मेवाड़ महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (भाग – 4)

वैद्यनाथ महादेव मंदिर की प्रतिष्ठा :- महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की माता बाईजीराज देव कँवर ने उदयपुर के सीसारमा गांव में वैद्यनाथ महादेव मंदिर बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा 5 फरवरी, 1716 ई. को रखी गई। बाईजीराज देव कँवर बेदला के राव सबलसिंह चौहान की पुत्री थीं।

इस मंदिर की प्रतिष्ठा में महाराणा संग्रामसिंह ने लाखों रुपए खर्च किए। राजमाता देव कँवर ने बहुत सा धन दान में दिया व स्वर्ण का तुलादान भी किया। इस तुलादान में चिमनी बाई राजमाता की गोद में बैठी थीं। सम्भव है ये महाराणा की कोई पुत्री हो। 1718 ई. में इस मंदिर पर एक प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाई गई।

प्रतिष्ठा के अवसर पर कोटा के महाराव भीमसिंह हाड़ा, डूंगरपुर के रावल रामसिंह, मेवाड़ के कुँवर जगतसिंह, कुँवर नाथसिंह, पुरोहित सुखराम, राव सुरताणसिंह, रावत केसरीसिंह, राठौड़ किशनदास, किशनसिंह तंवर, चमरदार तुलसीदास, चमरदार पंचोली मयाचन्द आदि उपस्थित थे। इस अवसर पर मदनमूरत नाम का हाथी भी वहां उपस्थित था।

2 अप्रैल, 1717 ई. को महाराणा संग्रामसिंह के मामा बेदला के राव सुल्तानसिंह चौहान ने महाराणा को बावड़ी की प्रतिष्ठा के अवसर पर आमंत्रित किया। राव सुल्तानसिंह ने प्रतिष्ठा के अवसर पर दान, समारोह आदि में कुल 73 हज़ार रुपए खर्च किए।

सीसारमा में स्थित वैद्यनाथ मंदिर पर उत्कीर्ण मूर्तियां

मालवा के पठानों का दमन :- इन्हीं दिनों मालवा के पठानों ने मंदसौर की तरफ कई गांव लूटे और बहुत से लोगों को कैद कर लिया। ये ख़बर सुनकर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने कानोड़ के रावत सारंगदेव द्वितीय को फौज समेत विदा किया। मेवाड़ी फौज ने पठानों का सफलतापूर्वक दमन किया।

इस लड़ाई में रावत सारंगदेव व उनके पुत्र सख्त ज़ख़्मी हुए और जब महाराणा के सामने हाजिर हुए, तो महाराणा ने इनकी वीरता से प्रसन्न होकर खुद अपने हाथों से दोनों को पान का बीड़ा देकर प्रतिष्ठा बढ़ाई।

रामपुरा का मेवाड़ के अधीन होना :- रामपुरा के रतनसिंह ने अपने पिता राव गोपालसिंह को बेदखल करके रामपुरा पर कब्ज़ा कर लिया था, जिसके बाद राव गोपालसिंह मेवाड़ आ गए थे। जब रतनसिंह सारंगपुर के पास हुई किसी लड़ाई में मारा गया, तो महाराणा संग्रामसिंह की फ़ौजी मदद से रामपुरा पर राव गोपालसिंह ने अधिकार कर लिया।

इस कार्रवाई के बदले में महाराणा संग्रामसिंह ने राव गोपालसिंह को रामपुरा का कुछ हिस्सा देकर शेष हिस्सा मेवाड़ में मिला लिया। 29 अगस्त, 1717 ई. को राव गोपालसिंह व उनके पौत्र सरदारसिंह ने एक इकरारनामा लिखकर महाराणा को दिया, जिसमें महाराणा की अधीनता स्वीकार करने की बात लिखी।

वीर दुर्गादास का मेवाड़ आगमन :- इन्हीं दिनों मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ को जिस निस्वार्थ देशभक्त ने अपने बेटे समान पाला, 30 वर्षों तक संघर्ष करके मारवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया, उन्हीं अजीतसिंह ने दुर्गादास राठौड़ की बढ़ती हुई शक्ति देखकर उन्हें मारवाड़ से निकाल दिया।

