महाराणा जगतसिंह द्वितीय का जीवन परिचय :- इन महाराणा का जन्म 17 सितंबर, 1709 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय थे। महाराणा जगतसिंह की माता उम्मेदकंवर बाई थीं, जो कि बबोरी के मुकुंदसिंह पंवार की पुत्री थीं।
व्यक्तित्व :- महाराणा जगतसिंह द्वितीय का कद मंझला, रंग गेंहुआ व चेहरा हंसमुख था। ये महाराणा उदार, रहमदिल, महल बनवाने के शौकीन, विलासी, अपव्ययी व अदूरदर्शी थे। इन महाराणा की दिलचस्पी हाथियों की लड़ाई व शिकारगाह बनवाने में ज्यादा थी।
महाराणा जगतसिंह द्वितीय का कुँवरपदे काल :- 1 अप्रैल, 1718 ई. को कुँवर जगतसिंह के शीतला निकली, जिसका उत्सव मनाया गया और देलवाड़ा की हवेली के सामने वाले बाग में शीतला माता का मंदिर बनवाया गया।
जून, 1723 ई. को कुँवर जगतसिंह का विवाह लूणावाड़े के नाहरसिंह सोलंकी की पुत्री से हुआ। 8 अगस्त, 1724 ई. को कुँवर जगतसिंह की सोलंकी रानी से पुत्र की प्राप्ति हुई, जिनका नाम भँवर प्रतापसिंह रखा गया।
राज्याभिषेक :- 11 जनवरी, 1734 ई. को महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के देहांत के बाद महाराणा जगतसिंह द्वितीय का राज्याभिषेक हुआ, जिसका उत्सव इसी वर्ष 3 जून को मनाया गया।
हिंदुस्तान की स्थिति :- इस समय हिंदुस्तान की स्थिति दयनीय थी, क्योंकि हर जगह शासन प्रबंध की अव्यवस्था ने प्रजा को तंग कर रखा था। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह नाममात्र का बादशाह बनकर रह गया। आसफ़जाह ने हैदराबाद में, सआदत खां ने अवध में, अलावर्दी खां ने बंगाल में और रुहेलों ने रुहेलखंड में स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए।
जहाँ एक तरफ हिंदुस्तान में मुगल सल्तनत अपने पतन की ओर अग्रसर थी, वहीं दूसरी ओर मराठों का दबदबा बढ़ने लगा। इस दौर में राजपूत शासकों में भी शिथिलता दिखाई दी, सदियों से जो उनका रुतबा छाया हुआ था, वह अब मंद दिखाई दे रहा था।
अब वो दौर नहीं रह गया था कि उसूलों और स्वाभिमान को योद्धा अपनी तलवारों की नोक पर रखे। मराठों में भी छत्रपति शिवाजी महाराज के महान आदर्शों की झलक दिखाई देनी मन्द हो गई और उन्होंने राजपूत राज्यों को लूटने के लिए कमर कस ली। ग्वालियर में सिंधिया, बड़ौदा में गायकवाड़, इंदौर में होल्कर और पूणे में पेशवाओं ने अपनी जड़ें जमा लीं।
महाराणा जगतसिंह द्वितीय के पास ख़बर आई कि मराठों ने मालवा पर कब्ज़ा कर लिया है, तो महाराणा ने विचार किया कि यदि मालवा पर मराठों का कब्ज़ा हो गया है, तो मेवाड़ में भी वे लोग दंगे फसाद जरूर करेंगे।
इस खातिर मेवाड़ व जयपुर के राजाओं ने मिलकर मराठों को 5 लाख का धन देकर मालवा खाली करवाना चाहा, लेकिन मराठों ने धन लेने के बावजूद भी मालवा नहीं छोड़ा। इस धन का एक बड़ा हिस्सा सवाई जयसिंह मुगल बादशाह से लाए थे।
