9 मार्च, 1773 ई. – महाराणा अरिसिंह की हत्या :- 1770 ई. में बूंदी के राव राजा उम्मेदसिंह हाड़ा ने अपने जीते-जी अपने पुत्र अजीतसिंह को बूंदी का शासक बना दिया। राव अजीतसिंह हाड़ा के विरुद्ध मीने लोग उत्पात मचा रहे थे।
इसलिए राव अजीतसिंह ने सोचा कि जब तक एक अच्छे गांव में किला नहीं बनवाया जाएगा तब तक ये विरोध शांत न होगा। ऐसा विचार करके राव अजीतसिंह ने मेवाड़ की भूमि पर स्थित गांव बिलहटा पर किला बनवाने की आज्ञा महाराणा से मांगी, पर महाराणा अरिसिंह ने मना कर दिया।
महाराणा के विरुद्ध जाकर राव अजीतसिंह ने उसी गांव में किला बनवाकर अपना किलेदार वहां नियुक्त कर दिया। महाराणा अरिसिंह ने ठाकुर अमरचंद बड़वा को भेजकर उनको समझाना चाहा पर वे न माने। इस समय ठाकुर अमरचंद ने बूंदी राव को बहुत सी खरी खोटी भी सुनाई।
इस तरह विरोध बढ़ता गया। इसके अलावा मेवाड़ के वे सामंत जो महाराणा के ख़िलाफ़ थे, उन्होंने राव अजीतसिंह को महाराणा के ख़िलाफ़ और भड़का दिया। नतीजतन बूंदी के राव अजीतसिंह हाड़ा ने महाराणा की हत्या करने का विचार किया।
महाराणा अरिसिंह इस समय अमरगढ़ किले पर थे। राव अजीतसिंह महाराणा के सामने हाजिर हुए, लेकिन मंत्री अमरचंद के कटु वचनों को याद करते हुए ना तो महाराणा को नज़र दी और ना मुजरा किया।
अमरगढ़ के रावत को इस षड्यंत्र का पता लग गया और उन्होंने महाराणा अरिसिंह को राव अजीतसिंह से सावधान रहने को कहा, लेकिन महाराणा अरिसिंह ने इस बात पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया।
शुक्रवार का दिन था, बकरीद का मौका था, महाराणा अरिसिंह की सेना में शामिल सिंधी सिपाहियों का बड़ा दल दावत में चला गया। उसी दिन मौका देखकर राव अजीतसिंह महाराणा के डेरे पर आए और बोले कि मैंने जंगल में एक सूअर देखा है, आप चलें और अपने घोड़े पर सवार होकर बरछे से उसका शिकार करें।
बूंदी के ग्रंथ वंश भास्कर व मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद में सूअर की जगह खरगोश होना लिखा है, जबकि कर्नल जेम्स टॉड और डॉ. ओझा ने सूअर होना लिखा है। मेरे विचार से भी सूअर ही रहा होगा, क्योंकि उस दौर में शिकार के शौकीन राजा-महाराजा जंगली सूअर, अदवेसरा (पैंथर) आदि के जंगल में आसपास कहीं देखे जाने की ख़बर सुनकर फ़ौरन रवाना हो जाते थे।
महाराणा अरिसिंह, जो कि शिकार के बहुत शौकीन थे, जल्दबाजी में एक छोटे घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े। महाराणा के 200 सैनिक साथ आना चाहते थे, पर राव अजीतसिंह ने ये कहकर मना कर दिया कि सब लोग जावेंगे तो सूअर भाग जाएगा।
मना करने के बावजूद भी सनवाड़ के बाबा शंभूसिंह, बावलास के बाबा दौलतसिंह व उनके छोटे भाई अनूपसिंह, चारण आढ़ा पन्ना साथ आए। इनके अलावा छड़ीदार, हलकारे, जलेबदार आदि कुल 10-20 सेवक भी महाराणा के साथ गए।
फ़ौज से बहुत दूर निकल जाने के बाद राव अजीतसिंह ने चारण आढ़ा पन्ना से कहा कि “मैं तुम्हारे घोड़े की दौड़ देखना चाहता हूं।” चारण आढ़ा पन्ना ने जवाब दिया कि “यहां दोनों बाजू और सामने की तरफ़ पत्थर बहुत हैं।”
महाराणा अरिसिंह ने चारण आढ़ा पन्ना को कहा कि “फ़ौज की तरफ़ तो साफ़ रास्ता है, राव राजा को दौड़ क्यों नहीं दिखलाता ?” महाराणा की बात सुनकर चारण आढ़ा पन्ना ने तो घोड़े को फ़ौज की दिशा में दौड़ाया।
