1769 ई. में जनवरी-फरवरी माह से एकलिंगगढ़ की लड़ाई शुरू हुई, जो की 6 माह तक चलती रही। माधवराव सिंधिया के नेतृत्व में मराठों की सेना और मेवाड़ के बागी सामन्तों की सम्मिलित सेना ने एक राजपूत लड़के को रतनसिंह नाम देकर महाराणा करार करके महाराणा अरिसिंह को पदच्युत करने के लिए 6 माह तक उदयपुर को घेरे रखा।
इस दौरान मेवाड़ की प्रसिद्ध जगतशोभा नामक तोप से कई मराठे मारे गए। लेकिन अब महाराणा अरिसिंह की फ़ौज के सामने रसद की समस्या आने लगी, नतीजतन महाराणा अरिसिंह संधि पर उतर आए, जो कि माधवराव चाह रहा था।
महाराणा अरिसिंह की तरफ से सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत और रावत अर्जुनसिंह ने माधवराव से कहा कि “आप बेफायदा लड़ रहे हैं, अगर रतनसिंह को महाराणा बनाकर मतलब निकालना हो, तो उनसे रुपया लीजिए, वरना हम देने को तैयार हैं।”
माधवराव ने देवगढ़ के रावत जसवंतसिंह के पुत्र राघवदेव चुंडावत से रुपए मांगे, तो राघवदेव ने कहा कि “अभी हमारे पास नहीं है, उदयपुर पर कब्ज़ा करने के बाद बंदोबस्त करेंगे।” तब माधवराव ने क्रोधित होकर कहा कि “हमारी फ़ौज को तनख्वाह कहाँ से दी जाएगी ?”
राघवदेव ने माधवराव को बिगड़ता देखकर विचार किया कि कहीं ये मुझको बंदी बनाकर महाराणा अरिसिंह के सुपुर्द न कर दे, इसलिए राघवदेव तो देवगढ़ चले गए। इसी दौरान महाराणा अरिसिंह की तरफ से रावत अर्जुनसिंह सुलह का पैगाम लेकर माधवराव के पास गए।
माधवराव ने 70 लाख रुपए मांगे, तो रावत अर्जुनसिंह ने महाराणा की तरफ से करार कर दिया और तय हुआ कि रुपए दे दिए जाएंगे। जब रुपए लेने के लिए माधवराव ने उदयपुर राजमहलों में प्रवेश किया, तो मार्ग में प्रजा के मकानों को देखकर विचार किया कि अगर उदयपुर की प्रजा को लूटा जाए, तो 70 लाख से ज्यादा रुपए मिल सकते हैं।
ऐसा विचार करके जब माधवराव महाराणा अरिसिंह के सामने उपस्थित हुआ, तो अपनी बात से पलटकर 90 लाख रुपए मांगे। फिर मेवाड़ के प्रधानमंत्री सनाढ्य ब्राह्मण ठाकुर अमरचंद बड़वा ने क्रोधित होकर संधि पत्र फाड़ दिया और कहा कि अब लड़ाई जारी रहेगी।
उस समय तो माधवराव वहां से चला गया और लड़ाई की तैयारियां फिर से जोर-शोर से होने लगी। महाराणा अरिसिंह की फौज में शामिल सिंधी मुस्लिमों के अफ़सर मिर्ज़ा आदिलबेग ने महाराणा से कहा कि हम बगैर तनख्वाह आपके ख़ातिर लड़ने को तैयार हैं।
इसी तरह महाराणा की तरफ जो राजपूत सामंत थे, वे भी महाराणा के लिए मर मिटने को तैयार हो गए। इस तरह अपने लिए मर मिटने वालों की बातें सुनकर कठोर हृदय वाले महाराणा अरिसिंह की भी आंखें भर आईं।
राजपूतों व सिंधी मुस्लिमों की सम्मिलित फ़ौज ने फिर से मराठों व बागी सामन्तों की फ़ौज पर गोलन्दाजी शुरू कर दी। बात बिगड़ती देखकर माधवराव सिंधिया ने खुद संधि का प्रस्ताव पेश किया और महाराणा से कहलाया कि पहले के मुवाफिक 70 लाख रुपए में सुलह हो सकती है।
