मेवाड़ महाराणा जगतसिंह द्वितीय (भाग – 6)

1 मार्च, 1748 ई. – राजमहल (टोंक) का युद्ध :- यह युद्ध 1748 ई. में हुआ था, लेकिन राजस्थान की पाठ्यपुस्तकों में युद्ध की तिथि 1 मार्च, 1747 ई. बताई गई है, जो कि गलत है। 1747 ई. में फ़ौजें लड़ने के लिए गई अवश्य थीं, लेकिन सुलह हो गई और लड़ाई अगले वर्ष 1748 ई. में हुई।

जयपुर के महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह ने अपनी गद्दी मजबूत करने के लिए मुगल बादशाह मुहम्मदशाह से मदद मांगी। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने बाबा बख्तसिंह (कारोई वालों के पूर्वज) व सलूम्बर के रावत कुबेरसिंह चुण्डावत को मल्हार राव होल्कर के पास भेजा।

जयपुर की राजगद्दी पर मेवाड़ के भाणजे माधवसिंह को बिठाने के बदले में महाराणा ने मल्हार राव होल्कर को 1 करोड़ रुपए देना मंजूर किया, जिनमें 17 लाख तो काम होने से पहले व शेष धन सालाना 5 लाख देना तय किया।

मल्हार राव होल्कर ने अपने बेटे खंडेराव को फौज व तोपखाने समेत भेज दिया। बूंदी के राव राजा उम्मेदसिंह हाड़ा भी अपनी फौज समेत मेवाड़ से मिल गए। मेवाड़ के भाणजे माधवसिंह (जयपुर नरेश के छोटे भाई), जिनके कारण ही ये लड़ाई लड़ी जा रही थी, माधवसिंह ने वचन दिया कि मैं अपनी फौज समेत महाराणा का साथ दूँगा।

कोटा नरेश महाराव दुर्जनशाल हाड़ा स्वयं नहीं आए, लेकिन उन्होंने अपने प्रधान दधिवाडिया चारण भोपतराम को फौज समेत मेवाड़ का साथ देने भेज दिया। इस तरह मेवाड़, कोटा, बूंदी, मराठों व माधवसिंह कछवाहा की सम्मिलित फ़ौज ने जयपुर की तरफ़ कूच किया।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय

इस समय महाराजा ईश्वरीसिंह मुगल बादशाह मुहम्मदशाह के पास गए हुए थे। जयपुर के सामन्तों ने सोचा कि महाराजा यहां नहीं हैं, इसलिए हमारा जीतना नामुमकिन है। ये विचार करके जयपुर के सामन्तों ने एक चाल चली।

उन्होंने महाराणा के पास ये ख़बर भिजवाई कि हम सब सामंत माधवसिंह को ही गद्दी पर बिठाना चाहते हैं, पर ईश्वरीसिंह के लिहाज से कुछ कह नहीं पाए। इस तरह ये बातचीत का दौर जारी रहा, तब तक महाराजा ईश्वरीसिंह को जल्द ही जयपुर आने का संदेश भिजवा दिया गया।

इस तरह जयपुर के सामन्तों की चाल कामयाब हुई। महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह फ़ौज समेत रवाना हुए और लड़ाई से कुछ दूरी पर खड़े रहकर हरगोविंद नाटाणी की अध्यक्षता में अपनी जर्रार फौज राजमहल के पास बनास नदी किनारे भेजी।

जयपुर के प्रधान राजामल्ल खत्री, जो कि बड़े चतुर थे, उन्होंने मेवाड़ की फ़ौज में शामिल मराठों को अधिक धन देकर अपनी तरफ मिला किया। केवल खंडेराव व उसके कुछ सिपाही महाराणा के साथ खड़े रहे, बाकी सब जयपुर की सेना में शामिल हो गए।

