मेवाड़ महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (भाग – 3)

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने अपनी तख्तनशीनी के साढ़े 4 माह बाद 26 अप्रैल, 1711 ई. को राज्याभिषेक उत्सव का आयोजन किया, जिसमें जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह भी उपस्थित थे। महाराणा संग्रामसिंह ने महाराजा सवाई जयसिंह से कहा कि “आप इस समय महल में लौट जावें, क्योंकि यहां इस भीड़भाड़ में आपकी बेअदबी हो सकती है।”

महाराजा जयसिंह ने कहा कि “अपने धर्मशास्त्र से पुराने कायदों के मुताबिक गद्दीनशीनी के वक़्त राजा में दिग्पाल का अंश आ जाता है, इसलिए मैं आपको रामचंद्र व महारानी को जानकी का स्वरूप मानता हूं, मुझको दर्शनों से वंचित न करें।”

महाराजा जयसिंह की बात सुनकर महाराणा संग्रामसिंह ने सहर्ष उनको राज्याभिषेक के समय आमंत्रित किया। राज्याभिषेक समारोह के बाद महाराणा संग्रामसिंह ने महाराजा जयसिंह व अन्य रिश्तेदारों को भेंट आदि देकर विदा किया।

27 फरवरी, 1712 ई. को मुगल बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकार संघर्ष हुआ, जिसमें तीन शहज़ादे मारे गए और शहज़ादा मुईजुद्दीन जहांदारशाह मुगल बादशाह बना। इस वक़्त मुगल सल्तनत की बुरी दशा थी।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय

जहांदारशाह ने महाराणा संग्रामसिंह के लिए टीके का दस्तूर नहीं भिजवाया, क्योंकि वह बाँधनवाड़ा के युद्ध में रणबाज़ खां की मृत्यु के कारण महाराणा से नाराज़ था।

12 फरवरी, 1713 ई. को सैयद बंधुओं की मदद से अजीमुश्शान के बेटे फ़र्रुखसियर ने अपने चाचा जहांदारशाह को मारा और खुद मुगल बादशाह बना। सैयद बंधुओं ने अपनी स्थिति मजबूत रखने के लिए मेवाड़ से अच्छे संबंध रखे। सैयद बंधुओं को ‘किंगमेकर’ भी कहा जाता है।

महाराणा संग्रामसिंह ने अपने वकील बिहारीदास कायस्थ को बादशाह के पास भेजा। फ़र्रुखसियर शतरंज खेलने का शौकीन था। वह अक्सर बिहारीदास के साथ शतरंज खेलने लगा। इन्हीं दिनों बिहारीदास ने अपनी चतुराई से सैयद बंधुओं में से एक सैयद अब्दुल्ला खां से मित्रता कर ली।

एक दिन बिहारीदास ने अब्दुल्ला खां से कहा कि जज़िया लगाने से पूरे मुल्क में हिन्दू लोग नाराज़ हैं, जज़िया हटा दिया जावे, तो सब लोगों की ये नाराज़गी दूर हो जाएगी। अब्दुल्ला खां ने बिहारीदास की बात पर विचार करके बादशाह फ़र्रुखसियर से चर्चा की और जज़िया हटा दिया।

लेकिन मज़हबी लोगों ने ये बात स्वीकार नहीं की और मक्का से एक अर्ज़ी भी आई, जिसमें लिखा था कि जज़िया लेना तुम्हारा फ़र्ज़ है। इस तरह विरोध देखते हुए फ़र्रुखसियर ने फिर से जज़िया लागू कर दिया।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय

सैयद अब्दुल्ला खां ने फ़र्रुखसियर को बहुत समझाने की कोशिश की, कि ऐसा करने से हिन्दू फिर से बखेड़ा करेंगे, लेकिन फ़र्रुखसियर नहीं माना और इसी वक्त से सैयद अब्दुल्ला खां की नज़रों में फ़र्रुखसियर खटकने लगा। फ़र्रुखसियर तख़्त के उन्माद में भूल चुका था कि उसको गद्दी पर बैठाने वाले भी सैयद बंधु ही थे।

