मेवल में उपद्रव का दमन :- 1662 ई. में मेवाड़ के दक्षिणी हिस्से मेवल में मीणा जाति के लोगों ने महाराणा राजसिंह के विरुद्ध जाकर मेवाड़ में लूटमार शुरु कर दी, जिसके चलते महाराणा ने कानोड़ के रावत मानसिंह सारंगदेवोत को उनका दमन करने फौज समेत भेजा।
रावत मानसिंह ने वरापाल, नठारा, पडूना, बीलक, सगतडी, घनकावाड़ा आदि इलाकों में उपद्रवी मीणाओं का दमन किया। कइयों को कैद किया गया और कइयों को मार दिया गया। महाराणा ने प्रसन्न होकर रावत मानसिंह सारंगदेवोत को सिरोपाव देकर सम्मानित किया व मेवल का इलाका उन्हें सौंपकर कहा कि इस इलाके में शांति कायम रखना।
1663 ई. – सिरोही राव अखैराज को न्याय दिलाना :- सिरोही के राव अखैराज के बेटे उदयभान ने अपने पिता को कैद किया और खुद सिरोही का मालिक बन बैठा।महाराणा राजसिंह ने ये ख़बर सुनी तो कई बार उदयभान को नसीहतें दी, पर कोई असर नहीं हुआ।
फिर महाराणा ने रामसिंह राणावत को फौज समेत सिरोही भेजा। रामसिंह राणावत महाराणा उदयसिंह के बेटे वीरमदेव की चौथी पीढ़ी से थे व ये आंबा के जागीरदार थे। रामसिंह राणावत महाराणा राजसिंह के सबसे करीबी सामन्तों में से एक थे।
रामसिंह राणावत के फौज समेत पहुंचते ही उदयभान तो पहाड़ों में चला गया और रामसिंह ने राव अखैराज को कैद मुक्त करके सिरोही की गद्दी पर बिठाया। राव अखैराज देवड़ा ने महाराणा राजसिंह का शुक्रिया अदा किया।
रीवां रियासत से विवाह सम्बन्ध :- 1664 ई. में बांधू (रीवां) के बाघेला राजा अनूपसिंह के पुत्र कुँवर भावसिंह के साथ महाराणा राजसिंह की पुत्री अजब कंवर बाई का विवाह हुआ।
बाघेला राजपूत खाने पीने में बहुत परहेज करते थे, परन्तु जब कुंवर भावसिंह को उदयपुर में भोजन परोसा गया, तो उन्होंने महाराणा से कहा कि “हम आपके साथ भोजन करने में बहुत इज़्ज़त समझते हैं, बल्कि हम उसको जगदीश का प्रसाद समझते हैं।”
इस तरह यह विवाह बड़े स्नेह के साथ सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर महाराणा राजसिंह ने अपने भाई-बेटों की कुल 98 कन्याओं के विवाह भी दूसरे अच्छे राजपूतों से करवा दिया।
अम्बा माता के मंदिर का निर्माण :- 1664 ई. में ही महाराणा राजसिंह ने उदयपुर के पश्चिमोत्तर कोण पर बनाए गए अम्बा माता के भव्य मंदिर की प्रतिष्ठा की। यह मंदिर उदयपुर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।
बड़ी तालाब का निर्माण :- महाराणा राजसिंह ने अपनी माता जनादे बाई मेड़तिया राठौड़ के नाम से एक तालाब बनवाने के लिए मुहूर्त निकलवाया। मुहूर्त के अनुसार 15 नवम्बर, 1664 ई. से तालाब का कार्य शुरू हो गया।
रंगसागर तालाब का निर्माण :- इन्हीं दिनों महाराणा राजसिंह के पुत्र कुंवर जयसिंह ने उदयपुर में पिछोला के उत्तर में अम्बाव गढ़ के नीचे रंगसागर नाम का एक तालाब बनवाया। कुँवर जयसिंह ने तालाब की प्रतिष्ठा के समय बहुत सा धन दान किया। बाद में यह तालाब पीछोला झील में मिला दिया गया।