लड़ाई शुरू हुई और दोनों तरफ के हज़ारों वीर काम आए। फतह का झंडा जयपुर वालों के हाथ रहा। इस लड़ाई से सवाई ईश्वरीसिंह का बड़ा नाम हुआ, क्योंकि उन्होंने इतनी मिली-जुली फ़ौजों को शिकस्त दी थी। लड़ाई ख़त्म हुई और फौजें लौटने लगी।

जयपुर के महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह कछवाहा

लेकिन शाहपुरा के महाराज उम्मेदसिंह अपनी फौजी टुकड़ी समेत वहीं खड़े रहे, तो जयपुर वालों ने उनको समझाया कि लौट जाओ, पर वे न माने। फिर जयपुर महाराजा ने हरावल को आक्रमण का आदेश दिया, पर हरावल के नेतृत्वकर्ता शिवसिंह शेखावत वहीं खड़े रहे, क्योंकि शिवसिंह उम्मेदसिंह के ससुर थे।

जयपुर के सवाई ईश्वरीसिंह ने हरावल की मजबूरी देखकर लौट जाने का फैसला किया। महाराज उम्मेदसिंह लड़ाई के अगले दिन शाहपुरा पहुंचे, जहां मेवाड़ी फौज, हाड़ौती फौज व मराठों की फौज ठहरी हुई थी।

महाराणा ने कहा कि हमें कुछ फौजी मदद और लेकर दोबारा इसी समय हमला करना चाहिए, लेकिन मराठों ने सलाह दी कि हम कुछ समय बाद जबर्दस्त फौज लाकर पूरी ताकत से हमला करेंगे तो बेहतर रहेगा।

राजमहल की इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से केलवा के मोहकमसिंह राठौड़ व उनके काका चतरसिंह ने बड़ी बहादुरी दिखाई, जिस वजह से महाराणा ने इनको आगरिया की जागीर देनी चाहिए, पर मोहकमसिंह ने कहा कि यह जागीर मुझे नहीं, मेरे काका चतरसिंह जी को दे दी जावे, तो महाराणा ने आगरिया की जागीर चतरसिंह राठौड़ को दे दी।

इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से बाठरड़ा के राव जोगीराम सारंगदेवोत सख्त ज़ख्मी हुए और उनके काका पद्मसिंह सारंगदेवोत वीरगति को प्राप्त हुए।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय

1748 ई. – खारी नदी का युद्ध :- महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने कोटा के महाराव दुर्जनसाल हाड़ा व मराठा खंडेराव को फ़ौज समेत उदयपुर बुलाया। अब तक कोटा के महाराव जब भी मेवाड़ आते थे, तो उनकी गद्दी मेवाड़ के सामन्तों के बराबर रखी जाती थी।

लेकिन इस समय महाराणा जगतसिंह ने उनको एक राजा की तरह गद्दी पर बिठलाकर सम्मानित किया, जिससे महाराव दुर्जनसाल आजीवन मेवाड़ के तरफ़दार बनकर रहे। मेवाड़, हाड़ौती व मराठों की मिली जुली फौज ने उदयपुर से कूच किया और खारी नदी के पास पड़ाव डाला।

जयपुर की सेना ने नदी की दूसरी तरफ़ पड़ाव डाला। पहले दिन की लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से मंगरोप के बाबा रतनसिंह व आरजे के रणसिंह ने जयपुर की हरावल को पीछे धकेल दिया। पहले दिन की लड़ाई में मेवाड़ वालों का पलड़ा भारी रहा।

रात होने की वजह से लड़ाई रोक दी गई और सभी अपने-अपने खेमे में लौट गए। मेवाड़ के इन दोनों वीरों की बहादुरी देखकर बाद में महाराणा द्वारा बाबा रतनसिंह को दादूथल और दांदियावास की जागीरें व रणसिंह को सिंगोली की जागीर दी गई।

रात के वक़्त जयपुर वालों की तरफ से सुलह के पैगाम आने लगे, तब महाराणा के खेमे में बातचीत हुई, जिसमें सब अपना अपना मतलब निकालने लगे, इसलिए लड़ाई स्थगित कर दी गई और फौजें लौट गई।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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