मज़हबी लोगों ने फ़र्रुखसियर के कान भरने शुरू कर दिए कि ये अब्दुल्ला खां हिन्दू राजाओं से मिलावट रखता है। फ़र्रुखसियर जानता था कि जज़िया लागू करने से सबसे पहली प्रतिक्रिया मेवाड़ नरेश की हो सकती है, इसलिए उसने महाराणा संग्रामसिंह को एक ख़त लिखा, जो हूबहू यहां लिखा जा रहा है :-

“मामूली अल्काब के बाद, इन दिनों में जज़िया लिया जाना जारी होने की बाबत मक्के के शरीफ़ को अर्ज़ी गैब की खुशखबरी के मुवाफिक हाज़ी इनायतुल्ला खां के हाथ जो हज़रत खुल्दमकान के खालिसा का दीवान था, पेश होकर मालूम हुई

(अर्थात मक्का से इनायतुल्ला खां जज़िया लागू करने की अर्ज़ी लेकर आया, जो कि औरंगज़ेब के समय खालिसा का दीवान रह चुका था)। हम (फ़र्रुखसियर) ने जज़िया रअय्यत (प्रजा) की बेहतरी के ख्याल से बराहे एहसान मुआफ़ फ़रमाया था।

हमारे दिल में इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं था, लेकिन शरिया के कानून के बमूजिब अर्ज़ शरीफ़ को जो रोज़-ए-पाक (मक्का) का ख़ादिम है, बड़ों की अहद के मुवाफिक कुबूल करने का मामूल हो गया है, मंज़ूर किया गया। हमने इस बात की इत्तिला (जानकारी) हिंदुस्तान के उस उम्दा राजा (महाराणा संग्रामसिंह) को साफ़ तौर पर फ़रमाई।”

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय अपने पुत्र के साथ

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने इस ख़त पर कोई ध्यान नहीं दिया। इन्हीं दिनों महाराणा संग्रामसिंह ने वे कार्य करवाए, जिनकी बादशाही तौर पर मनाही थी। जैसे, चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जो पुराना त्रिपोलिया द्वार था (अर्थात 3 द्वार), वैसा त्रिपोलिया बाद में बादशाह द्वारा दिल्ली में बनवाया गया।

उसके बाद बादशाह ने आदेश निकलवा दिया कि कहीं भी त्रिपोलिया द्वार न बनाया जावे। महाराणा संग्रामसिंह ने उदयपुर राजमहलों में त्रिपोलिया द्वार बनवाया। चित्तौड़गढ़ और दिल्ली के त्रिपोलिया द्वार अर्थात तीनों द्वार एक साथ नहीं होकर कुछ आगे पीछे थे, लेकिन महाराणा ने उदयपुर में एक सीध में तीनों द्वार बनवाए।

इसके अलावा मुगल बादशाहों ने इस बात की मनाही कर रखी थी कि कहीं भी ‘अगड़’ न बनवाई जावे। अगड़ एक दीवार होती है, जिसके दोनों तरफ एक-एक हाथी रखकर उनको आपस में लड़ाया जाता। महाराणा संग्रामसिंह ने त्रिपोलिया द्वार और राजमहलों के बीच में अगड़ का निर्माण करवाया व साथ ही एक और अगड़ का निर्माण चौगान में करवाया।

1713 ई. में महाराणा संग्रामसिंह ने पिछोला झील की पाल के पूर्व की तरफ नीलकंठ महादेव जी के मंदिर के पास दक्षिणामूर्ति ब्रह्मचारी के नाम से एक महादेव मंदिर बनवाया। इसी वर्ष महाराणा संग्रामसिंह ने दिनकर भट्ट को कोद्याखेड़ी नामक गाँव भेंट किया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. Sukh raj singh rathore
    September 21, 2021 / 2:54 pm

    मैंने सभी सिरीज़ पढ़े बहुत ही शानदार ऐतिहासिक जानकारी मिली बहुत ही विस्तृत जानकारी मिली बहुत ही सराहनीय कदम है इसे आगे बढाते रहे? बधाई

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