मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय (भाग – 7)

1708 ई. में महाराणा अमरसिंह द्वितीय द्वारा मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ व जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह कच्छवाहा को शरण देने के कारण बादशाह बहादुरशाह के बेटे शहज़ादे मुइज़ुद्दीन जहांदारशाह ने एक ख़त महाराणा को लिखा। ये खत हूबहू कुछ इस तरह है :-

“नेक नियत ख़ैरख्वाहों का बड़ा, नेकी चाहने वाले दोस्तों का उम्दाह, वफ़ादार खानदान का बुज़ुर्ग, मर्ज़ी ढूंढने वाले घराने का यादगार, बादशाही ताबेदारों का बिहतर, बादशाही मिहरबानियों और एहसान के लायक, मुसलमानी बादशाहत का फ़र्माबर्दार राणा अमरसिंह बहुत सी बादशाही मिहरबानियों से मज़बूत दिल होकर जाने,

जो कि इन दिनों में अजीतसिंह, जयसिंह और दुर्गादास को बादशाही अहल्कारों ने जागीर और तनख़्वाह नहीं दी, इसलिए वह तकलीफ़ के सबब उठ भागे हैं, उस ख़ैरख्वाह (राणा अमरसिंह) को चाहिए कि उन लोगों को अपने पास नौकर ना रखे और बादशाही मिहरबानियों से तसल्ली देकर तीनों की अर्ज़ियां हुजूर में भेज दे,

कि उस उम्दाह राजा (महाराणा) की मारिफ़त (ज़रिए) हम दर्मियान में आकर इन लोगों के कुसूर मुआफ़ करा देंगे, ताकि ये लोग कुछ अर्से अपने वतन में रहकर तकलीफ़ से आराम पावें। इसके बाद हम हुजूर में तलब करके अपनी मारिफ़त मुजरा करा देंगे। इस मुआमले में जहां तक हो सके, ज्यादा ताकीद जाने, तसल्ली के साथ हजरत बादशाह की मिहरबानियों को अपने हाल पर हमेशा बढ़ता हुआ समझे”

महाराणा अमरसिंह द्वितीय

महाराणा अमरसिंह ने इस ख़त की परवाह न की और इन महाराजाओं को अपने पास ही रखा। महाराणा अमरसिंह मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ से मिलने गए। महाराजा अजीतसिंह ने महाराणा को एक हाथी, दो घोड़े, एक जड़ाऊ कटारी, एक बरछी और एक मीनाकारी के काम की तलवार भेंट की।

फिर महाराणा अमरसिंह जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह से मिलने गए। महाराजा सवाई जयसिंह ने भी कई वस्तुएं महाराणा को भेंट करनी चाही, परन्तु महाराणा ने मना कर दिया, क्योंकि महाराणा ने अपनी पुत्री चंद्रकुंवरी बाई का विवाह महाराजा सवाई जयसिंह से करवाने का इरादा कर लिया था।

महाराणा अमरसिंह ने सवाई जयसिंह को टीका दस्तूर के रूप में एक हाथी व दो घोड़े भेंट किए। 6 जून, 1708 ई. को यह विवाह सम्पन्न हुआ। महाराणा ने चांदी से सुसज्जित दो हाथी, 45 घोड़े, एक रथ, दो खर्सल, गहने व सोने चांदी के बर्तन, 20 हज़ार रुपए, 800 सिरोपाव (सिर से पांव तक पहनने की पोशाक) मर्दाने (पुरुषों हेतु) व 616 सिरोपाव जनाने (महिलाओं हेतु) दहेज में भेंट किए।

इस विवाह के समय एक वचन पत्र लिखा गया था, जिस पर सवाई जयसिंह व महाराजा अजीतसिंह के हस्ताक्षर हुए। इस वचन पत्र में महाराणा ने ये शर्तें रखीं :- 1) मेवाड़ की राजपुत्री सब रानियों में मुख्य समझी जावे, चाहे वह छोटी ही हो। 2) मेवाड़ की राजपुत्री से होने वाले पुत्र को जयपुर का उत्तराधिकारी समझा जावे, भले ही वह अन्य राजकुमारों से छोटा हो।

जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह

यह विवाह बाद में राजपूताने के लिए एक अभिशाप बना और इन शर्तों में दूसरे नंबर की शर्त के घातक दुष्परिणाम निकले, जिनका वर्णन सही समय पर आगे किया जाएगा।

