके थे। इस लूटमार का वर्णन यहां इसीलिए किया जा रहा है, ताकि पाठकों को समझ आए कि मेवाड़-अंग्रेज सन्धि कितनी आवश्यक थी।
1778 ई. – महाराणा भीमसिंह का राज्याभिषेक :- महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय की षड्यंत्रपूर्वक हत्या के कारण राजमाता सरदार कुंवर जी इस बात से चिंतित थीं कि यदि उनके दूसरे पुत्र कुंवर भीमसिंह को गद्दी पर बैठाया तो संभव है कुँवर को भी अपनी जान गंवानी पड़े।
इस ख़ातिर राजमाता ने कुंवर को गद्दी पर बिठाने से इनकार कर दिया और कहा कि “मैं अपने इकलौते बेटे के लिए ऐसा राज्य नहीं चाहती, जिसमें उसकी जान का ख़तरा हो। मैं गरीब हालत में रहकर अपने बेटे को देखकर बाकी ज़िंदगी गुज़ारना तय करती हूं।”
तब सरदारों ने राजमाता से कहा कि “राज्य का दावा छोड़कर आप अपने बेटे को और भी ज्यादा ख़तरे में डालेंगी, क्योंकि अगर ऐसे हालत में रतनसिंह (नकली महाराणा) मेवाड़ की गद्दी पर बैैैठ गया, तो क्या वह आपके पुत्र को जीवित छोड़ेगा ?”
ये सुनकर राजमाता ने कुंवर के राज्याभिषेक के लिए हां कर दी। 7 जनवरी, 1778 ई. को 9 वर्षीय कुंवर भीमसिंह का राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ व राज्य का कार्यभार राजमाता ने अपने हाथों में लिया।
राज्याभिषेक के समय पुरोहित रामराय, एकलिंगदास बौल्या, करजाली के महाराज बाघसिंह, शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह, कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत, देलवाड़ा के राज सज्जा झाला, महाराज अनोपसिंह, सनवाड़ के बाबा जैतसिंह, भदेसर के रावत सरदारसिंह,
धायभाई रूपा, धायभाई कीका, चारण पन्ना आढा आदि ने महाराणा भीमसिंह को नज़रें दीं। नज़र देने से आशय है कि झुककर धन, उपहार आदि भेंट करना। सामंत आदि यदि उम्र में महाराणा से बड़े भी हों, तब भी ये रस्म महाराणा के सामने झुककर ही अदा की जाती थी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)