महाराणा रतनसिंह का देहांत :- मेवाड़ के वैध उत्तराधिकारी महाराणा रतनसिंह (महाराणा राजसिंह द्वितीय के पुत्र) का साथ देने के लिए मेवाड़ के कई सामंत तैयार बैठे थे, लेकिन 1768 ई. में महाराणा रतनसिंह का 7 वर्ष की आयु में शीतला निकलने से देहांत हो गया।
परंतु मेवाड़ के सामंतों ने तो मेवाड़ की पवित्र गद्दी पर बैठने वाले अधर्मी महाराणा अरिसिंह को गद्दी से हटाना ठान रखा था, इसलिए सामन्तों ने 7-8 वर्ष के ही किसी अन्य राजपूत लड़के को रतनसिंह करार देकर महाराणा अरिसिंह को राजगद्दी से हटाने का प्रयत्न जारी रखा।
13 जनवरी, 1769 ई. – क्षिप्रा नदी का युद्ध :- माधवराव सिंधिया के फौज समेत मेवाड़ पर चढ़ाई का हाल सुनकर महाराणा अरिसिंह ने भी फौज उज्जैन की तरफ रवाना की। यही महाराणा की बड़ी गलती थी, कि उन्होंने अपने शत्रुओं के मेवाड़ आने का इंतजार न करके इतनी दूर फ़ौज भेज दी।
महाराणा अरिसिंह की फौज में शामिल सामंत, सर्दार व सहयोगी :- सलूम्बर के रावत पहाड़सिंह चुण्डावत, शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह, महता अगरचंद, कोटा के झाला जालिमसिंह, बनेड़े के राजा रायसिंह, बिजोलिया के शुभकरण पंवार, भैंसरोड के रावत मानसिंह, आमेट के रावत फतहसिंह चुंडावत,
घाणेराव के ठाकुर वीरमदेव राठौड़, बदनोर के ठाकुर अक्षयसिंह राठौड़, बंबोरा के रावत कल्याणसिंह, पेशवा के अफ़सर रघु पायगिया व दौलामिया। मंगरोप के बाबा बिशनसिंह इस समय बालक थे, इसलिए उन्होंने 500 सैनिक भेज दिए।
शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह ने महाराणा अरिसिंह से कहा कि “अगर मैं लड़ाई में मारा जाऊं, तो शाहपुरा का मालिक मेरे छोटे बेटे जालिमसिंह को बनाया जावे।” महाराणा अरिसिंह ने जवाब में कहा कि “अगर मैं मेवाड़ का मालिक बना रहा, तो ऐसा ही होगा।”
महाराणा अरिसिंह ने कहा था कि पहले माधवराव को संधि हेतु मनाना, यदि न माने तो युद्ध करना। माधवराव लड़ाई पर अडिग रहा। ऐसा कहा जाता है कि दोनों पक्षों में लगभग 35-35 हज़ार सैनिक थे। दोनों सेनाओं में 3 दिन तक लड़ाई हुई। फिर महाराणा की फौज के सेनानायकों ने आपस में सलाह मशवरा किया।
शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह ने सलूम्बर के रावत पहाड़सिंह चुण्डावत से कहा कि “आपकी आयु मात्र 18 वर्ष है और विवाह किए हुए कुछ ही दिन हुए हैं, इसलिए आप उदयपुर लौट जावें। लड़ाई में लड़ने के मौके तो आपको आगे भी मिल जाएंगे।”
रावत पहाड़सिंह ने जवाब में कहा कि “आप मेरी आयु मत देखिए, सलूम्बर ठिकाने की प्रतिष्ठा को देखिए, ऐसे स्वामिभक्त ठिकाने की प्रतिष्ठा मेरे हाथ में है। यदि मैं एक कदम भी पीछे हटूं, तो सब लोग मुझसे घृणा करेंगे। इसके अलावा लड़ाई का काम तो युवाओं के हाथ में ही रहना चाहिए। आप वृद्ध व अनुभवी हैं, आपको महाराणा के पास जाकर उनको सलाह मशवरे देने चाहिए।”
