मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय (भाग – 2)

महाराणा अमरसिंह के राज्याभिषेक (1698 ई.) के समय सभी रजवाड़ों से टीके का दस्तूर आया, लेकिन डूंगरपुर के रावल खुमानसिंह, बांसवाड़ा के रावल अजबसिंह और देवलिया के रावत प्रतापसिंह ने हाजिर होकर टीके का दस्तूर पेश नहीं किया।

महाराणा अमरसिंह ने नाराज़ होकर अपने काका सूरतसिंह को फौज समेत डूंगरपुर भेजा। डूंगरपुर के रावल खुमानसिंह की फ़ौज से सोम नदी के किनारे लड़ाई हुई, जिसमें दोनों तरफ़ के कुछ सैनिक काम आए। रावल खुमानसिंह महलों को छोड़ पहाड़ियों में चले गए। मेवाड़ी फौज ने डूंगरपुर नगर को लूटा।

अंत में देवगढ़ के रावत द्वारिकादास चुण्डावत ने बीच में पड़कर सुलह करवाई। रावल खुमानसिंह ने महाराणा के लिए टीके का दस्तूर भेजा और 1 लाख 75 हजार रुपए जुर्माने के तौर पर दिए। महाराज सूरतसिंह 50 मेवाड़ी सैनिकों को डूंगरपुर में ही छोड़कर शेष फ़ौज सहित उदयपुर आ गए।

इसी तरह महाराणा ने बांसवाड़ा के रावल अजबसिंह व देवलिया के रावत प्रतापसिंह पर भी हमले करके टीके का दस्तूर भेजने के लिए बाध्य किया। महाराणा अमरसिंह द्वारा डूंगरपुर पर आक्रमण करवाने से डूंगरपुर रावल खुमानसिंह ने नाराज़ होकर महाराणा की शिकायत औरंगज़ेब से कर दी।

जूना महल (डूंगरपुर)

रावल खुमानसिंह ने अपने वकील को भेजकर औरंगज़ेब से कहलाया कि “महाराणा अमरसिंह ने मुझसे कहा है कि मैं बादशाही मुल्क मालपुरा को लूट लूं और चित्तौड़गढ़ किले की मरम्मत करवाने में महाराणा का साथ दूँ, पर जब मैंने ऐसा करने से मना किया, तो महाराणा ने डूंगरपुर पर फ़ौज भेज दी, जिससे लड़ाई हुई और उसके बाद महाराणा ने एक और फ़ौज भेज दी।”

इसके बाद औरंगज़ेब ने महाराणा अमरसिंह को एक खत भेजा, तो महाराणा ने कहलाया कि डूंगरपुर का रावल खुमानसिंह झूठ बोल रहा है। इसके बाद 9 अगस्त, 1699 ई. को औरंगज़ेब के वज़ीर ने महाराणा अमरसिंह को एक और चेतावनी भरा ख़त लिखा, जो हूबहू यहां लिखा जा रहा है :-

“हमेशा बादशाही इनायतों में शामिल रहकर ख़ुश रहें, दोस्ती की बातें ज़ाहिर करने के बाद मालूम हो कि उस दोस्त (महाराणा अमरसिंह) का पसंदीदा ख़त पहुंचा, उसमें बयान है कि बांसवाड़ा, देवलिया, डूंगरपुर और सिरोही के जागीरदार गद्दीनशीनी के वक्त कुछ चीजें तोहफ़े के तौर पर क़दीम (पुराने ज़माने से) से देते हैं।

इन दिनों में खुमानसिंह डूंगरपुर का जागीरदार इनकार करता है। खुमानसिंह के लिखे हुए से ऐसा अर्ज़ हुआ कि उस दोस्त (महाराणा अमरसिंह) ने ज़मींदार (रावल खुमानसिंह) को पैगाम भेजा था कि अगर शरीक बने तो परगना मालपुरा वग़ैरह को लूट लिया जावे,