फ़िर महाराणा ने कुल राजपूताने की रियासतों को एक कर मालवा पर कब्ज़ा करने व मराठों के विरुद्ध खड़े होने की योजना बनाई। राजपूताने के सभी राजाओं की सभा बुलाने पर विचार हुआ, लेकिन महाराणा चाहते थे कि इस सभा के बारे में मराठों तक ख़बर ना पहुंचे।
इसलिए महाराणा ने 26 जून, 1734 ई. को अपनी पुत्री राजकुमारी ब्रजकंवर बाई का विवाह कोटा के महाराव दुर्जनशाल के साथ करवा दिया और सभी राजाओं को न्यौता भेजा।
17 जुलाई, 1734 ई. – हुरड़ा सम्मेलन :- मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय, मारवाड़ के महाराजा अभयसिंह राठौड़, जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह कछवाहा, बूंदी के राव राजा दलेलसिंह हाड़ा, करौली के यदुवंशी राजा गोपालपाल, नागौर के राजा बख्तसिंह,
शिवपुर, कोटा, बीकानेर, कृष्णगढ़ व अन्य रियासतों के छोटे बड़े राजा सबने मिलकर मेवाड़ की उत्तरी सीमा पर स्थित हुरड़ा नामक गांव में सभा की व एकमत से महाराणा जगतसिंह द्वितीय को नेतृत्वकर्ता चुना।
17 जुलाई को सभी राजाओं के बीच एक अहदनामे पर हस्ताक्षर किए गए। इस अहदनामे में निम्नलिखित बातें तय हुईं :- 1) सभी राजा धर्म की शपथ खाकर एक-दूसरे के सुख और दुःख के साथी रहें। एक का मान और अपमान सबका मान और अपमान समझा जावे।
2) एक के शत्रु को दूसरा शरण न दे। 3) वर्षा ऋतु के बाद कार्य शुरू किया जावे, तब सब राजा रामपुरा में एकत्र हों और यदि कोई राजा स्वयं न आ सके तो अपने पुत्र को भेजे। 4) किसी भी राजा का पुत्र अनुभव की कमी के कारण कोई गलती करे, तो मेवाड़ के महाराणा ही उसे ठीक करें। 5) कोई नया काम भी शुरू हो, तो सब एकत्र होकर करें।
हुरड़ा में महाराणा के लाल रंग के डेरे देखकर जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने भी अपने लिए लाल रंग के डेरे खड़े करवाए, जिससे किसी को शक़ हुआ और ख़बर मुगल बादशाह मुहम्मदशाह के पास पहुंची।
मुहम्मदशाह ने जोधपुर से एक वकील को बुलवाया और उससे पूछा। वकील होशियार था, उसने तुरंत बात बना दी और कह दिया कि सब राजा बादशाहत का इंतज़ाम करने की खातिर पहुंचे हैं, ये सुनकर बादशाह बड़ा ख़ुश हुआ।
राजपूताने की इस सभा में तय हुआ कि बरसात के बाद कार्रवाई शुरू की जाएगी और सब राजा अपने अपने राज्यों में लौट गए। राजपूत राजाओं के आपस में मतभेद व निजी स्वार्थों के चलते इस मसले पर कुछ ख़ास कार्रवाई नहीं हो पाई और हुरड़ा सभा का कोई परिणाम नहीं निकला।
यहां अधिक गलती महाराणा जगतसिंह की थी, क्योंकि नेतृत्वकर्ता होने के नाते उनके कर्तव्य भी दूसरों से अधिक थे। यदि राजाओं में आपसी मतभेद थे भी सही, तो महाराणा को सुलह करवानी चाहिए थी, लेकिन महाराणा ने भी ये काम नसीब पर छोड़ दिया।
इसके परिणाम बड़े घातक हुए, क्योंकि जब संगठन की शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है, तो अन्य मौकापरस्त लोग अपना मतलब निकालने की कोशिश करते हैं।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)