जून, 1681 ई. में औरंगज़ेब के बेटे शहज़ादे आज़म और मेवाड़ के महाराणा जयसिंह के बीच सन्धि हुई। इस सन्धि की चर्चा के बाद महाराणा जयसिंह दिलेर खां के खेमे में गए, जो कि इस सन्धि का बिचौलिया था। दिलेर खां के 2 बेटे महाराणा ने अपने आदमियों के पास रखे थे, ताकि सुलह के बीच में मुगल कोई दगा न करे।
दिलेर खां ने महाराणा जयसिंह से पूछा कि क्या आपको मुझ पर एतबार नहीं था ? तो महाराणा ने कहा कि मुझे पूरा यकीन था पर मेरे राजपूत सामन्तों ने वहम किया। फिर दिलेर खां ने कहा कि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था, आपके मारे जाने से आपकी रियासत को जो नुकसान पहुंचता, उसकी कोई कीमत अदा न हो पाती, नौकरों की ज़बान का एतबार करना चाहिए था आपको।
इस तरह की चर्चा के बाद दिलेर खां ने महाराणा जयसिंह को कपड़ों के 9 थान, 9 घोड़े, जड़ाऊ तलवार, ढाल, बरछी और एक हाथी भेंट किया। दिलेर खां ने महाराणा के पुत्र के लिए कपड़ों के 3 थान, जड़ाऊ खंजर, जड़ाऊ उरबसी, जड़ाऊ बाजूबंद और 2 घोड़े महाराणा के साथ भिजवाए।
महाराणा जयसिंह उदयपुर लौट आए। शहज़ादा आज़म और दिलेर खां फ़ौज समेत रवाना हुए और 23 जुलाई, 1681 ई. को औरंगज़ेब के सामने हाज़िर हुए। आज़म ने महाराणा जयसिंह से की गई सन्धि की मूल शर्तों के बारे में औरंगज़ेब को बताया।
सन्धि की शर्त के अनुसार औरंगज़ेब ने मांडलगढ़, पुर-माण्डल और बदनोर के परगने महाराणा को पुनः लौटा दिए और इस बात का एक फ़रमान मुहम्मद नईम के हाथों उदयपुर भिजवाया। लेकिन फिर आज़म ने औरंगज़ेब को जज़िया वाली बात बताई कि राणा ने सन्धि में शर्त जोड़ी है कि मेवाड़ से जज़िया न वसूला जावे।
औरंगज़ेब के विचार जज़िया के मामले में बहुत कट्टर थे, इसलिए उसको ये शर्त रास नहीं आई। फिर आज़म ने महाराणा को खत लिखकर कहा कि बादशाह जज़िया वाली शर्त को मानने से इनकार कर रहे हैं।
महाराणा जयसिंह ने अपने वकील आज़म के पास भेजे और कहला दिया कि जज़िया वसूला गया, तो फिर से मेवाड़-मुगलों में जंग छिड़ सकती है। आज़म ने महाराणा के वकीलों से ऐसे जवाब सुनने के बाद अपने पिता औरंगज़ेब को राज़ी किया।
औरंगज़ेब ने जैसे तैसे आज़म की बात मान ली और आज़म के ज़रिए 8 सितंबर, 1681 ई. को महाराणा को एक ख़त भिजवाकर कहलाया कि “तुमको जज़िया की छूट है, पर एक हज़ार सवार बादशाही हुज़ूर में भेजने होंगे।”
अब यदि पाठक इस पूरे सन्धि के प्रकरण को गौर से पढ़ें, तो जानेंगे कि मेवाड़ व मुगलों के बीच हुई इस सन्धि में मेवाड़ का पक्ष प्रबल रहा। ऐसी एक भी शर्त नहीं थी, जो औरंगज़ेब ने न मानी हो। जहां आनाकानी हुई, वहां भी उसको कुछ समय बाद हामी भरनी पड़ी। निश्चित रूप से औरंगज़ेब इस समय मेवाड़ से लड़ाई का इच्छुक नहीं था।
इन्हीं दिनों महाराणा जयसिंह के छोटे भाई भीमसिंह सम्भवतः किसी नाराज़गी के सबब से या हो सकता है किसी और कारणवश अजमेर पहुंचे और 31 अगस्त, 1681 ई. को औरंगज़ेब से मुलाकात की। औरंगज़ेब ने भीमसिंह को राजा का खिताब और कुछ मनसब दे दिया, जो कि धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते पांच हज़ार तक का मनसब हो गया।
