1679 ई. में औरंगज़ेब ने भारी भरकम फ़ौज सहित मेवाड़ पर चढ़ाई की। महाराणा राजसिंह ने पुरोहित गरीबदास की सलाह मानकर राजपरिवार व सर्दारों के साथ वन में प्रस्थान किया। उदयपुर को जल्द खाली करने के आदेश दिए गए।
महाराणा राजसिंह का पहला मुकाम उदयपुर से 4 कोस दक्षिण में देवीमाता के पहाड़ों में हुआ, जहां पानरवा, मेरपुर, जूड़ा, जवास के भोमिये सरदार, पालों के मुखियों व धनुष बाण वाले लगभग 50 हज़ार भील महाराणा का साथ देने के लिए उपस्थित हुए।
महाराणा राजसिंह ने इनको आदेश दिया कि दस-दस हजार के झुंड बनाओ और घाटियों व नाकों का रास्ता रोको, मुगलों का खजाना, रसद वगैरह लूटो और हम तक पहुंचाओ, जहां तक सम्भव हो मुगलों को घाटियां पार न करने दिया जावे।
फिर महाराणा राजसिंह वहां से प्रस्थान कर नेणवारा (भोमट) पहुंचे। यहां मेवाड़ व मारवाड़ के सामंतों के परिवार थे, जिनकी रक्षा का भार महाराणा ने अपने सिर लिया। यहां सामन्तों के अतिरिक्त मेवाड़ की बहुत सी प्रजा भी थी, जिनके लिए रसद का इंतज़ाम करवाना भी महाराणा का ही दायित्व था।
इस समय सिसोदिया व राठौड़ राजपूतों सहित कुल राजपूत फौज में 1 हज़ार हाथी, 20 हज़ार घुड़सवार व 25 हज़ार पैदल सैनिक थे। 50 हज़ार भील भी देशहित में तैयार थे। इस तरह लगभग कुल फ़ौज 1 लाख के करीब थी।
महाराणा राजसिंह ने कुँवर जयसिंह को 13 हज़ार सवारों सहित तैनात किया। कुँवर जयसिंह को आदेश दिया गया कि चारों तरफ जहां भी फौजी टुकड़ी को मदद की जरूरत हो, वहां उनकी मदद की जाए।
महाराणा ने इस प्रकार पहाड़ों में रहने की व्यवस्था वगैरह करवाने के बाद उदयपुर व अन्य कस्बों में रहने वाली समस्त प्रजा को पहाड़ों में बुला लिया, ताकि नरसंहार से प्रजा बच सके। उदयपुर व उसके आसपास के क्षेत्र को पूर्णतः निर्जन कर दिया गया।
मुगल सेनापति तहव्वर खां ने मांडल पर अधिकार कर लिया। फिर औरंगज़ेब मांडल पहुंचा, जहां कुछ समय ठहरा और फिर वहां से कूच करके देबारी की तरफ प्रस्थान किया।
देबारी की लड़ाई :- औरंगज़ेब फौज सहित मांडल होता हुआ देबारी पहुंचा। देबारी के घाटे की रक्षा के लिए नियुक्त गोरासिंह राठौड़ बल्लूदासोत बहुत से राजपूतों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। गोरासिंह जी की छतरी आज भी देबारी में मौजूद है, जिस पर लिखे शिलालेख में उनका उस जगह वीरगति पाना लिखा है।
ये गोरासिंह उन्हीं बल्लू जी के पुत्र हैं, जिन्होंने नागौर के वीर अमरसिंह राठौड़ की हत्या का प्रतिशोध लिया था। देबारी में हुई इस लड़ाई में कानोड़ के रावत मानसिंह सारंगदेवोत सख्त ज़ख्मी हुए और देबारी पर औरंगज़ेब का अधिकार हुआ। औरंगज़ेब ने देबारी में ही पड़ाव डाला।
जनवरी, 1680 ई. में महाराणा राजसिंह द्वारा फौजी जमाई गई फ़ौज :- गिर्वा की पहाड़ियों पर कुँवर जयसिंह (महाराणा के पुत्र व भावी महाराणा), देसूरी की नाल पर बदनोर के सांवलदास राठौड़, बदनोर-देसूरी के पहाड़ी भाग पर देसूरी के विक्रमादित्य सौलंकी व घाणेराव के ठाकुर गोपीनाथ राठौड़, मालवा में मंत्री दयालदास को फौजी टुकड़ियों सहित तैनात किया।
देबारी, नाई और उदयपुर के पहाड़ी नाकों पर स्वयं महाराणा राजसिंह तैनात हुए। महाराणा ने ओगणा, मादड़ी आदि इलाकों के भीलों को आदेश दिया कि अपने-अपने इलाकों में आने वाली बादशाही फ़ौजों को तीर-कमान से जवाब दिया जावे और उनकी रसद लूटकर हम तक पहुंचाई जावे।
