आनन्दसिंह राठौड़ का अनोखा बलिदान :- 1679-1680 ई. में औरंगज़ेब और महाराणा राजसिंह की सेनाओं के बीच में भीषण छापामार युद्ध चल रहे थे। इसी दौरान एक विचित्र बलिदान की घटना घटी। औरंगजेब अपनी सेना सहित राजसमन्द झील के किनारे पहुंचा।
वह जिस तरह मेवाड़ में तबाही मचाता था, ये सोचकर महाराणा राजसिंह को लगा कि औरंगजेब राजसमन्द झील की पाल तुड़वा देगा। महाराणा ने अपने राजपूत सर्दारों को अलग-अलग मेवाड़ी फौजी टुकड़ी के साथ राजसमन्द झील पर भेजा।
मेवाड़ी फौज रास्ते में ही थी कि तभी बादशाही फौज में शामिल सिसोदिया गरीबदास कर्णसिंहोत के बेटे श्यामसिंह ने महाराणा को खत लिखा कि औरंगजेब को राजसमन्द बड़ा पसन्द आया है, इसलिए वह इसकी पाल नहीं तुड़ावेगा।
महाराणा ने सभी सर्दारों के नाम पत्र लिखकर उन्हें फौरन वापिस बुला लिया, लेकिन इसमें वणोल के आनन्दसिंह राठौड़ का नाम लिखना भूल गए। ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार ये बणोल के ठाकुर सांवलदास राठौड़ के भाई थे, जबकि ओझा जी के अनुसार ये ठाकुर सांवलदास राठौड़ के काका थे।
दूसरे सब सर्दारों ने आनन्दसिंह राठौड़ को भी साथ में लौटने को कहा, तो आनन्दसिंह राठौड़ ने कहा कि “मैं जानता हूं कि मेरा नाम महाराणा सा ने भूल से नहीं लिखा, पर अब मेरा वापिस लौटना संभव नहीं, मैं अपने साथियों समेत यहीं मरूँगा”
नतीजतन आनन्दसिंह राठौड़ 100-200 मेवाड़ी बहादुरों के साथ हजारों की तादाद वाली कुल बादशाही फौज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा राजसिंह ने नौचौकी के दरवाज़े के बाहर आनन्दसिंह राठौड़ की छतरी बनवाई, जो अब तक मौजूद है।
इस घटना के बाद राजसमन्द झील के पास में ही मंगरोप के महाराज सबलसिंह पुरावत, भींडर के महाराज मुह्कमसिंह शक्तावत और कई चुण्डावत सर्दारों ने शाही थानों पर छापे मारे, जिसमें 20 नामी राजपूत मेवाड़ की तरफ से बहुत से मुगलों को मारकर वीरगति को प्राप्त हुए।
औरंगज़ेब ने हसन अली खां को दोबारा उदयपुर भेजा, जहां राजपूतों के हमलों के चलते वह 15 दिन ही ठहर सका और भागकर औरंगज़ेब के पास लौट गया। औरंगज़ेब ने उसे वापिस उदयपुर भेजने का हुक्म दिया, तो हसन अली ने बारबरदारी की तकलीफ बताकर जाने से मना कर दिया।
शाही फौज ने अपने आसपास सुरक्षा के लिए पहाड़ों के चारों ओर दीवार खड़ी करवा दी। फिर औरंगज़ेब ने तहव्वुर खां को फ़ौज देकर भेजा। तहव्वुर खां ने समतल स्थानों पर लोगों के घरों को जला दिया, फिर पहाड़ी इलाकों में जाकर बच्चे, बूढ़े आदि जो मिले उनको क़ैद किया।
मार्च, 1680 ई. में औरंगजेब ने चित्तौड़, पुर, मांडल, मांडलगढ़, बैराठ, भैंसरोडगढ़, नीमच, चलदू, सतखंडा, जीरण, ऊँठाळा, कपासण, राजनगर व उदयपुर में शाही थाने तैनात किए। औरंगज़ेब ने मुकर्रम खां को बदनौर पर हमला करने भेजा।
16 मार्च को औरंगज़ेब चित्तौड़ से अजमेर के लिए निकला व चित्तौड़ में अपने बेटे शहज़ादे अकबर को 12 हज़ार की फौज व हसन अली खां, रज़ियुद्दीन खां जैसे कई सिपहसालारों समेत तैनात किया।
महाराणा राजसिंह की फौजी कार्यवाहियां :- महाराणा राजसिंह उदयपुर की तरफ आए और जाती हुई मुगल फौज पर हमला कर रसद वगैरह लूट ली, जिससे मुगलों को भूखमरी का सामना करना पड़ा। मेवाड़ी सेना ने मुगलों के हाथी-घोड़े भी जब्त किए।
औरंगज़ेब अजमेर जरूर गया था, परन्तु उसने बराबर मेवाड़ पर फ़ौजें भेजना जारी रखा और अजमेर में ही रुककर हालात का जायज़ा लेता रहा। महाराणा राजसिंह के आदेश से नाही व कोटड़े में तैनात मुगल थानों पर हमले कर मेवाड़ी फौज ने विजय प्राप्त की।
कर्नल जेम्स टॉड के मुताबिक इन्हीं छापामार हमलों के दौरान मेवाड़ी राजपूतों ने औरंगज़ेब की एक सर्केशियन बेगम को कैद किया, जिसे महाराणा राजसिंह ने अपनी बहिन बनाकर सही-सलामत औरंगज़ेब के पास भिजवा दी।
इस घटना का वर्णन नाथद्वारे की ‘प्रागट्य’ नामक पुस्तक में भी मिलता है, जिसमें इस बेगम का नाम रंगी चंगी बेगम लिखा है। मेरे विचार से ये औरंगज़ेब की बेगम नहीं, बल्कि उसके हरम की कोई अन्य स्त्री थी, क्योंकि इस नाम की औरंगज़ेब की कोई बेगम नहीं थी। प्रतीत होता है कि प्रागट्य में लिखा रंगी चंगी नाम उस विदेशी स्त्री के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
महाराणा राजसिंह ने पुनः वह घटना दोहरा दी, जो महाराणा प्रताप के समय घटित हुई थी। महाराणा प्रताप ने भी रहीम की बंदी बेगमों को मुक्त किया था और महाराणा राजसिंह ने भी उसी प्रकार औरंगज़ेब के हरम की स्त्री को बहिन बनाकर लौटा दिया।
2 अप्रैल, 1680 ई. को औरंगज़ेब अजमेर पहुंचा। इसी माह में बान्सी के कुँवर गंगदास शक्तावत ने एक शाही चौकी पर हमला कर विजय प्राप्त की। मेवाड़ की तरफ से बदनोर के सांवलदास राठौड़ ने बदनोर में तैनात रुहुल्ला खां पर आक्रमण किया व विजयी हुए।
बान्सी के रावत केसरीसिंह शक्तावत के पुत्र गंगदास जी ने 500 मेवाड़ी बहादुरों के साथ चित्तौड़ के पास तैनात मुगलों पर आक्रमण कर 18 हाथी, 2 घोड़े और कई ऊँट जब्त किए। महाराणा राजसिंह ने ख़ुश होकर गंगदास जी को कुँवर की पदवी, सोने के ज़ेवर सहित उत्तम घोड़ा और गांव देकर सम्मानित किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)