1687 ई. में महाराणा जयसिंह ने 2 बड़े तालाबों की प्रतिष्ठा करवाई :- 1) देवाली का तालाब :- उदयपुर से उत्तर में डेढ़ मील की दूरी पर मोतीमहल से नीमच माता के पहाड़ तक लम्बा बनवाया। (इसी तालाब का बाद में विस्तार हुआ और आज ये फतहसागर के नाम से विश्वप्रसिद्ध है)
2) दूसरा तालाब उदयपुर से 5 मील उत्तर में थूर गांव में बनवाया, जो कि फूट गया। इन दोनों तालाबों को बनवाने के बाद भी महाराणा का दिल खुश नहीं हुआ, क्योंकि वे एक ऐसा तालाब बनवाना चाहते थे, जिसको दुनिया याद रखे और प्रजा को उसका फायदा सदियों तक मिलता रहे। इसके अलावा महाराणा जयसिंह ने अपने कुँवरपदे काल से ही सोच रखा था कि अपने पिता महाराणा राजसिंह के बनवाए हुए तालाब राजसमन्द से बड़ा तालाब बनवाएंगे।
भारत की दूसरी सबसे बड़ी मीठे पानी की कृत्रिम झील विश्वप्रसिद्ध जयसमंद झील का निर्माण :- अलीगढ़ के लालसिंह पूर्बिया चौहान के पुत्र गुलालसिंह जीविका की तलाश में चित्तौड़ आए। महाराणा जयसिंह ने गुलालसिंह चौहान को सियाड़, मांडकला, बोरी आदि गांव जागीर में दिए।
कुछ दिनों के बाद महाराणा जयसिंह नाहरमगरे में शिकार के लिए गए, जहां उन्होंने एक जंगली सूअर का पीछा किया। वह सूअर केवड़े के दरख़्तों में से निकलकर चांद घाटी में चला गया और वहीं छिप गया। थोड़े दिन बाद वीरपुरा के अमरा पटेल ने उसी सूअर की ख़बर महाराणा को दी।
महाराणा अपने सरदारों समेत वीरपुरा गए, जहां महाराणा के एक सरदार ने उस सूअर का शिकार किया और महाराणा को नज़र किया। इसी दौरान रत्न पंचोली व लाल पंचोली ने महाराणा जयसिंह से अर्ज़ किया कि छप्पन और मेवल की आबादी के वास्ते ढेबर को बांध दिया जावे, तो अच्छा रहेगा।
महाराणा ने जवाब दिया कि ये मुमकिन नहीं है, क्योंकि वह कई बार पहले भी टूट चुका है। तब गुलालसिंह चौहान ने महाराणा को सलाह दी कि बरवाड़ा की खान से मज़बूत पत्थर और लुहारिया की खान से लोहा निकाला जावे और कारीगर मज़दूर वग़ैरह मालवा से बुलाए जावें, तो यह नामुमकिन काम भी मुमकिन हो सकता है।
महाराणा जयसिंह को यह सलाह पसन्द आई और उन्होंने यह काम शुरू करवाया और इसके लिए परमार राजपूतों को जिम्मेदारी सौंपी। जिस जगह तालाब बनवाने का इरादा था, उस जगह का नाम ढेबर था।
यहां गोमती नदी बहती थी, जिसमें झामरी, रूपारेल, वगार आदि नदियां मिल गईं। इस नाके का नाम ढेबर इसलिए पड़ा, क्योंकि यहां ढेबा पटेल नाम का एक व्यक्ति किसी कारणवश मर गया था।
जब तालाब बनवाने का काम शुरू हुआ, तब इस कार्य में परमार राजपूतों द्वारा गबन किए जाने की खबर गुलालसिंह को मिली। गुलालसिंह ने इसकी शिकायत महाराणा जयसिंह से कर दी, तो महाराणा ने इस कार्य की जिम्मेदारी गुलालसिंह को सौंप दी।
लेकिन कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि गुलालसिंह ने हर एक मज़दूर से एक-एक रुपया मांगा। मजदूरों ने इस बात की शिकायत महाराणा से कर दी, तो महाराणा बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने गुलालसिंह को देश निकाला दे दिया। गुलालसिंह डूंगरपुर की तरफ चले गए, जहां परमार राजपूतों ने उनकी हत्या कर दी।
इस तरह शुरुआती दिक्कतों के बाद महाराणा जयसिंह ने सही हाथों में काम सौंपा और मज़दूरों को दिहाड़ी मज़दूरी के तौर पर मज़दूरी देते हुए कार्य शुरू करवाया। खुद महाराणा भी इस कार्य की निगरानी बराबर रखते थे।
तालाब का नाम जयसमुद्र रखा गया, जो कालांतर में जयसमंद हो गया। जयसमंद का बांध दो पहाड़ों के बीच अग्नि और वायु कोण को झुकता हुआ 1258 फुट लंबा और 105 फुट ऊपर से चौड़ा बांधा गया, जिसकी पिछली दीवार 98 फुट ऊंची और उसके भीतर की दीवार 110 फुट ऊंची है।
