1680 ई. में जब औरंगज़ेब और महाराणा राजसिंह के बीच छापामार संघर्ष चरम सीमा पर था, तब कोठारिया के कुँवर उदयभाण व अमरसिंह चौहान ने मात्र 25 सवारों के साथ उदयपुर के शाही थाने पर आक्रमण करके जो हाथ आया, जब्त कर महाराणा को नज़र किया। महाराणा ने खुश होकर इनको 12 गाँव भेंट किए।
देसूरी पर इस्लाम खां रुमी 12,000 की फौज के साथ तैनात था। मेवाड़ की तरफ से घाणेराव के ठाकुर राठौड़ गोपीनाथ व देसूरी के विक्रमादित्य सौलंकी ने देसूरी पर आक्रमण किए, जिससे इस्लाम खां रुमी को शिकस्त खाकर लौटना पड़ा।
महाराणा राजसिंह मुगलों को कुम्भलगढ़, राजनगर, उदयपुर व सलुम्बर में पराजित करते हुए बदनोर पहुंचे। महाराणा के बदनोर पहुंचने पर औरंगज़ेब के बेटे शहज़ादे अकबर को अजमेर से संबंध टूटने की आशंका हुई।
शहज़ादे अकबर के सैन्य के लिए बनजारे लोग मालवे से मंदसौर और नीमच के रास्ते होकर 10 हज़ार बैल अन्न के ला रहे थे, जिन्हें रास्ते में राजपूतों ने लूट लिया। इस बड़ी लूट के बाद बादशाही फ़ौज के भूखे मरने की नौबत आ गई।
इन हमलों के दौरान शहज़ादे अकबर ने औरंगजेब को पत्र लिखे, ये पत्र अदब-ए-आलमगीरी में संकलित हैं। इन पत्रों में अकबर ने बार-बार औरंगज़ेब से इस बात की शिकायत की, कि बादशाही फौज के सिपहसालारों को पहाड़ों में जाने का हुक्म दिया जा रहा है, पर वे राजपूतों के ख़ौफ़ से पहाड़ों में जाने में आनाकानी कर रहे हैं।
अकबर के इन पत्रों से मालूम पड़ता है कि औरंगज़ेब और मेवाड़ के बीच चले इस संघर्ष में मेवाड़ के राजपूत बादशाही फौज पर हावी हो गए थे। जून, 1680 ई. में औरंगज़ेब ने एक फ़ौज आमेर की तरफ भेजकर वहां के कई मंदिर तुड़वा दिए।
चित्तौड़गढ़ तलहटी का युद्ध :- जून-जुलाई, 1680 ई. में महाराणा राजसिंह ने अपने बड़े बेटे कुंवर जयसिंह को 13 हज़ार घुड़सवार व 20 हज़ार पैदल फौज देकर चित्तौड़ की तरफ शहज़ादे अकबर से लड़ने भेजा। कुंवर जयसिंह ने चित्तौड़ पहुंचकर 10 हज़ार सवार व 10 हज़ार पैदल फौज को नीचे लिखे सर्दारों समेत दुर्ग की तलहटी में भेजा :-
सादड़ी के चन्द्रसेन झाला, कानोड़ के रावत मानसिंह सारंगदेवोत, गोगुंदा के झाला जसवंतसिंह, देलवाड़ा के झाला जैतसिंह, बेदला के रावल सबलसिंह चौहान, सलूम्बर के रावल रतनसिंह चुण्डावत, बान्सी के रावत केसरीसिंह शक्तावत व उनके पुत्र कुँवर गंगदास शक्तावत,
बिजौलिया के बैरीशाल पंवार, भींडर के महाराज मुह्कमसिंह शक्तावत, पारसौली के राव केसरीसिंह चौहान, कोठारिया के राव रुक्मांगद चौहान, आमेट के रावत मानसिंह चुण्डावत, महाराणा राजसिंह के भाई अरिसिंह के पुत्र महाराज भगवन्तसिंह,