महाराणा अमरसिंह द्वितीय के समय मेवाड़, मारवाड़ और जयपुर एक हो चुका था, तो एक बात बार-बार उठने लगी और महाराणा को सलाह दी जाने लगी कि इस वक़्त आगरा का बादशाह नाकाबिल है, और राजपूताने की 3 बड़ी शक्तियां आपके साथ हैं, तो आपको आगरा के तख्त पर बैठना चाहिए।

ये बात मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह को पसंद नहीं आई, इसलिए तीनों राजाओं के बीच तय हुआ कि तीनों रियासतों से एक-एक चारण बुलाया जावे और उनकी राय पर ही फैसला किया जावे। मारवाड़ से द्वारिकादास दधिवाडिया, आमेर से देवीदान गाडण और उदयपुर से ईश्वरदास भादा आए।

मारवाड़ के द्वारिकादास ने एक दोहा कहा कि “ब्रज देशां चंदण बडा मेरु पहाड़ां मौड़, गरुड़ खगा लंका गढ़ा राज कुला राठौड़” अर्थात् देशों में ब्रज, दरख्तों में चन्दन, पहाड़ों में सुमेरु, पक्षियों में गरुड़, किलों में लंका और राजपूतों में राठौड़ अव्वल दर्जे के हैं, इसलिए हिंदुस्तान की बादशाहत पर महाराजा अजीतसिंह का हक़ है।

इस दोहे के जवाब में उदयपुर के ईश्वरदास ने ये दोहा कहा कि “ब्रज बसावण गिर नख धरण चन्दण दियण सुगंध, गरुड़ चढ़ण लंका लियण रघुवंशी राजन्द” अर्थात् ब्रज को आबाद करने वाले, चन्दन को खुशबू देने वाले, पर्वत को नख पर उठाने वाले, गरुड़ पर सवार होने वाले, लंका को जीतने वाले रघुवंशी राजा हैं, इसलिए हिंदुस्तान की बादशाहत पर महाराणा का ही हक़ है।

इस आपस के झगड़े को देखकर महाराणा ने कहा कि “अभी भी कई राजा बादशाह के दरबार में सिर झुकाए खड़े रहते हैं और वे कभी भी हमारे ताबेदार बनना कुबूल नहीं करेंगे और उल्टा हमसे ही फसाद करेंगे, जिससे मौका पाकर मुसलमान फिर से दिल्ली जीत लेंगे, इस खातिर हम फिज़ूल में अपनी फज़ीहत नहीं करवाना चाहते। बेहतर यही होगा कि आप दोनों हमारी फौजी मदद लेकर अपनी-अपनी रियासतों पर कब्ज़ा कर लेवें और इस मुआमले में हम पूरे दिल से आपके साथ हैं।”

जब तक उक्त महाराजा मेवाड़ में रहे, महाराजा अजीतसिंह को 400 रुपए, सवाई जयसिंह को 400 रुपए व वीर दुर्गादास राठौड़ को 200 रुपए महाराणा अमरसिंह द्वारा प्रतिदिन प्रदान किए जाते थे।

महाराजा अजीतसिंह राठौड़

विदाई के वक्त महाराणा अमरसिंह ने महाराजा अजीतसिंह को 10 हज़ार रुपए, एक हाथी व दो घोड़े भेंट किए व महाराजा अजीतसिंह के चारों पुत्रों के लिए घोड़े, सिरोपाव आदि भिजवाए। महाराणा ने वीर दुर्गादास को एक घोड़ा, सिरोपाव व 2 हज़ार रुपए भेंट किए।

महाराणा अमरसिंह ने कायस्थ श्यामलदास व महासहानी चतुर्भुज को फ़ौज देकर दोनों महाराजाओं के साथ विदा किया।

जोधपुर पर राजपूतों का अधिकार :- बहुत समय बाद राजपूताने में एकता नज़र आई। तीनों सम्मिलित राजाओं की सेना ने सर्वप्रथम मेहरानगढ़ किले को घेर लिया। वीर दुर्गादास राठौड़ ने कुछ शर्तों पर मेहराब खां से किला ले लिया।

राजपूतों ने अगला पड़ाव पुष्कर में डाला, एक महीने तक वहां रहे और अजमेर के सूबेदार शुजाअत खां से फौज खर्च के लिए जबरन धन वसूल किया।

जयपुर पर राजपूतों का अधिकार :- इसी सम्मिलित फौज ने आमेर पर चढ़ाई की। सांभर में लड़ाई हुई, जहां शाही थानेदार हुसैन खां भाग निकला और जयपुर पर सवाई जयसिंह का अधिकार हुआ। जयपुर की लड़ाई में रामचन्द्र और श्यामसिंह कछवाहा का विशेष योगदान रहा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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