1698-1699 ई. में महाराणा अमरसिंह द्वारा एक हज़ार घुड़सवार दक्षिण में भेजना :- मेवाड़-मुगल सन्धि के मुताबिक महाराणा को एक हज़ार घुड़सवार दक्षिण में भेजने थे, तो महाराणा अमरसिंह ने पृथ्वीसिंह और रामराय के नेतृत्व में एक हज़ार घुड़सवार दक्षिण में भेज दिए।
महाराणा जयसिंह से जज़िया के एवज में औरंगज़ेब ने पुर-माण्डल, बदनोर और मांडलगढ़ के परगने ज़ब्त कर लिए थे, फिर महाराणा जयसिंह ने सालाना एक लाख रुपए देने का वादा किया और ये परगने वापिस प्राप्त किए। लेकिन महाराणा ने औरंगज़ेब को एक लाख रुपए नहीं दिए, जिसके बाद औरंगज़ेब ने फिर से ये तीनों परगने ज़ब्त कर लिए थे।
उस समय कुँवर अमरसिंह ने लगभग 1695 ई. में इन परगनों को लेने का इरादा किया और औरंगज़ेब के वज़ीर को खत वगैरह लिखकर उक्त परगने ठेके में ले लिए। कुँवर अमरसिंह की सेवा में महासिंह थे, जो कि मुकुंददास के पुत्र थे, उनको ये परगने ठेके में दिए गए।
यह तय हुआ था कि इन परगनों से जो भी आय हो, उसका एक हिस्सा बादशाही ख़ज़ाने में भिजवा दिया जावे। ये परगने 3 वर्षों के लिए ठेके में दिए गए थे। कुँवर अमरसिंह ने हर बार फसलों में टिड्डी लग जाने का बहाना बनाकर जो रकम तय हुई थी, उसकी तुलना में बहुत कम नाममात्र की रकम बादशाही ख़ज़ाने में जमा करवाई।

3 वर्षों बाद जब महाराणा अमरसिंह गद्दी पर बैठे, तब करार के मुताबिक औरंगज़ेब ने ये परगने फिर से ले लिए। ये परगने औरंगज़ेब ने बादशाही खालिसे में शुमार करके मारवाड़ के जुझारसिंह, राजसिंह व कर्ण को दे दिए।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय द्वारा मांडलगढ़ पर आक्रमण (1698-1699 ई.) :- मांडलगढ़ पर महाराणा जयसिंह के समय से ही मुगलों का आधिपत्य था। महाराणा अमरसिंह ने गद्दी पर बैठते ही मांडलगढ़ से बादशाही थानेदारों को मार-भगा कर अपना अधिकार जमाया।
जिससे नाराज़ होकर अजमेर के सूबेदार सैयद मुहम्मद ने एक ख़त महाराणा को लिखा। दबाव बढ़ने पर महाराणा को मांडलगढ़ से अपना कब्ज़ा हटाना पड़ा।
1 वर्ष तक शिकायतों को दौर जारी रहा। लगातार महाराणा अमरसिंह की शिकायतें औरंगज़ेब से होती रहीं और औरंगज़ेब की तरफ से चेतावनियां मिलती रहीं, तो महाराणा अमरसिंह ने रोज़-रोज़ की शिकायतों से तंग आकर बादशाही मुल्क लूटने का मन बनाया।
महाराणा अमरसिंह द्वारा बादशाही मुल्क लूटने के इरादे से बूंदी प्रस्थान :- महाराणा अमरसिंह तीर्थयात्रा के बहाने 20 हजार की फौज समेत अपने ननिहाल बूंदी की तरफ रवाना हुए। महाराणा का इरादा आमेर रियासत के मालपुरा नगर को लूटने का था।