लेकिन इस बार ठाकुर अमरचंद बड़वा ने कहा कि “तुम पहले भी अपनी बात से मुकर गए थे, इसलिए दोबारा शुरू हुई गोलन्दाजी में जो रुपया हमारा खर्च हुआ है, वो घटाकर अब तुम्हें 60 लाख रुपए मिल सकते हैं। स्वीकार हो तो संधि तय की जावे, वर्ना राजपूत मरते दम तक लड़ने को तैयार हैं।”
फिर माधवराव ने 60 लाख रुपए करार के मुताबिक व साढ़े 3 लाख रुपए अतिरिक्त दफ़्तर खर्च लेकर संधि करना तय किया। महाराणा अरिसिंह ने ठाकुर अमरचंद की सलाह के अनुसार ये धन अदा करने के लिए 25 लाख रुपए तो सोना, चांदी, जवाहरात व नकद के रूप में दिया।
8 लाख रुपए सर्दारों से वसूल किए व शेष धन के लिए मेवाड़ के कुछ परगने (जावद, नीमच, जीरण, मोरवण) गिरवी रखे गए। इस सन्धि में जो अन्य शर्तें तय हुईं, वो कुछ इस तरह हैं :-
1) रतनसिंह मंदसौर में रहे और उसको महाराणा की तरफ से 15 हज़ार रुपए की जागीर दी जावे। यदि रतनसिंह का उत्तराधिकारी भविष्य में मंदसौर छोड़कर कहीं दूसरी जगह चला जावे, तो मंदसौर की जागीर पुनः महाराणा द्वारा ले ली जाएगी। यदि वो मंदसौर में ही रहे, तो उसके साथ सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत या उनके कोई भाई या पुत्र रहेंगे।
2) मेवाड़ में माधवराव सिंधिया के थाने जहां-जहां भी हों, वे हटा दिए जावें। 3) मेवाड़ में बावल्या (एक मराठा सरदार) की सेना न रहे। 4) जो परगने सिंधिया को दिए गए हैं, वहां मौजूद राजपूत सरदारों के साथ उचित बर्ताव किया जावे, कोई छल-कपट न किया जावे।
5) रतनसिंह के साथ जो 2 हज़ार सैनिकों की फ़ौज है, उसका वेतन 3 माह तक महाराणा देंगे, उसके बाद वेतन रतनसिंह को स्वयं ही देना होगा। 6) महाराणा का एक वकील सिंधिया के यहां रहेगा, उसकी मान-मर्यादा का पूरा ख़्याल रखा जावे।
7) रतनसिंह के पक्ष के सरदारों ने जिन गांवों पर अवैध कब्जा किया है, वे महाराणा को लौटा दिए जावें। 8) माधवराव सिंधिया को उन जोगियों को मेवाड़ से निकालना होगा, जो मेवाड़ में रहकर फ़साद करते हों।
21 जुलाई, 1769 ई. को माधवराव सिंधिया फौज समेत मालवा लौट गया। प्रधान अमरचंद, रावत भीमसिंह चुंडावत, रावत अर्जुनसिंह आदि सर्दारों पर महाराणा अरिसिंह बहुत प्रसन्न हुए और ईनाम वगैरह दिए।
महाराणा अरिसिंह ने सिंधियों के ज़मादार मिर्ज़ा आदिलबेग के बेटे अब्दुल रहीम बेग की प्रतिष्ठा बढ़ाई। अनवर बेग, मनवर बेग और चमन बेग की भी प्रतिष्ठा बढ़ाई गई। महाराणा की तरफ से लड़ते हुए अजमेरी बेग काम आए, इसलिए महाराणा अरिसिंह ने उनकी कब्र के लिए 100 बीघा ज़मीन दी।
लेकिन इन सिंधी सिपाहियों ने दिमाग से नहीं सोचा और फिर से तनख्वाह की मांग करनी शुरू कर दी, जिससे महाराणा ने इनकी प्रतिष्ठा फिर से कम कर दी।
24 सितंबर, 1769 ई. को महाराणा अरिसिंह कृष्णगढ़ के राजा बहादुरसिंह राठौड़ की पुत्री से विवाह करने हेतु गए और लौटते समय राजा बहादुरसिंह से कुछ धन मदद के तौर पर लिया और इस धन से सिंधी सिपाहियों का वेतन चुका दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)