मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 16)

औरंगज़ेब द्वारा हिंदुओं की आस्था पर प्रहार :- औरंगज़ेब ने जब अपने पिता शाहजहाँ को कैद किया था, तब गद्दी पर बैठने के एक वर्ष के भीतर ही यह फ़रमान जारी करवा दिया था कि हिंदुस्तान में पुराने मंदिरों को छोड़कर जितने भी नए मंदिर बनाए गए हैं, उनको ध्वस्त कर दिया जावे और कोई भी नया मंदिर बनाने की जुर्रत ना करे।

समय के साथ-साथ औरंगज़ेब की कट्टरता बढ़ती गई और सनातन धर्म के विरुद्ध उसने एक ऐसा फ़रमान निकाला, जिससे समूचे हिंदुस्तान में हाहाकार मच गया। 1669 ई. में औरंगज़ेब ने फ़रमान जारी किया कि हिंदुस्तान में नए और पुराने समस्त मंदिरों और हिंदुओं की पाठशालाओं को ध्वस्त कर दिया जावे और हिंदुओं के धर्म सम्बन्धी पठनपाठन को रोक दिया जावे। ये फ़रमान हिंदुओं की आस्था पर भीषण प्रहार था।

अहमदाबाद के चिंतामणि मंदिर को ध्वस्त करके वहां मस्जिद बनवाई गई। गुजरात के अनेक मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया। हिंदुस्तान भर में मौजूद बड़े-बड़े व प्रसिद्ध मंदिर जैसे काठियावाड़ का सोमनाथ मंदिर, बनारस का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवराय मंदिर भी उसके हाथों से नहीं बच सके।

हिंदुस्तान में मंदिरों को नष्ट करने के लिए औरंगज़ेब ने जगह-जगह अलग-अलग विभाग बनाए और वहां मंत्री नियुक्त किए गए। औरंगज़ेब की इस हरकत से तमाम हिन्दू उससे नाराज़ हो गए। हज़ारों मंदिरों और मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया।

औरंगज़ेब

महाराणा राजसिंह औरंगज़ेब के इस फ़रमान से केवल क्रोधित ही नहीं हुए, उन्होंने ठान लिया कि मेवाड़ के मंदिरों पर मुसलमानों ने हमला किया, तो उसका जवाब तलवारों से दिया जाएगा और जो कोई पुजारी मेवाड़ में आया, तो मूर्ति की रक्षा की जाएगी।

द्वारिकाधीश जी की मूर्ति मेवाड़ में :- औरंगज़ेब ने वल्लभ संप्रदाय की गोवर्धन की सभी प्रमुख मूर्तियों को तोड़ने को आदेश दिया, तब द्वारिकाधीश जी की मूर्ति मेवाड़ में लाई गई। महाराणा राजसिंह के आदेश से इस मूर्ति की कांकरोली के मंदिर में प्रतिष्ठा करवाई गई, जो वर्तमान में द्वारिकाधीश जी के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

श्रीनाथ जी की मूर्ति मेवाड़ में :- मथुरा के पास गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथ जी का मन्दिर था, जहां गोसाई लोगों के पास औरंगजेब ने अपना आदमी भेजकर कहलाया कि तुम जल्द ही यहां से निकाले जाओगे।

10 अक्टूबर, 1669 ई. को गोसाई विट्ठलदास जी के पुत्र गिरीधारी जी के पुत्र दामोदर जी घबराए और श्रीनाथ जी की मूर्ति को एक रथ में बिठाकर अपने काका गोविंद जी, बालकृष्ण जी, वल्लभ जी और गंगाबाई के साथ मथुरा से रवाना हुए और आगरा पहुंचे।

गोसाई जी व महाराणा राजसिंह

16 दिन आगरा में छिपे रहकर ये लोग 26 अक्टूबर, 1669 ई. को बूंदी के राव राजा अनिरुद्ध सिंह हाड़ा के पास गए। औरंगज़ेब के भय के कारण बूंदी में इनको अधिक समय नहीं ठहराया गया। फिर ये लोग कोटा पहुंचे, जहां के राव जगतसिंह हाड़ा ने इनको कुछ समय के लिए कृष्ण विलास में ठहराया।