31 जनवरी, 1665 ई. को चंद्रग्रहण होने के कारण महाराणा राजसिंह ने 2 हज़ार मुहरें व बहुत से सामान सहित कामधेनु गऊ का दान किया।
1666 ई. में शाहजहां की कैदखाने में 74 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। 1667 ई. में आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह कछवाहा का देहांत हो गया।
रावत मानसिंह सारंगदेवोत की कार्रवाइयों के बाद 1667 ई. में मीणों के नेता पीप्पा ने महाराणा राजसिंह से क्षमा मांगी। फिर महाराणा ने सहाड़ा के जदोली गांव में पीप्पा को जागीर देकर मीणों को पुनः बसाया। महाराणा राजसिंह की सैनिक कार्रवाई से इस सम्पूर्ण क्षेत्र में शांति स्थापित हो गई।
बड़ी तालाब की प्रतिष्ठा :- 1669 ई. में तालाब बनकर तैयार हो गया। महाराणा राजसिंह ने इस तालाब का नाम जना सागर रखा। तालाब की प्रतिष्ठा 11 फरवरी, 1669 ई. को की गई। बाद में यह तालाब बड़ी तालाब के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रतिष्ठा के अवसर पर महाराणा राजसिंह ने चांदी का तुलादान किया।
वर्तमान में यहां कई पर्यटक आते हैं और इसके निकट वाली पहाड़ी का नाम वर्तमान में बाहुबली हिल है। बड़ी तालाब के निर्माण में 2 लाख 61 हजार रुपए खर्च हुए। महाराणा राजसिंह ने प्रतिष्ठा के अवसर पर 2 गांव पुरोहित गरीबदास को भेंट किए। इस तालाब की प्रतिष्ठा के समय महाराणा की माता का देहांत हो गया।
अप्रैल, 1669 ई. में महाराणा राजसिंह के मंत्री फतहचंद ने बेडवास गांव में एक बावड़ी बनवाई। फतहचंद ने पास ही एक सराय और एक महल भी बनवाया। इसके अलावा फतहचन्द ने यहां 13 बीघा पर एक बड़ा उद्यान बनवाया।
ईर्ष्यालु लोगों के बहकावे में आकर रावत चुण्डावत के साथ अन्याय :- जब बादशाह का मुलाजिम मुंशी चंद्रभान उदयपुर आया था, तब उसने सलूम्बर के रावत रघुनाथसिंह चुंडावत की खूब प्रशंसा की थी। इसके बाद मेवाड़ के ईर्ष्यालु मंत्रीगणों व सामन्तों ने महाराणा राजसिंह के कान भरने शुरू किए।
महाराणा राजसिंह ने इन लोगों के बहकावे में आकर सलूम्बर रावत रघुनाथ सिंह चुण्डावत से सलूम्बर की जागीर जब्त कर बेदला के राव सबलसिंह के छोटे भाई केसरीसिंह चौहान को दे दी, साथ ही पारसोली का पट्टा और राव का पद भी केसरीसिंह को दे दिया। केसरीसिंह महाराणा राजसिंह के करीबी सामंत थे।
महाराणा राजसिंह को यहां विचार करना चाहिए था, क्योंकि सलूम्बर के चुंडावतों ने पीढ़ियों से मेवाड़ के लिए कई बलिदान दिए। बहरहाल, नाराज़ होकर रावत रघुनाथ सिंह 13 जून, 1669 ई. को औरंगज़ेब के पास लाहौर चले गए, जहां बादशाह ने उनको एक हजारी जात व 300 सवार का मनसब दिया।
हालांकि केसरीसिंह के नाम सलूम्बर का पट्टा तो लिखा गया, परंतु उन्होंने चुण्डावतों से विरोध करने में भलाई नहीं समझी और कभी सलूम्बर पर अपना अधिकार नहीं जताया, नतीजतन रावत रघुनाथ सिंह के बेटे रतनसिंह चुण्डावत सलूम्बर की गद्दी पर बैठे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)