मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 17)

टोडा के राजा रायसिंह सिसोदिया का देहांत हो गया। ये महाराणा अमरसिंह के पौत्र व राजा भीमसिंह के पुत्र थे। राजा रायसिंह ने बादशाह का साथ देकर मेवाड़ की ख़िलाफ़त की थी। अप्रैल, 1673 ई. में राजा रायसिंह के तीन पुत्र मानसिंह, महासिंह व अनोपसिंह औरंगज़ेब के पास चले गए।

1614 ई. में खुर्रम (शाहजहाँ) ने महाराणा अमरसिंह के समय देबारी के द्वार तोड़ दिए थे। 8 अगस्त, 1674 ई. को महाराणा राजसिंह ने देबारी के प्रवेश द्वार पर नए मज़बूत द्वार लगवाए और दीवारों व बुर्ज़ों को ऊंची करवाकर मज़बूती प्रदान की।

महाराणा राजसिंह ने देबारी में सैनिक छावनी तैनात कर दी, क्योंकि यहां की सुरक्षा आवश्यक थी। महाराणा राजसिंह ने अपने साथियों व प्रजाजन में सैनिक भावनाओं को बल प्रदान करने हेतु ‘विजयकटकातु’ की उपाधि धारण की।

30 दिसम्बर, 1674 ई. को औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह के लिए खिलअत, जड़ाऊ जम्धर व फ़रमान भेजा। ये सब दस्तूर होते थे, वरना औरंगज़ेब इन दिनों महाराणा से नाराज़ ही था। ये उपहार आदि महाराणा द्वारा भी भिजवाए जाते थे।

महाराणा राजसिंह

1675 ई. में महाराणा राजसिंह की पंवार रानी रामरसदे जी ने त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया। ये कुँवर जयसिंह की माता थीं। 1676 ई. में औरंगजेब के बड़े बेटे शहजादे मुहम्मद सुल्तान की मृत्यु हो गई।

सिरोही के राव वैरिशाल देवड़ा के शत्रु उनको राज्य से बाहर निकालने की कोशिश करने लगे, तब महाराणा राजसिंह ने 1677 ई. में झीलवाड़ा की तरफ जाते समय राव वैरिशाल की सहायता करके उनको सिरोही में स्थिर किया।

इस सहायता के बदले में महाराणा राजसिंह ने राव वैरिशाल से एक लाख रुपए व कोरटा गांव सहित कुल 5 गांव लिए। इन्हीं दिनों किसी ने महाराणा के खेमे से सोने का एक कलश चोरी करके सिरोही पहुंचा दिया, जिसका पता लगने पर महाराणा ने राव वैरिशाल से 50 हज़ार रुपए वसूल किए।

28 नवम्बर, 1678 ई. को मारवाड़ नरेश महाराजा जसवन्तसिंह राठौड़ का देहान्त हो गया। महाराजा जसवंतसिंह के देहांत पर औरंगज़ेब ने कहा कि “आज धर्म विरोध का दरवाजा टूट गया”।

औरंगज़ेब की हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण 1669 ई. में जाटों ने, 1672 ई. में सतनामी ब्राह्मणों ने व 1675 ई. में सिक्खों ने मुगल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह के झंडे खड़े कर दिए।

महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब के फरमानों के विरुद्ध जाकर नए मंदिर बनवाए, गोसाईं लोगों को शरण दी, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया, मेवाड़ में संस्कृत शिक्षा हेतु पाठशालाएं खुलवाई। इन सभी कारणों से नाराज़ होकर औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए अजमेर कूच किया।

20 जनवरी, 1679 ई. को औरंगज़ेब अजमेर के लिए रवाना हुआ। मार्ग में 24 फरवरी को आमेर के राजा रामसिंह के पौत्र विष्णुसिंह औरंगज़ेब के सामने हाजिर हुए। 1 मार्च को औरंगज़ेब अजमेर पहुंचा। महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब की मंशा का अंदाज़ा लगाकर अपने पुत्र कुँवर जयसिंह को कुछ सामन्तों के साथ अजमेर भेजने का विचार किया।

लेकिन महाराणा यह तय करना चाहते थे कि औरंगज़ेब कुँवर जयसिंह के साथ दगा न करे। इसलिए महाराणा ने औरंगज़ेब का जवाब जानने के लिए उसे पत्र भेजकर यह कहलवाया कि मैं अपने बेटे को अजमेर भेजना चाहता हूं, इसलिए बादशाह का कोई आदमी अगर कुंवर को लेने उदयपुर आ जावे तो बेहतर रहेगा।