औरंगज़ेब ने मुहम्मद नईम के साथ उदयपुर में एक फ़रमान भिजवाया था, वह मुहम्मद नईम औरंगज़ेब के सामने हाज़िर हुआ और महाराणा जयसिंह द्वारा भेंट किये गए कपड़ों के 19 थान, 4 हज़ार रुपए, 2 घोड़े और 4 ऊंट औरंगज़ेब को नज़र किए। औरंगज़ेब ने ये सब सामान पुनः मुहम्मद नईम को लौटा दिए और कहा कि इनको तुम ही रखो।
इन्हीं दिनों दक्षिण में मराठों ने जोर पकड़ा, तो औरंगज़ेब का ध्यान उधर गया। 20 सितंबर को उसने दौराई गांव में पड़ाव डाला और महाराणा जयसिंह को खत लिखकर कहा कि सन्धि की शर्त के मुताबिक एक हज़ार सवार जल्द ही दक्षिण की तरफ भेजो।
औरंगज़ेब ने महाराणा जयसिंह के भाई भीमसिंह को तो अन्य बादशाही सिपहसालारों के साथ अजमेर में तैनात कर दिया और ख़ुद दक्षिण की तरफ़ रवाना होकर 3 अप्रैल, 1682 ई. को औरंगाबाद पहुंचा।
औरंगज़ेब तो दक्षिण की लड़ाइयों में मशगूल हो गया, लेकिन 2 वर्ष बीतने के बाद भी महाराणा जयसिंह ने एक हज़ार घुड़सवारों की फ़ौजी मदद नहीं भिजवाई। जिसके बाद औरंगज़ेब ने नाराज़ होकर वे परगने जज़िया की वसूली के तौर पर महाराणा से फिर से छीन लिए, जो सन्धि की शर्त के अनुसार महाराणा को सौंपे गए थे।
फिर शहज़ादे आज़म ने बीच बचाव करके फिर से वो परगने महाराणा जयसिंह के नाम करवाए और 9 अगस्त, 1684 ई. को महाराणा को एक खत लिखा, जो हूबहू यहां लिखा जा रहा है :-
“बाद मामूली अल्काब के, बादशाही मिहरबानियों में शामिल होकर जानें कि इन दिनों में हुक्म दिया गया है कि उस उम्दा सरदार (महाराणा जयसिंह) को यह लिखा जावे कि उसके एक हज़ार सवार दक्षिण में नौकरी करें।
जो बाज़े परगने उस उम्दा सरदार से जज़िया के तौर पर ले लिए थे, वे जागीरें उस उम्दा सरदार (महाराणा जयसिंह) को मिहरबानी के साथ फिर से इनायत की जाती हैं। इस वास्ते लिखा जाता है कि वह ताबेदारी का ख्याल रखने वाला इस बुज़ुर्ग मिहरबानी की कद्र जानकर बड़े शुक्र के साथ एक हज़ार सवार अपने किसी रिश्तेदार या एतिबारी नौकर के साथ इस वक्त में,
जबकि बुज़ुर्ग फतहमंद लश्कर फ़सादी नालायकों को सज़ा देने और कत्ल करने में मशगूल है, जहां तक हो सके, जल्द भेजें। इस मुआमले में बिल्कुल सुस्ती, गफ़लत, काहिली (ढिलाई या कामचोरी) और देरी न करे। इस कार्रवाई को बड़ी तारीफ़ के लायक ताबेदारी जतलाने का मौका समझें, जिसके एवज में बड़े फायदे हैं।”
इस तरह आज़म ने महाराणा जयसिंह को खत लिखकर तसल्ली दी कि परगने फिर से लौटा दिए हैं, अब एक हज़ार सवार बादशाही सेवा में भेज दिए जावें। महाराणा जयसिंह ने इसके बावजूद भी एक हज़ार घुड़सवार नहीं भेजे और इसके बदले में सालाना एक लाख रुपए औरंगज़ेब को देना तय किया।
इन्हीं दिनों बांसवाड़ा के रावल अजबसिंह ने महाराणा जयसिंह की अधीनता अस्वीकार कर दी, जिसके चलते महाराणा ने बांसवाड़ा पर हमला कर नगर में तोड़फोड़ की। रावल ने महाराणा को जुर्माना देकर क्षमा मांगी और अधीनता स्वीकार की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)