राव केसरीसिंह चौहान की हत्या :- चावंड के रावत कांधल चुंडावत के दादाजी रावत रघुनाथ सिंह से महाराणा राजसिंह ने सलूम्बर की जागीर छीनकर पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान को दे दी थी। लेकिन जब महाराणा जयसिंह और कुँवर अमरसिंह के बीच संघर्ष चला, तब रावत कांधल चुंडावत ने तो महाराणा जयसिंह का साथ दिया और राव केसरीसिंह चौहान ने कुँवर अमरसिंह का साथ दिया।
हालांकि महाराणा जयसिंह व कुँवर अमरसिंह में सुलह तो हो गई, लेकिन बाद में कुछ सामन्तों ने महाराणा के कान भरे और कहा कि राव केसरीसिंह चौहान को मरवा दिया जावे, तो कुँवर अमरसिंह दोबारा कभी बगावत नहीं कर पाएंगे।
महाराणा जयसिंह ईर्ष्यालु लोगों की बातों में आ गए और उन्होंने कहा कि ये काम करेगा कौन ? तब रावत कांधल चुंडावत ने महाराणा जयसिंह से कहा कि अगर मुझको मेरे पुरखों की जागीर सलूम्बर मिले, तो मैं राव केसरीसिंह को मार सकता हूँ।
महाराणा जयसिंह ने सलूम्बर का पट्टा रावत कांधल को देने का वादा किया और फिर राजनगर से राव केसरीसिंह चौहान को उदयपुर बुलाया। राव केसरीसिंह निश्चिन्त थे, क्योंकि दोनों पक्षों में सुलह हो चुकी थी, इसलिए वे बिना विचारे ही कुँवर अमरसिंह से आज्ञा लेकर उदयपुर की तरफ चल दिये।
उदयपुर जाकर राव केसरीसिंह चौहान महाराणा जयसिंह से मिले और बातचीत की, उस दौरान वहां घाणेराव के ठाकुर गोपीनाथ राठौड़ और चावंड के रावत कांधल चुंडावत भी मौजूद थे। चारों में सलाह मशवरे हो रहे थे कि “औरंगज़ेब ने पुर, माण्डल, बदनोर वग़ैरह परगने देने का वायदा तो किया था, पर परगने दिए नहीं। उल्टा हमें ही परगनों के बदले जज़िया की रकम देनी पड़ी।”
इस बात पर ठाकुर गोपीनाथ और रावत कांधल ने राव केसरीसिंह से कहा कि “थूर के तालाब पर बड़ी बहार की जगह है, कल वहीं बैठकर इस मुद्दे पर बात करेंगे।”
अगले दिन रावत कांधल और राव केसरीसिंह तो थूर के तालाब पर पहुंच गए, लेकिन ठाकुर गोपीनाथ नहीं आए। तब इन दोनों सरदारों ने अपने-अपने साथी राजपूतों को वहीं खड़ा किया और दोनों बातें करते हुए कुछ आगे बढ़े।
उस वक्त रावत केसरीसिंह अफ़ीम खा रहे थे, कि तभी रावत कांधल ने कमर से कटार निकालकर राव केसरीसिंह की छाती पर वार किया और कहा कि “महाराणा तुमसे नाराज़ हैं।”
ज़ख्मी राव केसरीसिंह ने जैसे-तैसे एक हाथ से रावत कांधल की कमर पकड़ी और दूसरे हाथ से कटार निकालकर रावत कांधल की छाती पर दे मारी और कहा कि “महाराणा खुश आपसे भी नहीं हैं।”
ये नज़ारा देखकर दोनों तरफ के राजपूतों ने अपनी तलवारें निकाल लीं, लेकिन तभी वहां महाराणा के आदमी जा पहुंचे और लड़ाई रुकवा दी। रावत कांधल चुंडावत और राव केसरीसिंह चौहान, दोनों ही बड़े दर्जे के योद्धा थे और मेवाड़ में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे, लेकिन इस आपसी लड़ाई ने दोनों के प्राण हर लिए।
महाराणा जयसिंह ने बड़ी अनैतिक कार्रवाई की, जिससे कुँवर अमरसिंह सख़्त नाराज़ हुए, लेकिन बेबस होकर कुँवर को मौन रहना पड़ा। महाराणा जयसिंह ने अपने वादे के मुताबिक रावत कांधल के पुत्र रावत केसरीसिंह चुंडावत को सलूम्बर का पट्टा जागीर में दे दिया।
राव केसरीसिंह चौहान के पुत्र नाहरसिंह पारसोली के नए राव बने। उधर राजनगर में बैठे कुँवर अमरसिंह ने अपने पिता की अनैतिक कार्रवाई के कारण नाखुश होकर एक ख़त लिखकर कुशलसिंह शक्तावत के हाथों औरंगज़ेब के वज़ीर असद खां के पास भिजवाया।
