मेवाड़ महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय का सम्पूर्ण इतिहास

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय का परिचय :- इन महाराणा का जन्म 27 जुलाई, 1724 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा जगतसिंह द्वितीय थे। महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय लुणावाड़ा के रईस वीरपुरा सोलंकी नाहरसिंह के दोहित्र थे।

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय का व्यक्तित्व :- महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय शरीर से बलिष्ठ, अव्वल दर्जे के पहलवान, स्वभाव से रहमदिल, प्रजा हितैषी, राजकाज के कार्यों में कुछ कमज़ोर थे।

मृत्यु का षड्यंत्र :- महाराणा जगतसिंह द्वितीय का स्वास्थ्य खराब हुआ, तब कुँवर प्रतापसिंह कैदखाने में सज़ा काट रहे थे।

उस समय देवगढ़ के रावत जसवंत सिंह चुण्डावत, देलवाड़ा के राघवदेव झाला, खैराबाद के भारतसिंह, शाहपुरा के उम्मेदसिंह व बागोर के महाराज नाथसिंह ने कुँवर को कैद में ही ज़हर देने की कोशिश की।

ज़हर देने की कोशिश इसलिए की गई क्योंकि इन सामंतों ने कुँवर का विरोध किया था, जिस वजह से इन्हें डर था कि यदि ये गद्दी पर बैठे तो हम सबको मरवा देंगे।

ये बात महाराणा जगतसिंह द्वितीय तक पहुंची, तो उन्होंने इन सामन्तों को देश निकाला दे दिया, लेकिन कुछ समय बाद ही महाराणा का देहांत हो गया।

5 जून, 1751 ई. – राज्याभिषेक :- महाराणा जगतसिंह द्वितीय के देहांत के समय कुँवर प्रतापसिंह कृष्णविलास के महल (रसोड़ा) में नज़र कैद थे। सलूम्बर के रावत जैतसिंह चुण्डावत ने कुँवर प्रतापसिंह को कैदखाने से निकालकर मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया।

विरोधी सामंतों के अपराध क्षमा करना व साथी सामंतों को पुरस्कार देना :- महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय ने गद्दी पर बैठते ही अपने कुँवरपदे काल में विरोधी रह चुके काका नाथसिंह (जिन्होंने कुँवर को बन्दी बनाया), भारतसिंह आदि 5 सर्दारों को अपने पास बुलाया, तसल्ली दी और उनके अपराध क्षमा कर दिए।

महाराणा ने उम्मेदसिंह शक्तावत (जिन्होंने महाराणा की खातिर अपने प्राण दिए) के पुत्र अखैसिंह शक्तावत को रावत का खिताब, ताजीम का अधिकार व दारू का परगना देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की और उनको दूसरे दर्जे का सरदार बनाया।

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय

अमरचंद बड़वा को मुसाहब बनाना :- महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय ने अमरचंद बड़वा को ठाकुर का खिताब व ताजीम का अधिकार देकर अपना मुसाहब बनाया। अमरचंद बड़वा सनाढ्य ब्राह्मण थे, जिनके पिता शंभूराम रसोड़े (पाकशाला) के अध्यक्ष थे।

जिस समय कुँवर प्रतापसिंह कैदखाने में थे, उस वक़्त अमरचंद ने उनकी अच्छी ख़ातिरदारी की थी, जिसके फलस्वरूप महाराणा ने उनको ये सम्मान दिया। मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास के सबसे बुरे दिनों में अमरचंद बड़वा बड़े काम आए।

इसलिए यदि ये कहा जाए कि महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय के शासनकाल में सबसे बढ़िया कार्य अमरचंद की नियुक्ति का हुआ, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। अमरचंद की सूझबूझ का वर्णन समय आने पर किया जाएगा।

महाराणा द्वारा मज़ाक करना व महाराज नाथसिंह का मेवाड़ से प्रस्थान :- एक दिन महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय दरबार में बैठे हुए थे, कि तभी उन्होंने पीठ पर हाथ लगाकर नाक सिकोड़ी और हँसी मजाक के तौर पर कहा कि

“काकाजी (नाथसिंह) ने उस दिन मुझे बन्दी बनाते वक़्त मेरी पीठ पर घुटना मारा था, उसका दर्द आज भी बादल होने के समय होता है”

उस समय तो किसी ने कुछ न कहा परंतु बाद में उक्त पांचों सर्दारों को लगा कि महाराणा कहीं हमें मरवा ना देवें। ऐसा विचार करके महाराज नाथसिंह डरकर अपने पुत्र भीमसिंह सहित सादड़ी होते हुए देवलिया पहुंचे।

वहां कुछ दिन रहकर उमटवाड़ा पहुंचे, जहां उन्होंने अपने पुत्र का विवाह करवाया। अगस्त, 1752 ई. में महाराज नाथसिंह बूंदी पहुंचे, जहां के राव राजा उम्मेदसिंह हाड़ा ने देवपुरा गांव तक उनकी पेशवाई की और उनका बहुत आदर सत्कार किया।

महाराज नाथसिंह वहां 12 दिन तक रहे और हर रोज़ राव राजा उम्मेदसिंह 400 रुपए मेहमाननवाजी के तौर पर महाराज नाथसिंह को देते थे।