अब महाराणा के साथ 3 सरदार ही शेष रह गए थे। सही मौका देखकर राव राजा अजीतसिंह हाड़ा ने घोड़े पर बैठे-बैठे ही बर्छे से महाराणा अरिसिंह की छाती पर वार किया। राव अजीतसिंह के 4-5 साथी राजपूतों ने भी महाराणा के तीनों सरदारों पर हमला किया।
इस समय महाराणा के एक छड़ीदार रूपा ने राव अजीतसिंह के सिर पर ज़ोरदार छड़ी चलाई, जिससे वे बेहोश हो गए। राव अजीतसिंह का घोड़ा अपने बेहोश स्वामी को लेकर भागा।
महाराणा अरिसिंह का देहांत हो गया और उनके साथी राजपूत सरदार बाबा शंभूसिंह व बाबा दौलतसिंह भी काम आए। अनूपसिंह सख़्त ज़ख्मी हुए, जो बावलास के नए मालिक बने।
दूसरे दिन महाराणा अरिसिंह का अंतिम संस्कार अमरगढ़ में किया गया। उनके साथ मनभावन नाम की पासवान सती हुई। बाबा शंभूसिंह व बाबा दौलतसिंह के अंतिम संस्कार भी महाराणा के अंतिम संस्कार स्थल के निकट ही किए गए।
मेवाड़ के राजपूतों ने राव अजीतसिंह का सामान और कुछ तोपें लूट लीं। बूंदी की ये तोपें अमरगढ़ के किले में रखवाई गई। महाराणा अरिसिंह के देहांत की ख़बर उदयपुर पहुंची, तो महारानी राठौड़ सती हो गई।
ख़बर सुनकर उदयपुर में मौजूद महाराणा अरिसिंह की पासवान सज्जनराय, कमलराय व बृजराय भी सती हो गईं। महाराणा अरिसिंह की एक रानी भटियाणी जो इस समय अपने पीहर मोही में थीं, वो वहीं सती हो गईं।
इस घटना के 6 माह बाद राव अजीतसिंह का भी देहांत हो गया। उस समय के लोगों में ये बात मशहूर हुई थी कि रूपा की छड़ी से लगा घाव गहरा होता गया, जिससे राव अजीतसिंह का देहांत हुआ, हालांकि बूंदी के इतिहास में शीतला निकलने से राव राजा का देहांत होना लिखा है।
मेवाड़ के सर्दारों ने बूंदी से इस हत्या का कोई प्रतिशोध नहीं लिया, इसके 2 कारण थे। पहला कारण ये कि महाराणा अरिसिंह के रवैये से बहुत से सामंत खफ़ा रहते थे, इसलिए वे मन से उनकी हत्या का प्रतिशोध नहीं लेना चाहते थे।
दूसरा कारण ये था कि जो सामंत वास्तव में महाराणा के मददगार थे, वे जल्द से जल्द उदयपुर जाना चाहते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कुम्भलगढ़ में रहने वाला रतनसिंह (नकली महाराणा) कहीं महाराणा अरिसिंह के पुत्रों को बालक समझकर उदयपुर पर कब्ज़ा न कर ले।
महाराणा अरिसिंह के शासनकाल में करवाए गए निर्माण कार्य :- इन महाराणा ने 12 वर्ष राज किया, लेकिन युद्धों में उलझे रहने के कारण ज्यादा निर्माण कार्य नहीं करवा सके। उदयपुर के बाहर चौगान के पास स्थित पार्श्वनाथ के मंदिर में ओसवाल जाति के साह कपूरचंद ने तीर्थंकर पद्मप्रभ की प्रतिमा स्थापित की।
उदयपुर में महाराणा अरिसिंह के सान्निध्य में दर्जी जाति के तुलसा नामक शख्स की पुत्री प्रभुवाई ने प्रभुवारातण की बावड़ी, भगवान विष्णु का मंदिर व एक धर्मशाला का निर्माण करवाया।
एकलिंग जी मंदिर की सड़क पर गूजर जाति के पगार गोत्र के धायभाई रूपा (महाराणा अरिसिंह की धाय के पुत्र) ने नदी पर पुल, रूपनारायण जी का मंदिर, सराय, बावड़ी व बगीचे का निर्माण करवाया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
राणा सांगा,राणा कुम्भा,राणा लाखा,इत्यादि का इतिहास कृपा करके शुरू करें।में अभी एक छात्र हूं और राजपूत संघर्ष में रुचि रखता हूं🚩🙏।
महाशय आगे की history आपको मिली नहीं क्या कितने दिनों से प्रतीक्षा मे हु की आगे post कब upload होंगी लेकिन करना पड़ रहा है इंतजार अगर नहीं कर सकते समय पर upload तो यहाँ लिखें की आगे अब प्रतीक्षा ना करें