कुशलसिंह शक्तावत मेवाड़ के महाराणा प्रताप के भाई महाराज शक्तिसिंह के पुत्र रावत अचलदास शक्तावत के पुत्र रावत नरहरिदास के पुत्र विजयसिंह के पुत्र थे। कुँवर अमरसिंह औरंगज़ेब के वज़ीर के ज़रिए बादशाह से बात आगे बढ़ाकर अपना पक्ष मज़बूत करना चाहते थे। जब एक ख़त से बात नहीं बनी, तो कुंवर ने दोबारा वज़ीर खां को खत लिखा।
मेवाड़ की किस्मत अच्छी थी, कि इन दिनों औरंगज़ेब दक्षिण की लड़ाइयों में व्यस्त था और कुँवर अमरसिंह के खतों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वरना औरंगज़ेब अवश्य ही मेवाड़ की इस आपसी फूट का फायदा उठाता।
भीमसिंह का देहांत :- 9 अगस्त, 1695 ई. को महाराणा जयसिंह के छोटे भाई भीमसिंह का देहांत हो गया। भीमसिंह के वंश में बनेड़ा वाले हैं। भीमसिंह के 12 पुत्र हुए :- अजबसिंह, सूरजमल, सौभाग्यसिंह, खुमानसिंह, पृथ्वीसिंह, अर्जुनसिंह, विजयसिंह, जोरावर सिंह, कीर्ति सिंह, रतनसिंह, कृष्णसिंह व भगवानसिंह।
महाराणा जयसिंह द्वारा कोटा, बूंदी व मारवाड़ से वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ना :- महाराणा जयसिंह ने अपनी पुत्री राजकुमारी उम्मेद कंवर का विवाह बूंदी के राव राजा बुद्धसिंह हाड़ा से करवाने के लिए पुरोहित संतोषराम और श्रीकृष्ण ज्योतिषी को बूंदी भेजा। इन दोनों ने बूंदी पहुँचकर राव बुद्धसिंह को नारियल झेलाया।
फिर बूंदी से रवाना होकर ये दोनों कोटा पहुंचे, जहां कोटा के राव रामसिंह हाड़ा के पुत्र भीमसिंह को महाराणा जयसिंह की छोटी पुत्री की सगाई का नारियल झेलाया। इसके बाद दोनों उदयपुर लौट आए।
बूंदी व कोटा से दोनों बारातें सज धजकर उदयपुर आईं, जहां 26 फरवरी, 1696 ई. को बड़ी धूमधाम के साथ विवाह हुआ। इन्हीं दिनों मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ औरंगज़ेब के मुलाजिम लश्करी खां को परास्त करने के बाद उदयपुर की तरफ आए।
22 जून, 1696 ई. को महाराणा जयसिंह ने अपने छोटे भाई गजसिंह की पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह राठौड़ के साथ करवा दिया। महाराणा ने महाराजा अजीतसिंह को 9 हाथी व 150 घोड़ों समेत बहुत सा दहेज दिया।
इस विवाह के अवसर पर कुंवर अमरसिंह को भी राजनगर से उदयपुर बुलाया गया। महाराजा अजीतसिंह ने महाराणा जयसिंह और कुँवर अमरसिंह के बीच चला आ रहा रंज मिटा दिया। फिर महाराजा मारवाड़ की तरफ चले गए और कुँवर अमरसिंह राजनगर की तरफ लौट गए।
महाराणा जयसिंह का देहांत :- 23 सितंबर, 1698 ई. को महाराणा जयसिंह का देहांत हो गया। आहड़ के महासतिया नामक स्थान पर महाराणा का अंतिम संस्कार किया गया। यहीं महाराणा जयसिंह की एक छतरी भी बनवाई गई।
इन महाराणा के 4 पुत्र हुए :- 1) महाराणा अमरसिंह द्वितीय, जो कि बूंदी के राव शत्रुसाल हाड़ा के दोहिते थे। 2) कुँवर प्रतापसिंह, जिनके वंशज बावलास के जागीरदार रहे। 3) कुँवर उम्मेदसिंह, जिनके वंशजों का ठिकाना कारोई है। 4) कुँवर तख्तसिंह।
महाराणा जयसिंह की 4 पुत्रियां थीं :- राजकुमारी अनूप कंवर, राजकुमारी कृष्ण कंवर, राजकुमारी सूरज कंवर व राजकुमारी उम्मेद कंवर। महाराणा जयसिंह की एक खवास ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारायणदास रखा गया।
महाराणा जयसिंह ने सिंहस्थ में आबू की यात्रा की। महाराणा जयसिंह ने उदयपुर में कृष्णविहार नाम का एक बाग बनवाया, जहां फव्वारे और महल भी बनवाए। बाद में यहां उदयपुर सेंट्रल जेल बनवा दी गई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)