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय

जयपुर के महाराजा माधवसिंह द्वारा महाराणा के उपकारों को भुलाना :- बूंदी से रवाना होकर महाराज नाथसिंह जयपुर पहुंचे। इस समय जयपुर के महाराजा माधवसिंह कछवाहा और मारवाड़ नरेश बख्तसिंह राठौड़ मालपुरा के निकट स्थित भूपोलाव तालाब की पाल पर ठहरे हुए थे।

दोनों महाराजा पेशवाई करने के लिए आए और महाराज नाथसिंह की बड़ी खातिरदारी की। सफ़र के इन्हीं दिनों में महाराजा बख्तसिंह का देहांत हो गया।

फिर एक दिन महाराजा माधवसिंह ने महाराज नाथसिंह को तसल्ली देते हुए कहा कि मैं महाराणा प्रतापसिंह को गद्दी से हटाकर आपको वहां का राज दिलाने में सहायता करूंगा।

इस प्रकार महाराजा माधवसिंह ने महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय के पिता के सारे उपकारों को भुला दिया कि किस तरह महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने 84 लाख रुपए व हज़ारों राजपूतों के सिर दांव पर लगाने के बाद माधवसिंह को जयपुर का शासक बनवाने में मदद की थी।

देवगढ़ के रावत जसवंत सिंह चुण्डावत, देलवाड़ा के राघवदेव झाला, खैराबाद के भारतसिंह, शाहपुरा के उम्मेदसिंह व बागोर के महाराज नाथसिंह मिल गए और ये सब मेवाड़ के गांव लूटने के लिए निकले, लेकिन इस कार्य में इन्हें सफलता नहीं मिली

मराठों के हमले :- महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय के शासनकाल में सतवा, जनकोजी व रघुनाथराव नामक मराठों ने मेवाड़ में लूटमार की, जिसे रोकने में महाराणा नाकाम रहे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

रंगमंच का कार्यक्रम :- महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय राजा के रूप में निर्बल रहे, सामंतों पर इनका ज्यादा प्रभाव नहीं रहा, जिससे सब सामंत अपनी मनमानी करने लगे, मराठों द्वारा होने वाली लूटमार नहीं रुकवा पाए, जिससे प्रजा पर भूखमरी के संकट आने लगे।

इस वजह से महाराणा के सामने एक नाटक का प्रदर्शन किया गया, जिसमें एक किसान को बेगार में गठरी उठाने के लिए कहा गया, तो उस किसान ने सिपाही से कहा कि मैं तो चुण्डावतों की प्रजा हूँ। यह सुनकर सिपाही ने डरकर उसे छोड़ दिया।

फिर सिपाही ने दूसरे किसान को पकड़ा, तो किसान ने कहा कि मैं शक्‍तावतों की प्रजा हूँ, सिपाही ने उसे भी डरकर छोड़ दिया। तीसरे किसान ने खुद को चौहानों की प्रजा बताया, उसे भी छोड़ दिया गया। इस तरह उसने कई किसानों को पकड़कर छोड़ दिया।

अंत में एक किसान आया, जिसने ख़ुद को खालसे की प्रजा बताया, तो सिपाही ने उसे जूतियों से मारकर उसके सिर पर बोझा रख दिया। इस तरह यह नाटक देखकर महाराणा को बड़ा दुख हुआ कि सर्दारों की प्रजा तो आराम से रहती है, फिर हमारी प्रजा पर ये अत्याचार क्यों।

(खालसा :- रियासतकाल में रियासत का एक हिस्सा वहां के शासक अपने पास रखते थे और शेष भूमि अपने सामन्तों, जागीरदारों में बांट देते थे।

जो शेष भूमि सामन्तों आदि को बांटी जाती थी, उसकी आमदनी का एक हिस्सा शासक के पास पहुंचता था। जो भूमि शासक अपने पास रखता था, उसकी सम्पूर्ण आमदनी शासक तक पहुंचती थी और यही भूमि खालसा कहलाती थी)

रंगमंच के इस कार्यक्रम के बाद महाराणा की आंखें खुल गईं और उस दिन से महाराणा ने प्रजा की स्थिति सुधारने का प्रयास शुरू किया, जिससे कुछ ही समय में स्थिति सुधरने लगी।

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय का देहांत :- 10 जनवरी, 1754 ई. को 3 वर्ष से भी कम समय तक राज करने के बाद 29 वर्षीय महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय का देहांत हो गया।

महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय की 4 रानियां थीं :- 1) मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ की पुत्री, जिनका देहांत महाराणा से भी पहले हो गया। 2) जसवंतसिंह कछवाहा की पुत्री बने कँवर, जो महाराणा के साथ सती हुईं।

3) सरदारसिंह भाटी की पुत्री मया कँवर, जो महाराणा के साथ सती हुईं। 4) कर्णसिंह झाला की पुत्री बख्तावर कँवर, जिनके गर्भ से कुँवर राजसिंह का जन्म हुआ। कुँवर राजसिंह मेवाड़ के अगले महाराणा बने, जो कि महाराणा राजसिंह द्वितीय के नाम से जाने गए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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