14 अप्रैल, 1711 ई. – “बांधनवाड़े का युद्ध” :- मुगल बादशाह बहादुरशाह के वज़ीर ज़ुल्फिकार खां ने मेवाड़ के पुर, मांडल वगैरह परगने मेवाती रणबाज़ खां को व मांडलगढ़ का परगना नागौर के राव इंद्रसिंह को दे दिया। नागौर के राव इंद्रसिंह जानते थे कि मेवाड़ के परगने लेने का सीधा अर्थ मेवाड़ से दुश्मनी मोल लेना है, इसलिए उन्होंने ये परगने लेने से इनकार कर दिया।
बादशाह का बेटा शहज़ादा अज़ीमुश्शान, वज़ीर ज़ुल्फिकार खां के खिलाफ़ था, इसलिए उसने मेवाड़ संदेश भिजवाकर कहा कि मेवाड़ के परगनों पर इनका कब्ज़ा मत होने दो। बहादुरशाह के एक और बेटे शहज़ादे मुईज़ुद्दीन और वज़ीर ज़ुल्फिकार खां ने अपनी फौजी मदद रणबाज़ खां को दे दी और कहा कि मेवाड़ के परगनों पर कब्ज़ा कर लो।
रणबाज़ खां जर्रार मुगल फौज समेत मेवाड़ के लिए निकला। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय को पता चला, तो उन्होंने फौरन दरबार बुलाया और सेना भेजने का फैसला किया। महाराणा ने मेवाड़ी फौज की कमान रावत महासिंह सारंगदेवोत (कानोड़ वालों के पूर्वज) को सौंपी। ये रावत माहव के नाम से भी जाने जाते हैं।
अजमेर प्रांत के निकट बांधनवाड़े में रणबाज़ खां अपनी फौज समेत खारी नदी के तट पर पहुंचा। नीचे लिखे सर्दारों को महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने रावत महासिंह सारंगदेवोत के नेतृत्व में बांधनवाड़े जाने का आदेश दिया :-
रावत सूरतसिंह सारंगदेवोत (रावत महासिंह के भाई व बाठरड़े के पहले रावत साहब), रावत विक्रमसिंह सारंगदेवोत (रावत महासिंह के भाई), ठाकुर नाहरसिंह सारंगदेवोत (रावत महासिंह के पुत्र), रावत देवभान चौहान (कोठारिया), सूरजसिंह राठौड़ (लीमाड़ा),
रावत देवीसिंह चुण्डावत (बेगूं), रावत मोहनसिंह मानावत, डोडिया हठीसिंह, पीथळ शक्तावत, मधुकर शक्तावत, रावत गंगदास शक्तावत (बान्सी), सूरजमल सौलंकी (रुपनगर), राजराणा सज्जा झाला द्वितीय (देलवाड़ा), ठाकुर दौलतसिंह चुण्डावत (दौलतगढ़), रावत संग्रामसिंह चुण्डावत (देवगढ़),
संग्रामसिंह राणावत (खैराबाद), संग्रामसिंह (मदारिया), साहबसिंह राठौड़ (रुपाहेली), ठाकुर जयसिंह राठौड़ (बदनोर), सामन्तसिंह चुण्डावत (सलूम्बर रावत केसरीसिंह के भाई), रावत पृथ्वीसिंह चुण्डावत (आमेट), जसकरण कानावत, राजा भारतसिंह (शाहपुरा), कुँवर उम्मेदसिंह (शाहपुरा), महता सांवलदास, कान्ह कायस्थ (छीतरोत)
मेवाड़ी फौज ने हुरड़ा में पड़ाव डाला और कुछ समय बाद खारी नदी को पार कर आगे बढ़े। बांधनवाड़े के निकट दोनों सेनाएँ आमने सामने आईं। मेवाड़ी फौज में पैदल, घुड़सवार, तीरंदाज़ सब मिलाकर 20 हजार योद्धा थे। मुगल फौज में 5 हजार तीरंदाज़, 10 हजार घुड़सवार व लगभग इतने ही पैदल सिपाही थे।
रावत महासिंह सारंगदेवोत ने ललकार कर कहा कि “रणबाज़ खां के जितने कदम मेवाड़ की तरफ़ पड़े, उतनी ज़मीन और कुँए ब्राह्मणों को संकल्प कर दूँगा”। जे पग लागे जाण, रण सामा रणबाज़ रा। उद्दक पृथी अडाण, करदेसू माहव कहै।।
मदारिया के संग्रामसिंह ने अपनी फौजी टुकड़ी को ललकार कर कहा कि “मदारिया के कुल खरगोश मार खाए हैं, पर गोली लगाने और नाम पाने का मौका आज है”
कविराज श्यामलदास लिखते हैं “मेवाड़ी बहादुरों ने लड़ाई की शुरुआत में ही मुगल फौज को घेर लिया और इस कदर हावी रहे कि मुगल तीरंदाज़ दूसरी बार अपनी कमान पर तीर ही नहीं चढ़ा सके”
भीमसी महाजन की बहादुरी :- इस युद्ध में महाराणा द्वारा लिखे सर्दारों में बेगूं के रावत देवीसिंह चुण्डावत किसी कारण भाग नहीं ले पाए, तो उन्होंने अपने कोठारी भीमसी महाजन को भेज दिया। तब मेवाड़ के किसी सामंत ने कहा कि “कोठारी जी, यहाँ आटा नहीं तोलना है”।