वीर दुर्गादास राठौड़

दुर्गादास राठौड़ मेवाड़ आ गए, जहां महाराणा संग्रामसिंह ने उनको विजयपुर की जागीर दी और 15 हज़ार रुपए मासिक वेतन देना तय किया। इन्हीं दिनों रामपुरा के चंद्रावत राजपूतों ने फ़साद किया, तो महाराणा ने दुर्गादास राठौड़ को सेना सहित भेजा। महाराणा ने दुर्गादास जी को रामपुरा का हाकिम नियुक्त कर दिया।

महाराणा द्वारा महलों का निर्माण :- अगस्त, 1717 ई. में महाराणा संग्रामसिंह ने नाहरमगरा के महलों की नींव रखी। यहां महाराणा ने गुम्बजदार महल बनवाए। नाहरमगरा मेवाड़ के महाराणाओं की शिकारगाह थी। इसी तरह महाराणा संग्रामसिंह ने उदयसागर झील के किनारे स्थित कमलोद की पहाड़ी पर शिकार हेतु मकान बनवाए।

महाराणा राजसिंह ने मुगल सल्तनत का भरपूर विरोध किया था, जो बाद के महाराणाओं ने भी जारी रखा। हालांकि बाद में मुगलों से इतनी लड़ाइयां नहीं हुईं, पर मुगल सल्तनत और उसके कायदों का विरोध महाराणा हमेशा करते रहे।

लेकिन महाराणा राजसिंह के बाद मेवाड़ के महाराणा धीरे-धीरे आरामपसंद जीवन बिताने लग गए और हर एक महाराणा के बाद मेवाड़ की स्थिति में व उसके महान गौरव में कहीं न कहीं कमी देखने को मिलती रही। इसके बारे में ग्रंथ वीरविनोद में बहुत बढ़िया बात लिखी गई है, जो कुछ इस तरह है :-

“महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय जैसे अक्लमंद राजा ने उन बातों के अंजाम (अर्थात भविष्य) पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया, क्योंकि बुद्धिमान लोग संसारी सुख से नुकसान नहीं उठाते, परन्तु वे ऐश और इशरत की जड़ जमा देते हैं, जिससे पिछले ग़ाफ़िल लोग (वंशज) धीरे-धीरे ख़राबी में पड़कर बर्बादी की दशा को पहुंच जाते हैं।”

वीरविनोद में आगे लिखा है कि “महाराणा जयसिंह ने मरने से कुछ दिन पहले ऐश और इशरत के कामों की तरफ ध्यान दिया, फिर महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने बहादुरी और बुद्धिमानी के बगीचे में शराब के पानी से इस पौधे को परवरिश किया और महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने उस पौधे की शाखों को और बढ़ाया, पर ये नहीं सोचा कि इससे बगीचे के पिछले दरख्तों (वंशजों) को नुकसान पहुंचेगा।”

शीतला माता मंदिर का निर्माण :- 1 अप्रैल, 1718 ई. को महाराणा संग्रामसिंह के पुत्र कुँवर जगतसिंह को शीतला निकली, जिसका उत्सव मनाया गया। स्मॉलपॉक्स नामक रोग को ही शीतला का स्वरूप माना जाता है। इस अवसर पर महाराणा ने देलवाड़ा हवेली के सामने स्थित बाग के अंदर शीतला माता का मंदिर बनवाया।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय व कुँवर जगतसिंह

वीर दुर्गादास राठौड़ का देहांत :- 22 नवंबर, 1718 ई. को वीर दुर्गादास राठौड़ का देहांत हुआ और दाह क्रिया क्षिप्रा नदी के तट पर की गई। इन महान योद्धा का इतिहास मारवाड़ के इतिहास की सीरीज में बहुत विस्तार से लिखा जाएगा।

बादशाह फ़र्रुखसियर की हत्या :- 28 फरवरी, 1719 ई. को सैयद बंधुओं ने बादशाह फ़र्रुखसियर को कैद कर उसकी हत्या करवा दी और रफ़ीउद्दरज़ात को मुगल बादशाह बनाया। मारवाड़ नरेश महाराजा अजीतसिंह राठौड़, कोटा के महाराव भीमसिंह हाड़ा व सैयद अब्दुल्ला खां की सलाह से रफ़ीउद्दरज़ात ने जज़िया हटा दिया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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