महाराणा जयसिंह व कुँवर अमरसिंह (भावी महाराणा अमरसिंह द्वितीय) के बीच मतभेद व कुँवर अमरसिंह द्वारा बग़ावत करने का विस्तृत वर्णन :- मेवाड़ के कुँवर अमरसिंह तेज तर्रार मिजाज़ के थे। उनका एक विवाह जैसलमेर के रावल सबलसिंह भाटी की पोती से हुआ था।
कुँवर अमरसिंह भटियाणी रानी से अधिक प्रेम करते थे। कुँवर अमरसिंह कुँवरपदे के महलों में रहते थे, जहां वर्तमान में शम्भूनिवास है। कुंवर ने अपने महलों के पास ही भटियाणी रानी के महल बनवाए। इस बात से महाराणा जयसिंह नाराज़ हुए, क्योंकि मेवाड़ में रिवाज था कि कुँवर का परिवार महाराणा के महलों में ही रहता था, अलग नहीं रह सकते थे।
इन्हीं महलों में रहते-रहते कुंवर अमरसिंह को शराब की लत लग गई। मेवाड़ के सिसोदिया वंश में शराब पीने की सख़्त मनाही थी, लेकिन कुंवर अमरसिंह ने इसकी शुरुआत करके महाराणा जयसिंह को और अधिक नाराज़ कर दिया।
मेवाड़ में पिता के जीवित रहते पुत्र सफेद पाग धारण नहीं करते थे। महाराणा जयसिंह जब जयसमंद झील किनारे थे, तब वहां कुँवर अमरसिंह अपने पुत्र भँवर संग्रामसिंह के साथ सफेद पाग पहनकर हाजिर हुए, जिससे नाराज़ होकर महाराणा ने उनको वापस उदयपुर जाने को कहा।
कुँवर अमरसिंह का क्रोध कभी उनके वश में ना रहा। एक दिन जब महाराणा उदयपुर के महलों में नहीं थे, तब कुंवर ने कंकजी नामक एक कायस्थ से झगड़ा किया और फिर एक हाथी महलों के बाहर छोड़ दिया, जिसने 2 आदमी मार डाले और 2-4 घर गिरा दिए।
कंकजी ने इस बात की शिकायत बढ़ा-चढ़ाकर महाराणा जयसिंह से की। महाराणा जयसिंह ने कुंवर को पत्र लिखकर कहलवाया कि “अगर इस तरह की हरकत करोगे, तो यहां से निकाले जाओगे।”
कुँवर अमरसिंह ने पत्र पढा, तो सीधे कंकजी के झरोखे के नीचे खड़े होकर आवाज़ लगाई। कंकजी झरोखे में आए, तो कुंवर ने सलाम किया और कहा कि “मैं गरीब राजपूत हूँ, मुझको इस शहर में रहने दोगे या नहीं ?”
कंकजी ने जवाब दिया कि “हमारे मालिक महाराणा जयसिंह हैं, हम इन टेढ़ी-मेढ़ी बातों से नहीं डरते।” फिर कुँवर ने कहा कि “अभी तो जाता हूँ, पर तुम सज़ा जरूर पाओगे।”
ये बात महाराणा जयसिंह तक पहुंची, तो महाराणा आग बबूला हो गए। महाराणा ने फ़ौज समेत उदयपुर पर चढ़ाई की, तो कुंवर अमरसिंह उदयपुर छोड़कर चित्तौड़गढ़ चले गए।
कुँवर अमरसिंह के साथ रावत महासिंह सारंगदेवोत, पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान, बान्सी के रावत गंगदास शक्तावत, देलवाड़ा के राज सज्जा झाला, कोठारिया के रावत उदयभान चौहान, रावत अनोपसिंह, महाराणा जयसिंह के भाई महाराज सूरतसिंह आदि सामंत व सहयोगी भी थे।
महाराणा जयसिंह फौज समेत चित्तौड़गढ़ की तलहटी तक पहुंचे, तो कुँवर अमरसिंह सूरजपोल के रास्ते से भाग निकले। सूरजपोल से उतरते वक्त पत्थर की चिकनाहट के कारण कुँवर के साथी महाराज सूरतसिंह घोड़े से गिर पड़े, जिससे उनका जबड़ा टूट गया और बेहोश हो गए।
राव केसरीसिंह चौहान ने महाराज सूरतसिंह की मदद की और पट्टी बांधकर अपने घोड़े पर बिठाकर ले गए। महाराणा जयसिंह उदयपुर वापस आ गए और कुँवर अमरसिंह अपने ननिहाल बूंदी पहुंचे।