ये ताना सुनकर भीमसी ने दोनों हाथों में तलवारें पकड़ी और कहा “अब देखो मैं किस तरह दोनों हाथों से आटा तोलता हूं”। इतना कहकर युद्ध की शुरुआत में ही भीमसी महाजन ने घोड़े की बाग कमर से बांधी और दोनों हाथों में तलवारें लेकर मुगलों पर टूट पड़े और बहुत से मुगलों को मारकर बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
रावत महासिंह सारंगदेवोत का बलिदान :- भारी मारकाट के बीच रावत महासिंह सारंगदेवोत व रणबाज़ खां का आमना-सामना हुआ। रणबाज़ खां ने रावत महासिंह पर वार किया, जिससे रावत महासिंह गिर पड़े।
करीब था कि मुगलों की विजय होती, तभी रावत महासिंह ने अचानक उठकर रणबाज खां का सिर काट दिया और स्वयं भी सख्त ज़ख्मी होकर वीरगति को प्राप्त हुए। मान्यता है कि युद्ध से पहले रणबाज़ खां की माँ ने रावत महासिंह से एक वचन मांगा था कि युद्ध में आपका सामना मेरे बेटे से हो तो पहला वार मेरा बेटा ही करे।
सूर्य भक्त रावत महासिंह वचन के बड़े पक्के थे। युद्ध में जब दोनों का सामना हुआ तो रणबाज़ खां के पहले वार से रावत महासिंह का सिर धड़ से अलग हो गया। तत्पश्चात भी रावत महासिंह जी का धड़ लड़ता रहा और रणबाज़ खां उनके वार से कत्ल हुआ।
तें वाही इकतार, मुगलां रे सिर माहवा। धज वड हदी धार, सात कोस लग सीसवद।। (रावत महासिंह सारंगदेवोत की वीरता पर 1711 ई. में ही ‘माहवजसप्रकास’ नामक रूपक लिखा गया)
मेवाड़ की तरफ से वीरगति पाने वाले योद्धा :- रावत महासिंह सारंगदेवोत (कानोड़) :- बांधनवाड़े से करीब डेढ़ मील दूर रावत महासिंह का स्मारक स्थित है। यहां के निवासी रावत महासिंह को लोकदेवता के रूप में पूजते हैं। कानोड़ ठिकाने की तरफ से यहां के पुजारी को भूमि भी प्रदान की गई।
कोठारी भीमसी महाजन (बेगूं), ठाकुर दौलतसिंह चुण्डावत (दौलतगढ़), कुँवर कल्याणसिंह चुण्डावत (दौलतगढ़) आदि योद्धा भी इस लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए।
मेवाती रणबाज खां अपने भाई नाहर खां व अन्य भाई बेटों समेत मेवाड़ी फौज के हाथों कत्ल हुआ। दीनदार खां (दिलेर खां) अपनी बची-खुची फौज समेत अजमेर की तरफ भाग निकला।
रावत गंगदास शक्तावत का उपहास :- महाराणा ने जब इस युद्ध के लिए सेना भेजी थी, तब बान्सी के रावत गंगदास शक्तावत ने कहा था कि आप सभी युद्ध के लिए निकलिए, हम कुछ समय बाद आते हैं। रावत गंगदास की मंशा थी कि युद्ध के अंतिम समय में जब दोनों सेना लड़कर थक जाएगी, तब वहां पहुंचकर युद्ध जीतने का श्रेय अपने नाम कर लिया जावे।
इस खातिर रावत गंगदास शक्तावत अपनी फौजी टुकड़ी समेत अजमेर के निकट पड़ाव डाल कर इंतजार करने लगे और संध्या होने से ठीक पहले युद्धभूमि की तरफ रवाना हुए, परंतु मार्ग भटक गए और वहां पहुंच ही नहीं पाए। जब मेवाड़ी फौज विजयी होकर लौट रही थी, तब रावत गंगदास मार्ग में मिल गए।
इस समय एक चारण ने रावत गंगदास को ताना मारते हुए एक दोहा कहा था कि “माहव तो रण में मरे, गंग मरे घर आय”। अर्थात् रावत महासिंह सारंगदेवोत तो युद्ध में लड़ते हुए काम आए, जबकि गंगदास बिना लड़े ही घर में घुट के मरे।
युद्ध में वीरता दिखाने वालों को पुरस्कार :- रावत महासिंह सारंगदेवोत के बलिदान से प्रसन्न होकर उनके पुत्र रावत सारंगदेव द्वितीय को महाराणा ने कानोड़ की जागीर दी व रावत महासिंह के छोटे भाई सूरतसिंह को बाठरड़े की जागीर दी।
सलूम्बर के सामंतसिंह चुण्डावत को महाराणा ने बम्बोरा की जागीर दी। बदनोर के ठाकुर जयसिंह राठौड़ को महाराणा ने एक हाथी व सिरोपाव दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
कोठरी भीमसी बेगूं के न होकर सावा के होने की अधिक संभावना है। सावा उस समय बेगूं के जागीर में था और सावा में कोठारी परिवार के महल, छतरिया और पूर्वज का अश्वारूढ़ चबूतरा और कोठारी परिवार की सती माता का स्थान भी है। सावा के कोठारी आज भी सिंह की उपाधि प्राप्त हैं।