अप्रैल, 1743 ई. – मेरों की बगावत :- देवगढ़ की तरफ मेर जाति के लोगों ने उत्पात मचाना शुरू कर दिया। कालू खां नाम के मेर ने भगवानपुरा गांव पर कब्ज़ा कर लिया। देवगढ़ के रावत जसवंतसिंह चुंडावत के तीसरे पुत्र स्वरूपसिंह चुण्डावत ने मांडल के पास कालू खां मेर को मार डाला।
फिर स्वरूपसिंह चुण्डावत भगवानपुरा में गढ़ बनवाकर वहीं रहने लगे। इनके इस कार्य से प्रसन्न होकर महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने इनको गोडवाड़ के 15 गांवों सहित जोजावर की जागीर दी।
जयपुर के कुँवर व मेवाड़ के भाणजे माधवसिंह को रामपुरा की जागीर दिलवाना :- महाराणा जगतसिंह के पिता महाराणा संग्रामसिंह ने रामपुरा का परगना जयपुर के कुँवर माधवसिंह के नाम लिख दिया था। माधवसिंह उस समय बालक थे, इसलिए परगने की जिम्मेदारी महाराजा सवाई जयसिंह के आदेश से दौलतसिंह कछवाहा ने सम्भाल रखी थी।
जब माधवसिंह रामपुरा को संभालने लायक हुए, तब महाराणा जगतसिंह ने महाराजा जयसिंह को पत्र लिखकर कहलवाया कि अब रामपुरा से आप अपने आदमियों को हटा दीजिए, क्योंकि माधवसिंह वहां की जिम्मेदारी संभालने लायक हो चुके हैं। महाराजा जयसिंह इस समय बीमार थे, इसलिए बिना किसी आनाकानी के उन्होंने रामपुरा खाली कर दिया।
अक्टूबर, 1743 ई. – महाराणा जगतसिंह द्वारा जयपुर नरेश सवाई ईश्वरीसिंह पर फ़ौजकशी :- इसी दिनों जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह का देहांत हो गया। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने फ़रमान जारी कर दिया और जयपुर की गद्दी पर सवाई जयसिंह के बड़े बेटे ईश्वरीसिंह बैठ गए।
(1708 ई. में महाराणा अमरसिंह द्वितीय और सवाई जयसिंह के बीच हुई संधि के तहत यह गद्दी ईश्वरीसिंह के छोटे भाई माधवसिंह को मिलनी चाहिए थी, जो कि मेवाड़ के भाणजे थे)
महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने माधवसिंह को उनका हक़ दिलाने के लिए जयपुर पर चढ़ाई करने का फैसला किया। महाराणा ने फौज समेत नाहरमगरे में पड़ाव डाला। महाराणा ने कोटा के महाराव दुर्जनसाल हाड़ा को बुलावा भेजा।
महाराव दुर्जनसाल फ़ौज समेत कोटा से रवाना हुए और नाथद्वारा में अन्नकूट के दर्शन करके नाहरमगरा पहुंचे। महाराणा ने अगला पड़ाव बनास नदी के किनारे जामोली गांव में डाला, जो कि जहाजपुर परगने का ही एक गांव था।
जामोली में महाराणा 40 दिन तक रुके। सवाई ईश्वरीसिंह ने अपना पड़ाव पडेर गांव में डाल रखा था। सवाई ईश्वरीसिंह ने कूटनीति से काम लिया। सवाई ईश्वरीसिंह के आदेश से जयपुर के प्रधान राजामल्ल खत्री ने आपसी सुलह करवाने के प्रयास किए।
प्रधान राजामल्ल खत्री ने महाराणा से कहा कि “आपको कोटा के महाराव दुर्जनसाल के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हाड़ा राजपूतों के बहकावे में आकर आप जयपुर वालों से मित्रता मत तोड़िए।”
महाराणा जगतसिंह ने कहा कि “महाराणा अमरसिंह द्वितीय और महाराजा जयसिंह के बीच हुए अहदनामे की शर्त के मुताबिक माधवसिंह ही जयपुर की गद्दी पर बैठना चाहिए।”
राजामल्ल खत्री ने महाराणा से कहा कि “महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह के जयपुर की गद्दी पर बैठने के पीछे मुगल बादशाह मुहम्मदशाह का भी हाथ है, इस ख़ातिर आपको उनसे बैर नहीं लेना चाहिए, क्योंकि मेवाड़ को इस वक्त बादशाही ताकत से लड़कर अपनी शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिए।”
तब सुलह के मुताबिक यह तय हुआ कि माधवसिंह को 5 लाख रुपए की सालाना आमदनी वाला परगना टोंक दे दिया जावे। इस करार से कोटा के महाराव दुर्जनशाल नाराज़ हुए और महाराणा से इजाज़त लिए बगैर ही कोटा लौट गए। महाराणा भी फौज समेत मेवाड़ आ गए।
देवली पर चढ़ाई :- देवली का इलाका महाराणा जगतसिंह द्वितीय के अधीन था, जिस पर सावर के ठाकुर इंद्रसिंह सिसोदिया ने कब्ज़ा कर लिया। समझाने पर ठाकुर इंद्रसिंह देवली छोड़ने को तैयार हो गए, लेकिन उनके बेटे सालिमसिंह नहीं माने और अपनी फौज लेकर देवली पर डेरे डाल दिए।
महाराणा ने वीरमदेवोत राणावत बाबा भारतसिंह को फौज व कुछ तोपें देकर विदा किया। मेवाड़ी फौज ने देवली को घेर लिया। बाबा भारतसिंह ने सालिमसिंह को बहुत समझाया, पर वे नहीं माने। फिर मेवाड़ की फ़ौज ने गोलन्दाजी शुरू की।
तीन दिन तक तोपें चलती रही और चौथे दिन सालिमसिंह ने दरवाज़े खोल दिए और बाहर निकलकर बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति पाई। कुछ दिन पहले ही सालिमसिंह का विवाह हुआ था, उन्होंने अपने विवाह के कंकण तक नहीं खोले थे।
इस लड़ाई में 51 राजपूत महाराणा की तरफ से काम आए और 17 राजपूत सालिमसिंह की तरफ से काम आए। भारतसिंह राणावत ने देवली के गढ़ पर अधिकार कर लिया। ठाकुर इंद्रसिंह जामोली में महाराणा के सामने हाजिर हो गए।
शाहपुरा नरेश द्वारा जुर्माना भरना :- जब महाराणा जगतसिंह जयपुर के माधवसिंह के साथ उदयपुर पधारे, तब 17 फरवरी, 1744 ई. को शाहपुरा के उम्मेदसिंह ने उदयपुर आकर महाराणा जगतसिंह द्वितीय से क्षमा मांगी और तलवार बंधाई के 20-30 हज़ार रुपए व 2 हाथी महाराणा को नज़र किए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)