दोनों तरफ की दीवारें और सीढियां बनवाकर पानी रोका गया था, लेकिन दोनों दीवारों के बीच का हिस्सा खाली रह गया था, जिसको बाद में 1874 से 1884 ई. के मध्य महाराणा सज्जनसिंह ने भरवाया, जिसका जिक्र बाद में महाराणा सज्जनसिंह के इतिहास में किया जाएगा।
जयसमंद में रूपारेल, झामरी, गोमती, वगार समेत कुल 9 नदियों व अन्य 99 छोटे नदी नालों का पानी आता है। यह बांध सफेद पत्थर से बनवाया गया। महाराणा जयसिंह ने बांध की सीढ़ियों पर सफ़ेद पत्थर के हाथी बनवाए और बांध के दोनों तरफ बारहदरी बनवाई।
जब जयसमंद तालाब पूरा भर जाता था, तब पानी इन हाथियों के सिर तक आ जाता था। वर्तमान में इन हाथियों के पांवों तक पानी आता है, तो जयसमंद को पूरा भरा हुआ समझा जाता है।
इस बांध के पीछे और पूर्वी पहाड़ के नीचे महाराणा जयसिंह ने एक शहर बसाकर उसका नाम जयनगर रखा, हालांकि ये बस्ती समय के साथ-साथ नष्ट हो गई और यहां केवल दो महलों के गुम्बज और एक बावड़ी शेष रह गई।
चिबोड़ा, नामला, भटवाड़ा, गामड़ी, सेमाल, पाटण, कोटड़ा, घाटी, संगावली आदि गांव जयसमंद के पेटे में समा गए। पानी कम होने पर कई गांवों के खंडहर नज़र आते थे। जब ये गांव डूब गए, तब किनारों पर आबादी बस गई।
सलूम्बर के गांवों की बहुत सी ज़मीन जयसमंद झील में डूब गई, जिसके कारण जब भी जयसमंद झील में पानी कम होने के कारण जो खेती योग्य ज़मीन निकल आती थी, उसका हासिल सलूम्बर वाले लेते थे।
हज़ारों मज़दूरों की चार वर्षों की कड़ी मेहनत, महाराणा जयसिंह के दृढ़ निश्चय और एकलिंगनाथ जी के आशीर्वाद से जयसमंद झील बनकर तैयार हो गई। इस झील के बनने के 100-200 साल बाद जब यूरोपियन मुसाफिर यहां आए, तो उन्होंने कहा कि ऐसा तालाब उन्होंने इस दुनिया में कहीं नहीं देखा।
हालांकि वर्तमान में एशिया में 2-4 कृत्रिम तालाब हैं, जो मीठे पानी के हैं और जयसमंद से भी बड़े हैं। फिर भी जयसमंद का दुनिया में बड़ा नाम है और यहां की पाल पर खड़े होने के बावजूद पूरा तालाब दिखाई नहीं देता।
2 जून, 1691 ई. को महाराणा जयसिंह ने जयसमंद झील की प्रतिष्ठा करवाई। इस अवसर पर महाराणा ने स्वर्ण का तुलादान किया। महाराणा जयसिंह ने जयसमंद झील के निकट स्थित एक पहाड़ी पर भव्य महल बनवाए। ये महल वर्तमान में हवामहल के नाम से जाने जाते हैं। इन महलों का जीर्णोद्धार बाद में महाराणा सज्जनसिंह ने करवाया।
इन महलों पर चढ़ने के बावजूद भी पूरा जयसमंद दिखाई नहीं देता। यदि जयसमंद का पूरा नज़ारा देखना हो तो हवामहल से कुछ दूर स्थित पहाड़ी पर एक और महल है, जो महाराणा जयसिंह ने ही बनवाया था, वहां से पूरा नज़ारा देखने को मिलता है।
वर्तमान में वह महल रूठी रानी महल कहलाता है। वास्तव में ये महल महाराणा जयसिंह ने अपनी पंवार रानी के लिए बनवाया था, जिसे बाद में लोगों ने गलतफहमी के चलते रूठी रानी नाम से प्रसिद्ध कर दिया। आज भी कई लोग इस महल तक जाने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि यहां पैंथर का ख़तरा रहता है।
महाराणा जयसिंह ने जयसमंद की पाल पर नर्मदेश्वर महादेव मंदिर बनवाना शुरू किया, जो अधूरा ही रह गया। यह मंदिर बाद वाले महाराणाओं के समय पूरा हुआ। यह मंदिर बड़े ही सुंदर तरीके से खुदाई करके बनाया गया है।
जयसमंद झील में कुल 7 टापू हैं, जिनमें से सबसे बड़ा टापू बाबा का भागड़ा और सबसे छोटा टापू प्यारी नाम से प्रसिद्ध है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
बहोत सुन्दर माहिती। मेरा सीना गर्व से तना गया।मै हिमांशु व्यास अहमदाबाद कानोंड का हूं रहता अहमदाबाद हूं।मुजे ये माहिती की बडीचाह थी।मै कई बार कानोड मेरा पैतृक गांव गया।सलूम्बर मेरी दीदी का धर।सचमुच जयसमंद राजस्थान का स्वर्णिम गौरव है।