राजा उम्मेदसिंह ने हंसकर कहा कि “आपका कहना ठीक है, परन्तु उज्जैन का क्षेत्र, क्षिप्रा का किनारा और अपने स्वामी के लिए लड़ाई में मेरा और आपका साथ मरने का अवसर फिर कब मिलेगा।”
16 जनवरी को सूर्योदय हुआ और इस बार राजपूतों ने केसरिया पोशाक पहनकर तुलसी की मंजरियाँ और रुद्राक्ष माला पगड़ी में रखी और मरने मारने की भावना से ऐसा पुरजोर हमला किया कि चौथे दिन के पहले ही हमले से सिंधिया की फौज तितर बितर हो गई।
महाराणा की फ़ौज को लगा कि विजय उनकी हो चुकी है और सिंधिया की फ़ौज भागे जा रही है, लेकिन तभी देवगढ़ के रावत जसवंतसिंह चुण्डावत द्वारा जयपुर से भिजवाई गई 15 हज़ार नागा साधुओं की फौज वहां आ पहुंची।
नतीजतन महाराणा अरिसिंह की फौज हार गई और रतनसिंह (नकली) व सिंधिया की फौज विजयी रही। महाराणा अरिसिंह की तरफ से सलूम्बर के रावत पहाड़सिंह चुण्डावत, बनेड़े के राजा रायसिंह व शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह ने बड़ी वीरता दिखलाई, वृद्धावस्था में भी उनकी तलवार विपक्षियों पर हावी रही। खून से लथपथ राजा उम्मेदसिंह अपने खून और मिट्टी से पिंड बना रहे थे, कि तभी एक मराठा घुड़सवार ने राजा की छाती में भाला मारकर कहा कि “इसने हमारे बहुत से आदमियों की जान ली है।”
फिर एक मराठा अफ़सर वहां आया और उसने उस मराठा घुड़सवार को डांटते हुए कहा कि “जब ये आदमी खड़ा था, उस वक्त भाला मारता तो बहादुरी भी दिखाई देती।”
फिर उस मराठा अफ़सर ने राजा उम्मेदसिंह से कहा कि “तुम तो चित्तौड़ को अपने सिर से बंधा बतलाते थे, अब वह कहां है ?” राजा उम्मेदसिंह ने कहा कि “सिर के नीचे रखकर सोता हूँ।”
सादड़ी के झाला कल्याण, भैंसरोड के रावत मानसिंह, बिजोलिया के राव शुभकरण पंवार व पेशवा के अफसर दौलामिया सख़्त ज़ख्मी हुए।
मेवाड़ के बागी सामन्तों की फ़ौज में देवगढ़ के रावत जसवंत सिंह के पुत्र राघवदेव चुंडावत ने विपक्ष की तरफ से वीरगति पाने वाले सलूम्बर के रावत पहाड़सिंह चुण्डावत, शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह आदि योद्धाओं का अंतिम संस्कार किया।
महाराणा अरिसिंह की तरफ से कोटा के झाला जालिमसिंह युद्ध के दौरान घोड़े से गिरकर ज़ख्मी हो गए, तो मराठों ने उनको कैद कर लिया। लेकिन झाला जालिमसिंह इतने बड़े कूटनीतिज्ञ थे कि अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, मराठों, अन्य राजपूत राजाओं सभी के साथ तालमेल बिठाकर चलते थे।
झाला जालिमसिंह के ही एक मराठा मित्र ने सिंधिया को 60 रुपए देकर उनको कैद से छुड़वाया। महता अगरचंद व भैंसरोडगढ़ के रावत मानसिंह भी मराठों के हाथों कैद हुए, जिनको रूपाहेली के ठाकुर शिवसिंह ने छुड़वाया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
हजारों राजपूत और मराठा इस युद्ध में मारे गए जबकि थी सारे राजपूत और मराठा दिल्ली में एक साथ हमला करते तो जिहादियों का नामो निशान मिटा सके थे😔
और पूरे भारत को फिर से अखंड बना सकते थे।