औरंगज़ेब

महाराणा राजसिंह का पत्र पढ़ने के बाद औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह को जो पत्र लिखा, वह हूबहू कुछ इस तरह है :- “वफ़ादार खैरख्वाह, नेक सरदारों का बुज़ुर्ग, बराबरी वालों से बेहतर, फर्माबर्दारों का सरताज, बहुत सी मिहरबानियों के लायक राणा राजसिंह बादशाही मिहरबानियों से इज़्ज़तदार और ख़बरदार होकर जाने कि

जो अर्ज़ी की साफ़ दिली और सच्ची खैरख्वाही से अपने नौकर केसरीसिंह और नरसिंहदास के हाथों बादशाहों की पनाह वाली दरगाह में भेजी थी, बुज़ुर्ग सल्तनत के हाजिर रहने वालों की मारिफ़त पाक साफ़ नज़र से गुज़री (अर्थात महाराणा राजसिंह ने नरसिंहदास व पारसोली के केसरीसिंह चौहान को एक अर्ज़ी देकर औरंगज़ेब के पास भेजा था)।

बुज़ुर्ग दरगाह में अर्ज़ हुआ कि वह (महाराणा राजसिंह) अपने बेटे (कुँवर जयसिंह) को बादशाही दरगाह में हाज़िरी से बुज़ुर्गी हासिल करने को भेजना चाहता है और उम्मीद रखता है कि एक सरकारी आदमी (औरंगजेब का कोई सेवक) उसको लाने को हुज़ूर से मुकर्रर किया जावे।

इसलिए सबके मानने के लायक बुज़ुर्ग हुक्म जारी होता है कि हम उसको पुराने मज़बूत इरादा वफ़ादार कारगुज़ारों में से जानते हैं। खानदानी बहादुर मुहम्मद नईम को, जो नेकबख्त नामदार, बादशाही आंख की पुतली, सल्तनत के बाग के ताज़ा फूल, आली खानदान, जहानवालों की ताज़ीम के लायक शहज़ादा मुहम्मद कामबख्श की सरकार का बख्शी है।

इनायत के तरीके से उस उम्दा सरदार (महाराणा राजसिंह) के बेटे को लाने के लिए उस तरफ़ रुख़सत फ़रमाया है। लाज़िम है कि तबीअत को बादशाही मिहरबानियों से जमा रखकर उस (कुँवर जयसिंह) को ज़िक्र किये हुए आदमी (मुहम्मद नईम) के हमराह (साथ) बुज़ुर्ग दरगाह (बादशाही दरबार) में भेज दे कि बुज़ुर्गी (बड़प्पन) हासिल करने के बाद बहुत सी मिहरबानियों के साथ इजाज़त (रुख़सत) पावेगा।”

औरंगज़ेब का पत्र आ जाने के बाद महाराणा राजसिंह को तसल्ली हो गई। फिर 23 मार्च को उन्होंने कुँवर जयसिंह को उदयपुर की सरहद पर भेजा, जहां कुँवर जयसिंह के डेरे लगाए गए। वहां मुहम्मद नईम आया और कुँवर जयसिंह को साथ लेकर रवाना हुआ।

21 मार्च, 1679 ई. को औरंगज़ेब अजमेर से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। 11 अप्रैल को जब दिल्ली 2 कोस दूर रह गई, तब कुँवर जयसिंह, चंद्रसेन झाला व गरीबदास पुरोहित औरंगज़ेब के यहां पहुंचे। औरंगज़ेब की तरफ से नागौर के राव इंद्रसिंह पेशवाई के लिए आए और कुँवर को भीतर ले गए।

कुँवर जयसिंह

30 अप्रैल, 1679 ई. को औरंगज़ेब ने कुँवर जयसिंह को खिलअत, मोतियों का सरपेच, कानों के लाल के बाले, जड़ाऊ तुर्रा, सोने से सुसज्जित अरबी घोड़ा और हाथी भेंट करके विदा किया। साथ ही महाराणा राजसिंह के लिए खिलअत, जड़ाऊ सरपेच, 20 हज़ार रूपए नकद व एक फ़रमान भिजवाया।

कुंवर जयसिंह मथुरा, वृंदावन की तरफ तीर्थयात्रा करते हुए 26 मई, 1679 ई. को उदयपुर आए। इस तरह महाराणा राजसिंह की सूझबूझ से इस बार तो युद्ध टल गया, परन्तु युद्ध अवश्यम्भावी था, क्योंकि औरंगज़ेब की कट्टर नीतियां उससे एक और कुटिल चाल चलवाने वाली थी और वो था जज़िया, जिसके बारे में अगले भाग में विस्तार से लिखा जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!