पर ज़मींदार (रावल खुमानसिंह) ने यह बात कुबूल न की। इसके बाद उस उम्दा सरदार ने अपने काका सूरतसिंह को ज़मींदार की जागीर (डूंगरपुर) लूटने को रवाना किया, लड़ाई होने पर दोनों तरफ़ के आदमी मारे गए। अब उस उम्दा भाई (महाराणा अमरसिंह) ने दोबारा फ़ौज भेजी है।

यह बात बादशाही हुज़ूर में बहुत ख़राब मालूम हुई। इस मौके पर इस दुनिया के खैरख्वाह (मैं अर्थात वज़ीर) ने पृथ्वीसिंह, रामराय और बाघमल वग़ैरह उस दोस्त (महाराणा अमरसिंह) के नौकरों की अर्ज़ के मुवाफिक हुज़ूर (औरंगज़ेब के सामने) में ज़ाहिर किया कि डूंगरपुर के वकील ने जाली (नकली) ख़त बना लिया है।

उस दोस्त (महाराणा) का मतलब अर्ज़ कर दिया गया। बादशाही हुक्म से इस मुक़दमे की तहकीकात के वास्ते शुजाअत खां को लिखा गया है कि असल हाल दर्याफ़्त (मालूम) करके लिख भेजे। मुनासिब यही है कि बादशाही मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम न किया जावे।”

महाराणा अमरसिंह द्वितीय

महाराणा अमरसिंह को यह खत मिला, जिसके कुछ दिन बाद ही औरंगज़ेब की तरफ से एक और खत आ गया। महाराणा अमरसिंह द्वारा डूंगरपुर, बांसवाड़ा, देवलिया आदि पर फ़ौजें भेजने को लेकर चेतावनी के तौर पर औरंगज़ेब के एक सेवक केशवदास कायस्थ की तरफ से एक ख़त महाराणा अमरसिंह को भेजा गया, जो हूबहू कुछ इस तरह है :-

“बलन्द इरादा बहादुरों के पेशवा राणा अमरसिंह जी ये जाने कि इन दिनों में देवलिया, डूंगरपुर और बांसवाड़ा के वकीलों ने हाज़िर होकर बयान किया है कि उस बड़े खानदान (मेवाड़) वाले उम्दा राजा (महाराणा अमरसिंह) की फ़ौजें इनमें से हर एक के इलाके में जाकर सताती हैं, इस सबब (कारण) से कि इनकी तरफ से टीका इनायत नहीं हुआ। फ़ौजों की तैनाती मौक़ूफ़ (स्थगित) रखें, क्योंकि शुरू में ही शिकायत की अर्ज़ होना अच्छा नहीं है।”

महाराणा अमरसिंह ने अब भी अपनी फ़ौजें डूंगरपुर, बांसवाड़ा व देवलिया से वापिस नहीं बुलवाई, तो औरंगज़ेब के वज़ीर असद खां ने कुशलसिंह शक्तावत को एक ख़त लिखकर महाराणा अमरसिंह को समझाने को कहा। यह खत 9 सितंबर, 1699 ई. को लिखा गया। वज़ीर असद खां ने लिखा कि :-

“बराबरी वालों में उम्दा बहादुर कुशलसिंह शक्तावत खुश रहे। राणा अमरसिंह ने मुझसे दोस्ती की है, मैं भी उनकी बिहतरी चाहता हूं। इस वास्ते मेरी तरफ़ से उन्हें कह दें कि डूंगरपुर के जागीरदार को ज्यादा दिक्कत देना मुनासिब नहीं, क्योंकि उस ज़मींदार (डूंगरपुर रावल खुमानसिंह) ने बहुत सी शिकायतें बादशाही हुज़ूर में अर्ज़ की हैं। राणा अमरसिंह की कार्रवाइयों में कोई फायदा नज़र नहीं आता है। ज्यादा क्या लिखा जावे।”

महाराणा अमरसिंह द्वितीय

इस तरह बार-बार औरंगज़ेब की तरफ से खत भिजवाए जाने के बावजूद भी महाराणा अमरसिंह ने बादशाही हुक्मों को नहीं माना। महाराणा अमरसिंह ने राजगद्दी पर बैठते ही यह जतला दिया था कि वे किसी के आदेशों पर शासन करने वालों में से नहीं हैं।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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