महाराणा जयसिंह का जीवन परिचय :- कुँवर जयसिंह का जन्म 16 दिसम्बर, 1653 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा राजसिंह थे। कुंवर जयसिंह की माता महारानी सदा कँवर थीं, जो कि बिजोलिया के राव इन्द्रभान पंवार की पुत्री थीं।
ग्रंथ वीरविनोद में कुँवर जयसिंह की माता का नाम रानी रामरसदे कंवर पंवार लिखा है, जो कि असत्य है, क्योंकि राजप्रशस्ति में सदा कँवर पंवार का ही नाम लिखा है।
व्यक्तित्व :- महाराणा जयसिंह का छोटा कद, गोरा रंग, बड़ी आँखें और चौड़ी पैशानी थी। ये दानी, शांतिप्रिय, धर्मनिष्ठ व उदार थे। इन्होंने अपने पिता के समय बहुत बहादुरी के काम किए, लेकिन गद्दी पर बैठने के बाद कुछ लड़ाइयां लड़कर शांतिप्रिय हो गए।
महाराणा जयसिंह कुछ विलासी थे, लेकिन इसके बावजूद इन महाराणा ने सार्वजनिक कार्य बहुत करवाए, जिनमें सबसे प्रमुख जयसमंद झील का निर्माण है। महाराणा के सार्वजनिक कार्यों का लाभ आज तक मेवाड़ की जनता को मिल रहा है।
महाराणा जयसिंह द्वारा कुँवरपदे काल में किए गए कार्यों का वर्णन :- रंगसागर तालाब का निर्माण :- कुंवर जयसिंह ने अपने कुंवरपदे काल में उदयपुर में पिछोला के उत्तर में रंगसागर नाम का एक तालाब बनवाया।
इस तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर उन्होंने बहुत सा धन दान किया। बाद में यह तालाब पीछोला झील में मिला दिया गया। 1676 ई. में राजसमन्द झील की प्रतिष्ठा के अवसर पर महाराणा राजसिंह के साथ कुंवर जयसिंह भी तुला में बैठे और स्वर्ण का तुलदान किया।
ऐसा कहते हैं कि कुँवर जयसिंह ने अपने बचपन में ही यह ठान लिया था कि अपने पिता के बनवाये हुए तालाब से बड़ा तालाब बनवाएंगे।
1679 ई. में महाराणा राजसिंह को ख़बर मिली कि औरंगज़ेब उनके कार्यों से अप्रसन्न होकर फौज सहित अजमेर आ रहा है। महाराणा ने 23 मार्च, 1679 ई. को कुँवर जयसिंह को उदयपुर की सरहद पर भेजा, जहां कुँवर जयसिंह के डेरे लगाए गए।
वहां मुहम्मद नईम आया और कुँवर जयसिंह को साथ लेकर रवाना हुआ। 21 मार्च, 1679 ई. को औरंगज़ेब अजमेर से दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
11 अप्रैल को जब दिल्ली 2 कोस दूर रह गई, तब कुँवर जयसिंह औरंगज़ेब के यहां पहुंचे। औरंगज़ेब की तरफ से नागौर के राव इंद्रसिंह पेशवाई के लिए आए और कुँवर को भीतर ले गए।
30 अप्रैल, 1679 ई. को औरंगज़ेब ने कुँवर जयसिंह को खिलअत, मोतियों का सरपेच, कानों के लाल के बाले, जड़ाऊ तुर्रा, सोने से सुसज्जित अरबी घोड़ा और हाथी भेंट करके विदा किया।
कुंवर जयसिंह मथुरा, वृंदावन की तरफ तीर्थयात्रा करते हुए 26 मई, 1679 ई. को उदयपुर आए। 1679-1680 ई. में मेवाड़ व मुगलों के बीच कई छापामार लड़ाइयां हुईं।
इस दौरान महाराणा राजसिंह ने कुँवर जयसिंह को 13 हज़ार सवारों सहित गिरवा की पहाड़ियों में तैनात किया। कुँवर जयसिंह को आदेश दिया गया कि चारों तरफ जहां भी फौजी टुकड़ी को मदद की जरूरत हो, वहां उनकी मदद की जाए।
महाराणा राजसिंह ने कुँवर जयसिंह को चित्तौड़ की तरफ भेजकर बहुत सी मस्जिदें तुड़वा दीं। जून-जुलाई, 1680 ई. में महाराणा राजसिंह ने कुंवर जयसिंह को 13 हज़ार घुड़सवार व 20 हज़ार पैदल फौज देकर चित्तौड़ की तरफ शहज़ादे अकबर से लड़ने भेजा।
