1769 ई. – महाराणा अरिसिंह की बढ़ती बेचैनी :- मेवाड़ के बागी सामन्तों ने रतनसिंह नामक एक राजपूत लड़के को वैध महाराणा करार करके महाराणा अरिसिंह को पदच्युत करने हेतु कमर कस ली थी और क्षिप्रा नदी के युद्ध में महाराणा की फ़ौज को परास्त कर दिया था।
क्षिप्रा नदी के युद्ध में मिली पराजय महाराणा अरिसिंह के लिए असहनीय थी। महाराणा अरिसिंह की अनुचित नीतियों के कारण ही उन्हें इतना विरोध झेलना पड़ रहा था। लड़ाई में कई सैनिकों व सरदारों के काम आने से महाराणा की फौजी ताकत भी घट गई। सलूम्बर, बदनोर वग़ैरह कुछ ही ठिकानों के सामंत महाराणा के साथ रह गए थे।
महाराणा को मालूम था कि अब मेवाड़ के बागी सामन्तों व माधवराव सिंधिया की सम्मिलित फ़ौज उदयपुर पर चढ़ाई जरूर करेगी, क्योंकि लड़ाई में जीतने से उनके हौंसले बुलंद हैं। महाराणा अरिसिंह ने घबराकर मांडलगढ़ की तरफ जाने का विचार किया,
लेकिन सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत, अर्जुनसिंह, बदनोर के ठाकुर अक्षयसिंह राठौड़ और महाराणा के काका बाघसिंह ने कहा कि “जब तक हम ज़िंदा हैं, आपको घबराने की जरूरत नहीं। आप तो बस किले के बंदोबस्त और सामान व सिपाहियों की फ़िक्र करिए।”
युद्ध की तैयारी :- महाराणा अरिसिंह ने उदयपुर शहरपनाह के चारों ओर छोटे-छोटे किले बनवाकर शहर के कोट, दरवाज़े व खाई को ठीक करवाया। कम सामंतों का साथ होने की स्थिति में महाराणा अरिसिंह ने सिंध से मुस्लिम व गुजरात से अरबी सैनिकों को भी बुला लिया।
ठाकुर अमरचंद बड़वा की कार्यवाही :- महाराणा अरिसिंह अपनी खराब आर्थिक स्थिति के चलते मुस्लिम सैनिकों को वेतन नहीं दे पाए, जिससे मुस्लिम बहुत बिगड़े। ऐसी स्थिति देखकर सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत ने महाराणा से कहा कि अब ठाकुर अमरचंद बड़वा को बुलाइए, वही स्थिति सम्भाल सकते हैं।
महाराणा अरिसिंह ने ही ठाकुर अमरचंद को उनके पद से बर्खास्त किया था। महाराणा अरिसिंह ने रावत भीमसिंह की सलाह मानकर ठाकुर अमरचंद बड़वा को बुलावा भिजवाया और स्थिति को संभालने के लिए प्रधान बनाया।
ठाकुर अमरचंद बड़वा ने महाराणा से कहा कि “मैं स्पष्टवक्ता और तेज मिजाज का हूँ, मैंने महाराणा प्रतपसिंह द्वितीय व महाराणा राजसिंह द्वितीय के समय भी अपने हिसाब से ही काम किया है। अपने काम में किसी का दखल पसंद न करूंगा और आप वैसे भी हमारी सलाह तो मानते नहीं।”
महाराणा सुनते व ठाकुर अमरचंद भी कहते रहे कि “आपके सिपाही आपके विरोध में हैं, सामंत बर्ख़िलाफी करते हैं, खज़ाना खाली है, ऐसे में अगर मैं काम अपने हाथ में लूं, तो मुझको सारे अधिकार दिए जावें। तब महाराणा अरिसिंह ने एकलिंगनाथ की सौगंध खाकर कहा कि अगर तुम हमसे हमारी रानियों के गहने भी मांगोगे, तब भी हम मना नहीं करेंगे।”
ये बातें चल ही रही थीं कि तभी महाराणा अरिसिंह के धायभाई कीका ने कहा कि “आप जनाना समेत पहाड़ों में चलिए, वहां से मांडलगढ़ में जा छिपेंगे।” तब ठाकुर अमरचंद ने गुस्से में आकर कीका से कहा कि “तुम तो मवेशी चराकर और दूध बेचकर अपना पेट भर लोगे, पर महाराणा के लिए मांडलगढ़ में कोई खज़ाना नहीं गढ़ा है।”
महाराणा अरिसिंह के साथ खड़े सामन्तों ने महाराणा से कहा कि “जब तक हमारे सिर पर धड़ हैं, तब तक आप चिंता न करें।” महाराणा अरिसिंह ने कहा कि “तुम्हारे पुरखों जयमल मेड़तिया और रावत पत्ता ने जैसी इस रियासत की खैरख्वाही की थी, वैसा ही मुझको तुम पर भरोसा है।”
महाराणा अरिसिंह के काका बाघसिंह और अर्जुनसिंह ने कहा कि “जिस तरह लक्ष्मण ने अपने भाई प्रभु रामचन्द्र की सेवा की थी, उसी तरह हम भी आपकी सेवा में हाजिर हैं।”
इन सब बातों से महाराणा की हिम्मत बंधी। महाराणा अरिसिंह जानते थे कि इस समय जो साथ खड़े हैं, उनका हौंसला बढ़ाकर उनको खुश रखने में ही भलाई है। महाराणा अरिसिंह ने कहा कि “ये रियासत आप सबकी है। आप सब मेरे बुज़ुर्ग हैं और मैं आपका फ़र्माबर्दार हूँ।”
प्रधान पद स्वीकार करने के दूसरे ही दिन ठाकुर अमरचंद ने बागी सैनिकों से जाकर कहा कि “अपने मालिक के ख़िलाफ़ जाना ठीक नहीं है, तुम मेरे साथ चलो, तुमको तनख्वाह मिल जाएगी।”
फिर ठाकुर अमरचंद ने राज्य के सोने चांदी के बर्तन व रत्न मंगवाकर सोने चांदी के कम कीमत के सिक्के बनवाए व रत्नों को गिरवी रखकर सेना का वेतन चुका दिया। इस तरह ठाकुर अमरचंद की सूझबूझ के कारण एक संकट तो टल गया।
लेकिन महाराणा अरिसिंह के लिए विपत्तियों का सामना करना अभी बाकी था, क्योंकि मेवाड़ के बागी सामंत तो तय कर चुके थे कि महाराणा अरिसिंह को जब तक राजगद्दी से हटा न दें, तब तक चैन से न बैठेंगे। बागी सामन्तों और माधवराव सिंधिया की सम्मिलित फ़ौज ने उदयपुर को घेर लिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)