महाराणा के विरोधी डूंगरपुर के रावल खुमानसिंह ने महाराणा की चढ़ाई की ख़बर बढ़ा चढ़ाकर बादशाह तक पहुंचाई। महाराणा अमरसिंह ने बूंदी में विश्राम किया, जहां उन्हें सलाह दी गई कि इस वक़्त मालपुरा पर हमला करना घातक साबित हो सकता है। महाराणा ने यह बात मानते हुए पुनः मेवाड़ की तरफ प्रस्थान किया।
वज़ीर असद खां ने महाराणा को पत्र लिखकर इस फौजी जमावट का कारण पूछा, तो महाराणा ने जवाब में लिखा कि हम तीर्थयात्रा के लिए आए हैं। तब वज़ीर ने दोबारा पत्र लिखा कि तीर्थयात्रा के लिए भी बादशाह से इजाज़त लेनी चाहिए थी। वज़ीर असद खां का पत्र यहां हूबहू लिखा जा रहा है :-
“बादशाही खैरख्वाही के इरादे हमेशा उन दोस्त (महाराणा अमरसिंह) के दिल में कायम रहें। मालूम हो कि इससे पहले उन दोस्त ने जिस कद्र नज़र का सामान मए (साथ) दरख्वास्त के बादशाही दरगाह में भेजा था, पेश होकर कुबूल किया गया था।
बादशाह ने उन दोस्त (महाराणा) को फ़रमान लिखे जाने का भी हुक्म दिया था, पर इन्हीं दिनों में उन उम्दा सरदार (महाराणा) का तीर्थ की नियत से बूंदी की तरफ़ जाना अर्ज़ हुआ। नज़र की चीज़ें उन दोस्त को वापिस कर दी गई हैं और फ़रमान का लिखा जाना भी मुल्तवी रहा (अर्थात औरंगज़ेब ने महाराणा अमरसिंह से नाराज़ होकर महाराणा द्वारा भेंट की गई वस्तुएं फिर से लौटा दीं)।
ऐसा मुनासिब था कि फ़रमान मिलने पर शुक्र अदा करके तीर्थ के वास्ते इजाज़त मांगते। बग़ैर हुक्म अपनी जगह से निकलना दस्तूर के ख़िलाफ़ है और उन दोस्त (महाराणा) की अक्लमंदी से निहायत दूर मालूम होता है।
इसलिये जो अर्ज़ी इन दिनों में बुज़ुर्ग दरगाह में भेजी थी, बादशाह की तबीअत को बर्ख़िलाफ देखकर पेश नहीं की और जो कागज़ मुझको भेजा था, दोस्ती के सबब उन दोस्त (महाराणा) के वकील से लेकर मैंने पढ़ा, जिसमें इत्तिला थी कि आप (महाराणा) लौटकर अपने वतन (मेवाड़) पहुंच गए हैं।

अब यहां एक और बात लिखी जाती है कि बदनोर वग़ैरह 3 परगनों में, जो कि जज़िया के एवज में बादशाही नौकरों को आपने सौंप दिए हैं, बिल्कुल दख़ल न दें (अर्थात महाराणा अमरसिंह बदनोर, पुर-माण्डल और मांडलगढ़ के परगनों में बराबर सेनाएं भेजा करते थे, जिसकी शिकायत बादशाह से की गई)।
मैं (वज़ीर असद खां) दोस्ती का हक़ अदा करता हूँ, चाहे वह पसन्द हो या नापसंद। आइन्दह अपने फ़ायदों पर निगाह रखकर बादशाही मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न करें।”
इस तरह वज़ीर खां ने महाराणा अमरसिंह को चेतावनी भरा खत लिखकर मुगल विरोधी कार्रवाइयां करने से रोकने का प्रयत्न किया, परन्तु महाराणा अमरसिंह को तो मुगलों से बर्ख़िलाफी विरासत में मिली थी। वे भला इन खतों से कहाँ रुकने वाले थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
भला महाराणा मुगलों के खतों कब रुकने वाले थे
वो भला एकलींग जी दीवान इन कट्ट मुल्लों से कब डरने वाले थे
जय एकलींग जी🙏🙏