औरंगज़ेब के एक सिपहसालार अमीन खां ने उसको ख़बर दी कि उदयपुर में एक भी आदमी नज़र नहीं आ रहा है, लगता है राणा राजसिंह सब आदमियों को लेकर पहाड़ों में चला गया है।
औरंगज़ेब का उदयपुर के जगदीश मंदिर पर हमला :- बादशाह औरंगज़ेब ने शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां को उदयपुर पर हमला कर वहां के मन्दिर वगैरह तोड़ने के लिए भेजा। मुगल फौज उदयपुर पहुंची, तो वहां इन्होंने पूरा उदयपुर खाली पाया।
सादुल्ला खां व इक्का ताज खां फौज समेत उदयपुर के जगदीश मंदिर के सामने पहुंचे, जो कि उदयपुर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक था व इसको बनाने में भारी धन खर्च हुआ था। बाहर से मंदिर सुनसान लग रहा था।
इस मंदिर की रक्षा के लिए नरू बारहठ सहित कुल 23 योद्धा तैनात थे, जिसका हाल कुछ ऐसा है कि जब महाराणा राजसिंह राजपरिवार व सामंतों सहित पहाड़ों में प्रस्थान कर रहे थे, तब किसी ने महाराणा के बारहठ नरू को ताना दिया कि “जिस दरवाज़े पर तुमने बहुत से दस्तूर (नेग) लिए हैं, उसको लड़ाई के वक़्त ऐसे ही कैसे छोड़ोगे”
यह बात नरू बारहठ को चुभ गई। नरू जी ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, लेकिन फिर अपने बाल-बच्चों को महाराणा के पास भिजवा दिया और ख़ुद अपने 22 अन्य साथियों के साथ यहीं रुक गए।
मुगल फौज जब लड़ने आई, तब मंदिर की उत्तरीय खिड़की से एक योद्धा लड़ने के लिए बाहर आया और वीरगति को प्राप्त हुआ, ऐसे ही मंदिर से एक-एक योद्धा बाहर आता और बहुतों को मारकर काम आता।
आखिर में नरू बारहठ बाहर आए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, इनका चबूतरा मंदिर के पास ही बनवाया गया था, लेकिन आज से लगभग 100 वर्ष पहले किसी ने इस चबूतरे पर मजार बनवा दी।
बादशाही फौज ने जगदीश मंदिर में मूर्तियों को तोड़कर मंदिर को तहस-नहस कर दिया। बाद में मेवाड़ महाराणा द्वारा दोबारा यह मंदिर बनवाया गया था।
औरंगज़ेब के समय की बादशाही तवारीख में लिखा है कि “शाही फौज के बहादुर जब काफिरों के मंदिर के बाहर पहुंचे तो वहां तकरीबन राणा के 20 माचातोड़ आदमी मरना ठानकर बैठे थे। उनमें से हर एक आदमी हमारे बहुत से मुसलमानों को मारकर मारा जाता था। जब तक आखिरी आदमी दोजख में गया, तब तक हमारे बहुत से वफादार बहादुर काम आ चुके थे। काफी मशक्कत के बाद शाही फौज के बहादुरों ने फतह हासिल की और मंदिर को तहस-नहस कर दिया”
विडम्बना ही है कि इस मंदिर में आने वाले प्रतिदिन सैंकड़ों श्रद्धालुओं को इस अभूतपूर्व बलिदान की भनक तक नहीं है। मेवाड़ के दुर्ग तो दुर्ग सही, यहां का हर मंदिर वीरों के बलिदान की खूनी गाथा अपने अंदर समेटे हुए है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
भूमि जिहाद करना इन मुगलों की नाजायज औलादों का काम है
जगदीश मंदिर के पास मजार है तो हटाना चाहिए
अभी बनीं है कुम्भलगढ़ दुर्ग के मुख्य दूहार से पहले
ओर रूपनगर दुर्ग के मुख्य दुहार से पहले भी नयी बनीं है मजार
ये साले मुगलों ने किया क्या है?
हमारे हिन्दू धर्म के साथ हमेशा मजाक होता आया है।
लेकिन अब हम सबको एक होकर इनका विरोध करना पड़ेगा।
और अपने खोए हुए या टूटे हुए मंदिरों का,
पुनर्निर्माण के लिए। आगे आना पड़ेगा
सहायक जानकारी 🙏🙏
The names of all martyrs should be placed on a marble plate near the temple. We should never forget our heroes.Ha