इस लड़ाई में मुगलों के 1 हजार सैनिक व 3 हाथी मारे गए। मुगलों के हाथी, ऊँट, माल, नक्कारा, निशान व 50 शाही घोड़े लूट लिए गए। कुँवर जयसिंह ने कुछ जरूरी सामान अपने पास रखा और बाकी अपने सामंतों व सैनिकों में बांट दिया।
फिर कुँवर जयसिंह ने अपनी फौज समेत पूर्वी पहाड़ियों में डेरा डाला। यहां से कुंवर ने मालवा पर लगातार हमले करके वहां की शाही चौकियों को तहस-नहस किया।
महाराणा जयसिंह का राजतिलक व राज्याभिषेक का दस्तूर :- 3 नवंबर, 1680 ई. को किसी विश्वासघाती के द्वारा ओडा गांव में महाराणा राजसिंह की ज़हर देकर हत्या कर दी गई। इसी दिन उनके ज्येष्ठ पुत्र महाराणा जयसिंह का राजतिलक कुरज नामक गाँव में किया गया।
15 दिन बाद इसी गांव में महाराणा जयसिंह के राज्याभिषेक का दस्तूर किया गया। कुरज गांव उदयपुर से 25 कोस ईशान कोण में उत्तर की तरफ झुकता हुआ स्थित है।
तहव्वुर खां की मेवाड़ पर चढ़ाई :- मुगल इस समय मेवाड़ के राजपूतों से इतने भयभीत थे कि वे आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पा रहे थे। औरंगज़ेब का बेटा शहज़ादा अकबर देसूरी से पीछे और तहव्वुर खां देसूरी में फौज समेत तैनात रहा, लेकिन कोई भी आगे नहीं बढ़ रहे थे।
ये ख़बर जब औरंगज़ेब के पास पहुंची, तो उसने रूहुल्ला खां को भेजकर शहज़ादे अकबर से कहलवाया कि अपनी फौज आगे बढ़ाए। शहज़ादे अकबर ने पहले ही जयसिंह से चित्तौड़गढ़ में बुरी तरह शिकस्त खाई थी।
इसलिए वह देसूरी तक गया और वहां से उसने तहव्वुर खां को फौज देकर आगे बढ़ने का हुक्म दिया। तहव्वुर खां 6 हज़ार सवारों और 3 हज़ार बंदूकचियों समेत देसूरी की नाल के आगे चढ़ आया और झीलवाड़ा गांव तक पहुंच गया।
महाराणा जयसिंह ने अपने छोटे भाई भीमसिंह को फौज देकर विदा किया। भीमसिंह के देसूरी पहुंचने पर वहां के जागीरदार विक्रमादित्य सोलंकी भी उनसे मिल गए और तहव्वुर खां की फौज को 8 दिन तक रोके रखा।
उसके बाद तहव्वुर खां मारवाड़ की तरफ चला गया। तहव्वुर खां ने आसपास के इलाकों में लूटमार शुरु कर दी और सोमेश्वर में मुगल थाना तैनात कर दिया।
दिलावर खां की पराजय :- महाराणा जयसिंह घाटे के नीचे घाणेराव तक आए। इस समय दिलावर खां मारवाड़ की तरफ पहाड़ों में था। महाराणा के हुक्म से प्रसिद्ध हाड़ी रानी के पति सलूम्बर के रावत रतनसिंह चुण्डावत ने गोगुन्दे का घाटा रोका।
रावत रतनसिंह चुंडावत ने दिलावर खां को पहाड़ों के भीतर आने दिया और फिर उसके सैन्य को घेर लिया। रावत रतनसिंह चुण्डावत ने दिलावर खां के सैन्य पर आक्रमण किया, जिसमें 400 मुगल मारे गए। दिलावर खां मेवाड़ के पहाड़ों में इस क़दर फंस गया कि उसको बाहर निकलने का मार्ग नहीं सूझा।
महाराणा जयसिंह ने झाला बरसिंह को दिलावर खां के पास भेजा और ताना मारा कि “तुम बादशाह की इतनी बड़ी फ़ौज लेकर घूम रहे हो, पर रावत रतनसिंह के जाल से निकल नहीं पा रहे।”
दिलावर खां ने रात के वक्त वहां से भागने की तरकीब निकाली। उसने मेवाड़ के एक विश्वासघाती को 1 हजार रुपए देकर रास्ता बताने को कहा और ऐसा करके वह मेवाड़ से भागने में कामयाब रहा।
दिलावर खां भागते हुए शहज़ादे आज़म के पास गया और उससे कहा कि “राणा ने मेरा पीछा करवाकर बहुत से आदमी मार डाले, इसके अलावा भी रसद की कमी के चलते हर रोज़ हमारे कई आदमी मर रहे थे, इसलिए मैं वहां से निकल आया।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)