इन लोगों ने बरसात का मौसम कृष्ण विलास में ही काटा। कोटा से रवाना होकर ये लोग पुष्कर पहुंचे। पुष्कर में ये अधिक समय नहीं रहे, क्योंकि पुष्कर में कई मंदिर थे, जिससे भय था कि यहां बादशाही फौज कभी भी हमला कर सकती है।

पुष्कर से रवाना होकर ये लोग राठौड़ राजपूतों की रियासत किशनगढ़ में पहुंचे। किशनगढ़ के राजा मानसिंह राठौड़ ने कहा कि “आपको छिपकर यहां रहना मंज़ूर हो तो रहो, ज़ाहिरा तौर पर हम आपको यहां नहीं रख सकते।”

गोसाई लोगों ने बसंत ऋतु और गर्मी के दिन किशनगढ़ में ही छिपकर गुजारे और फिर बरसात के दिनों में मारवाड़ पहुंचे। जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह राठौड़ इन दिनों अपने ननिहाल में थे। गोसाई लोगों ने जोधपुर से तीन मील दूर चाम्पासेणी गांव में श्रीनाथ जी को पधराया।

बरसात ख़त्म होने तक ये लोग वहीं रहे। 6 माह तक गुसाईं लोग चाम्पासेणी के निकट स्थित कदमखेड़ी गांव में रहे। इस प्रकार 2 वर्षों तक भटकने के बावजूद किसी राजा ने औरंगज़ेब के भय से इनको शरण नहीं दी। क्योंकि शरण देने का अर्थ था औरंगज़ेब से सीधा विद्रोह।

आखिरकार गोसाई दामोदर जी के काका गोविंद जी अकेले ही मेवाड़ महाराणा राजसिंह के पास पहुंचे और महाराणा से कहा कि आप हमें वचन दें कि इस मूर्ति की रक्षा करेंगे। (ओझा जी ने गोविंद जी की जगह गोपीनाथ जी नाम लिखा है, जबकि वीरविनोद में गोविंद जी नाम लिखा है)

महाराणा राजसिंह ने मेवाड़ कुल व अपने वंश की गरिमा को ध्यान में रखकर खुशी से कहा कि “मैं ये तो नहीं कह सकता कि आलमगीर इस मूर्ति को नहीं छू सकेगा, लेकिन इतना तय है कि मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कटेंगे, तभी आलमगीर (औरंगजेब) श्रीनाथ जी की इस मूर्ति को हाथ लगा सकेगा”

गोसाई जी व महाराणा राजसिंह

17 नवम्बर, 1671 ई. को गोविंद जी बड़े खुश होकर चाम्पासेणी गए और वहां से सभी गोसाई लोगों के साथ मूर्ति को लेकर मेवाड़ के लिए रवाना हुए। जब श्रीनाथ जी की मूर्ति मेवाड़ की सीमा में प्रवेश कर गई, तो महाराणा राजसिंह पेशवाई के लिए खुद वहां तक गए।

जहां दूसरी रियासतों में गुसाईं लोगों को छिपकर रहना पड़ा, वहीं मेवाड़ के महाराणा ने बड़े धूमधाम के साथ श्रीनाथ जी का स्वागत सत्कार किया। ढोल नगाड़ों और गाजे बाजों से मुगल सल्तनत को स्पष्ट संदेश दिया गया कि धर्म पर प्रहार करोगे तो फ़रमान धरे के धरे रह जावेंगे।

20 फरवरी, 1672 ई. को उदयपुर से 12 कोस उत्तर की तरफ बनास नदी के तीर सिंहाड़ गांव में मंदिर बनवाकर श्रीनाथ जी को शनिवार के दिन पाट बिठाया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. जामा कोलर
    August 29, 2021 / 11:55 am

    कुछ भुलवश अन्याय हुआ भी हो तो भी
    ऐसे धर्मवीर महाराणा राजसिंह जी जैसे बिरले धर्म रक्षा के लिए ही जन्म लेते हैं
    सभी महाराणाओं को ओर उनके क्षत्रिय एव सहयोगी वीरों को कोटि कोटि प्रणाम

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