बूंदी के राव राजा अनिरुद्ध सिंह हाड़ा की नाथावत रानी ने कुँवर अमरसिंह को एक लाख रुपए व एक हज़ार घुड़सवारों की फौजी मदद दी। इसके अलावा कुँवर अमरसिंह ने बूंदी के नागर रघुराम से 50 हज़ार रुपए उधार लिए।
मेवाड़ के अधिकतर सामंतों की फौज व बूंदी की फौजी मदद से कुँवर ने 20 हजार की सेना इकट्ठी कर ली। फौज समेत बूंदी से रवाना होकर कुँवर ने मेवाड़ के नाहरमगरा इलाके में स्थित कर्णपुर गांव में पड़ाव डाला।
अब यहां ये प्रश्न उठता है कि मेवाड़ के अधिकतर सामन्तों ने कुँवर अमरसिंह का साथ क्यों दिया। इसके कुछ कारण थे कि एक तो महाराणा जयसिंह अपने पूर्वजों की तरह तेज तर्रार शासक नहीं थे, वे अपने सामन्तों पर भी शक करते थे, महाराणा ने जज़िया के बदले औरंगज़ेब को एक लाख रुपए सालाना देना भी तय कर लिया था, महाराणा आरामदायक जीवन बिताने में मशगूल हो गए, जो अधिकतर सामन्तों को रास नहीं आया।
महाराणा जयसिंह की स्थिति ऐसी हो गई कि वे मदद मांगने की खातिर उदयपुर छोड़कर पहाड़ों में स्थित कठाड़ गांव में जा पहुंचे, जहां के जागीरदार गरीबदास मांजावत महाराणा को बिना मदद दिए ही गांव छोड़कर चले गए।
फिर महाराणा जयसिंह केलवाड़ा पहुंचे, जहां कुम्भलगढ़ के किलेदार साह रूपचंद देपुरा फ़ौज सहित महाराणा की सेवा में हाजिर हुए। इसके बाद महाराणा ने घाणेराव की तरफ प्रस्थान किया। घाणेराव के ठाकुर गोपीनाथ राठौड़ इन दिनों महाराणा से नाराज़ थे।
ठाकुर गोपीनाथ को उनकी माता ने समझाया और अपनी फ़ौज समेत महाराणा का साथ देने के लिए कहा। ठाकुर गोपीनाथ राज़ी हो गए। ठाकुर गोपीनाथ राठौड़ ने मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ और वीर दुर्गादास राठौड़ को खत लिखकर महाराणा की समस्या से अवगत कराया।
महाराणा जयसिंह ने रूपचंद से कहा कि कुम्भलगढ़ जाओ और खज़ाना लेकर आओ। रूपचंद कुम्भलगढ़ से खज़ाना ला ही रहे थे कि वहां कुँवर अमरसिंह की फौज आ पहुंची। रूपचंद ने चालाकी से खज़ाना पास में ही छुपा दिया व ख़ुद अपने आदमियों सहित भेष बदलकर जानवरों की हड्डियां जलाकर पास में बैठ गए।
कुँवर ने देखा कि किसी का अंतिम संस्कार हो रहा है, इसलिए वहां से मुड़ गए। रूपचंद खज़ाना लेकर सही सलामत घाणेराव में महाराणा के सामने हाजिर हुए। महाराणा रूपचंद पर बहुत प्रसन्न हुए।
महाराणा जब उदयपुर से रवाना हुए थे, तब उनके साथ पीछे-पीछे बिजोलिया के राव बैरीशाल पंवार व वीरू महासहानी भी अपनी-अपनी फौजी टुकड़ियों सहित आ रहे थे, पर वे दोनों रास्ता भूलकर केवड़ा की नाल होते हुए छप्पन-वागड़ की तरफ जा निकले।
इन्हीं दिनों रूपचंद के बेटे सिंहा डूंगरपुर की तरफ गए, तो महाराणा जयसिंह को शक हुआ कि सिंहा कुँवर अमरसिंह से मिल गया है। इस शक के चलते महाराणा ने सद्दा कोतवाल के नेतृत्व में एक फौज सिंहा की तरफ भेजते हुए कहा कि अगर सिंहा तुम्हारे साथ आने को राज़ी हो जावे, तो उसको लेते आना और जो कुँवर का साथ देने जा रहा हो, तो वहीं मार डालना।
सद्दा कोतवाल ने सिंहा को घेर लिया, तब सिंहा साथ आने को राज़ी हो गया। उस समय बिजोलिया के राव बैरीशाल पंवार व वीरू महासहानी भी रास्ते में मिल गए, तो उनको भी साथ लाते हुए महाराणा के सामने हाजिर किया गया। इस तरह महाराणा की फ़ौज भी बढ़ती गई।