राव रतनसिंह खींची, रावत केसरीसिंह चुण्डावत, कान्हा शक्तावत, गोपीनाथ राठौड़, आमेट के वीरवर रावत पत्ता चुंडावत के वंशज रावत माधवसिंह चुण्डावत आदि वीर योद्धाओं ने इस सैन्य अभियान में भाग लेते हुए चित्तौड़गढ़ की तलहटी में तैनात शहज़ादे अकबर की सेना पर आक्रमण कर दिया।
बादशाही फौज को दूर-दूर तक यह अनुमान नहीं था कि महाराणा राजसिंह चित्तौड़गढ़ में सशक्त बादशाही फौज पर हमला कर देंगे। रात के समय जब बारिश की बूंदें पड़ रही थी, उस समय यह लड़ाई हुई। शहज़ादे अकबर के सैन्य पर अचानक राजपूतों ने धावा बोल दिया।
मेवाड़ी बहादुरों ने चित्तौड़गढ़ की तलहटी को लहू से लाल कर दिया। इस लड़ाई में मुगलों के 1 हजार सैनिक व 3 हाथी मारे गए। मुगलों के हाथी, ऊँट, माल, नक्कारा, निशान व 50 शाही घोड़े लूट लिए गए। कुँवर जयसिंह ने कुछ जरूरी सामान अपने पास रखा और बाकी अपने सामंतों व सैनिकों में बांट दिया।
ये लड़ाई चित्तौड़गढ़ की तलहटी में हुई, इसलिए दुर्ग पर तो कब्ज़ा नहीं हो पाया लेकिन कुँवर ने अपनी फौज समेत पूर्वी पहाड़ियों में डेरा डाला। यहां से कुंवर जयसिंह ने मालवा पर लगातार हमले करके वहां की शाही चौकियों को तहस-नहस किया।
इतनी बड़ी लड़ाई का ज़िक्र तक फ़ारसी तवारीखों में नहीं किया गया है। फ़ारसी तवारीखों में अक्सर सिर्फ उन्हीं लड़ाइयों का ज़िक्र किया जाता, जिनमें बादशाही फ़ौजें विजयी रहतीं। लेकिन फिर भी इस युद्ध के ठीक बाद हुई घटना ने इस युद्ध की वास्तविकता और मुगल फौज की करारी शिकस्त पर मोहर लगा दी।
जुलाई, 1680 ई. में औरंगज़ेब ने नाराज़ होकर चित्तौड़ में तैनात शहज़ादे अकबर को मेवाड़ अभियान से हटाकर सोजत की ओर भेज दिया। उसके स्थान पर शहज़ादे आज़म को चित्तौड़ भेजा गया। इतनी बड़ी कार्रवाई औरंगज़ेब ने कर दी, लेकिन इसके पीछे हुई इस लड़ाई का ज़िक्र नहीं किया।
7 जुलाई, 1680 ई. को शहज़ादा आज़म चित्तौड़गढ़ पहुंचा। औरंगजेब ने दोबारा पूरी ताकत से मेवाड़ पर हमले किए। देबारी के दर्रे से शहज़ादे आज़म को, राजसमन्द से शहज़ादे मुअज्जम को व देसूरी की घाटी से शहज़ादे अकबर को शाही फौज के साथ भेजा।
औरंगज़ेब ने खिद्मतगुजार खां को चित्तौड़ का बख्शी बनाकर भेजा। कुछ दिनों के बाद चित्तौड़गढ़ की किलेदारी उद्योतसिंह भदौरिया को सौंप दी गई। गजनफर खां व मुहम्मद शरीफ को बहुत से बन्दूकची व 400 सवारों के साथ राजसमन्द झील के तट पर मुकर्रर किया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
मेवाड शुरविरो शत शत नमन
मेवाड शुरविरोको शत शत नमन
गर्व की अनुभूति हो रही है🙏🙏
न थके न झुके न हारे अजयवीर विजय यात्रा पर बढ चढ के चले
कोटिसः प्रणाम