कुंवारिया के डोडिया हठीसिंह व चावंड के रावत कांधल चुंडावत भी फ़ौज समेत महाराणा के सामने हाज़िर हो गए। इतने में मारवाड़ के वीर दुर्गादास राठौड़ 30 हज़ार राठौड़ राजपूतों की फौज लेकर महाराणा के पास चले आए।
इनके अलावा भोमट के भोमिया, मेरवाड़ा के मेर, भील आदि भी हज़ारों की तादाद में घाणेराव आ पहुंचे। इस तरह महाराणा जयसिंह की तरफ कुल 50 हज़ार की फ़ौज शामिल हो गई, जिनके खर्चे के लिए महाराणा हर रोज़ 33 हज़ार रुपए देते थे।
घाणेराव में रहते हुए महाराणा जयसिंह ने पुरोहित जगन्नाथ को निकोड़ नामक गाँव भेंट किया। वीर दुर्गादास राठौड़, ठाकुर गोपीनाथ राठौड़, पुरोहित जगन्नाथ आदि मिलकर पिता-पुत्र के बीच चल रहे इस कलह को शांत करने की तरकीबें सोचने लगे।
8 दिन बाद महाराणा जयसिंह ने नाडौल के जंगलों में जाकर फ़ौज की हाजिरी ली और फिर देसूरी के घाटे के यहां पड़ाव डाला। उधर कुँवर अमरसिंह ने 20 हजार की फौज लेकर उदयपुर पर कब्ज़ा कर लिया और गद्दी पर बैठ गए। कुँवर के साथी सामन्तों ने उनको नज़रें दीं।
कुँवर अमरसिंह को महाराणा जयसिंह की चढ़ाई की ख़बर मिली, तो सामना करने के लिए फौज लेकर उदयपुर से रवाना हुए और राजनगर होते हुए जीलवाड़ा गांव तक आ पहुंचे।
घाणेराव के ठाकुर गोपीनाथ और कुंवारिया के डोडिया हठीसिंह ने महाराणा जयसिंह को सलाह दी कि “अगर आपका आदेश हो तो एक बार कुँवर अमरसिंह को समझाया जावे, क्योंकि इस तरह आपस में लड़कर तो मेवाड़ और मारवाड़ की फ़ौजी ताकत कमज़ोर होगी, जिससे फ़ायदा मुसलमानों का होगा।”
इन्हीं दिनों कुँवर अमरसिंह के साथी राजपूत सामंत रावत महासिंह सारंगदेवोत व रावत गंगदास शक्तावत ने महाराणा को खत लिखकर समझाने का प्रयास किया और कहा कि “अगर आपने कुँवर को मार दिया, तो भी अफ़सोस आप ही को होगा, ये ठीक वैसा ही है जैसे हम ख़ुद हमारे एक हाथ से दूसरे हाथ को काट डालें। बेहतर है कि सुलह का कोई मार्ग निकाला जावे।”
महाराणा जयसिंह ने जवाब दिया कि “जो तुम सबकी सलाह हो, वो मुझे भी मंज़ूर है।” फिर एक संदेश जीलवाड़ा में भेज दिया गया, जहां कुँवर अमरसिंह का पड़ाव था। कुँवर अमरसिंह ने संदेश पढा, तो उन पर भी सामन्तों की बात का असर हुआ।
इस तरह दोनों पक्षों में सुलह हुई। यह तय हुआ कि कुँवर अमरसिंह 3 लाख की जागीर लेकर राजनगर में रहें। कुँवर को राजनगर के अलावा मेवाड़ के किसी भी हिस्से में कोई कार्रवाई करने की छूट नहीं होगी और इसी तरह महाराणा द्वारा भी राजनगर में कोई कार्रवाई या दखलंदाजी न की जावे।
फिर कुँवर अमरसिंह को महाराणा जयसिंह के सामने हाज़िर किया गया, जहां कुँवर ने महाराणा के पैर छूकर अपनी गलतियों की माफ़ी मांगी। कुँवर ने अपने साथी राजपूत सामन्तों से भी कहा कि महाराणा को नज़रें देवें। महाराणा ने उन सभी को भी माफ़ कर दिया।
इस तरह सुलह के बाद राठौड़ों की फ़ौज मारवाड़ चली गई और हाड़ा राजपूतों की फ़ौज बूंदी लौट गई। महाराणा जयसिंह उदयपुर गए और कुँवर अमरसिंह राजनगर गए, लेकिन इनके आपस के रंज नहीं मिटे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)