महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमरसिंह ने एक बार गोमती नदी पर एक तालाब बनवाने का प्रयास किया था, परन्तु नदी के वेग व मुसलमानों के आक्रमण के कारण वह तालाब बन नहीं पाया।
1661 ई. में महाराणा राजसिंह विवाह करने हेतु जैसलमेर पधारे। लौटते समय गोमती नदी को देखकर महाराणा ने वहीं एक तालाब बनवाने की सोची। हालांकि उस समय उन्होंने तालाब बनवाने का पक्का मन नहीं बनाया था।
फिर जैसा कि पिछले भाग में महाराणा राजसिंह के पश्चाताप के बारे में बताया गया, वह पश्चाताप पूरा करने के लिए अकाल पीड़ितों की मदद व तालाब के जल से पैदावार बढ़ाने हेतु महाराणा ने एक बड़ा तालाब बनवाने का निश्चय किया।
नवम्बर, 1661 ई. में महाराणा राजसिंह रूपनारायण के दर्शन के लिए पधारे, तब उन्होंने अपने पुरोहित गरीबदास से कहा कि यहां हम एक तालाब बनवाना चाहते हैं। गरीबदास ने अर्ज़ किया कि तालाब तो बन सकता है, पर तीन बातें ध्यान में रखना जरूरी है :- अव्वल तो ये कि इसमें बहुत खर्चा आएगा, दूसरा ये कि जब तक काम पूरा न हो तब तक खर्चे में कोई कमी न रखी जाए और तीसरा ये कि इस दौरान मुसलमान बादशाहों से झगड़ा न हो, वरना वे काम पूरा नहीं होने देंगे।
महाराणा राजसिंह ने गरीबदास की सभी बातें मान लीं और कहा कि ऐसा ही होगा। 12 जनवरी, 1662 ई. को शुभ मुहूर्त पर तालाब का काम शुरू हुआ। बहुत बड़ा काम होने के कारण उसके कई विभाग कर दिए गए और प्रत्येक विभाग के लिए अलग-अलग सरदारों की नियुक्ति की गई।

नींव में बहुत पानी आ जाने के कारण अरहटों आदि से पानी निकाला गया। पुरोहित गरीबदास के बेटे रणछोड़राय के हाथ से पंचरत्न सहित नींव का पहला पत्थर रखवाया गया। इस बड़े काम में हज़ारों आदमियों को काम पर लगाया गया था।
8 मई, 1665 ई. को गोमती नदी के पानी को रोकने के लिए दोनों पहाड़ों के बीच पाल की पक्की बुनियाद डालने का काम शुरू किया गया। 26 सितंबर, 1671 ई. को तालाब में नाव का मुहूर्त एक गड्ढे में पानी भरवाकर किया, क्योंकि सिंह राशि पर वृहस्पति आता था और इसमें भले काम करने की ज्योतिष के मत से मनाही है।
इस झील में सिवली, भीगावदा, भाणा, लुहाणा, बांसोल और गुड़ली गांव आए। मोरचणा, पसून्ध, खेड़ी, छापरखेड़ी, तासोल और मंडावर आदि गांवों की सीमा इस झील के पेटे में आई।
इस झील में गोमती, ताली व केलवा नदियों को पानी आता है। झील की पुख्ता पाल 6,413 गज की है। इसमें पानी के 3 मुख्य निकास हैं और चौथा अधिक भर जाने के समय गौघाट की चट्टानों पर से बहता है।
अगस्त, 1673 ई. में झील में 8 हाथ पानी भर गया। 8 अगस्त, 1674 ई. को लाहौर, गुजरात और सूरत के कारीगरों द्वारा बनवाया गया एक जहाज झील में डाला गया। अथक प्रयासों के बाद आखिरकार 1 फरवरी, 1676 ई. को झील की प्रतिष्ठा पूरी हुई। इसके बनने में 15 वर्ष का समय लगा।
प्रतिष्ठा के दिनों में अष्टमी के दिन महाराणा राजसिंह ने उपवास किया। नवमी के दिन अपने समस्त परिवारजनों व पुरोहित गरीबदास के साथ मंडप में प्रवेश करके वरुणादि देवताओं का पूजन किया। प्रतिष्ठा के लिए तैयार कराए गए दो मंडपों के नौ कुंडों में अग्नि स्थापित की गई और हवन आदि का कार्य प्रारंभ हुआ।
अगले दिन महाराणा द्वारा राजपरिवार समेत परिक्रमा का समय आया, तो डूंगरपुर रावल जसवंत सिंह ने अर्ज़ किया कि महाराणा उदयसिंह जी उदयसागर झील की परिक्रमा के दौरान पालकी पर सवार हुए थे। महाराणा राजसिंह को ये सलाह पसंद नहीं आई और उन्होंने कहा कि हम पैदल ही परिक्रमा करेंगे।
इस परिक्रमा से पहले मार्ग में कांटे वग़ैरह साफ कर लिए गए। फिर महाराणा राजसिंह ने नंगे पैर चलना शुरू किया। आगे-आगे वेदपाठी ब्राह्मण चले। इस तरह महाराणा ने नौचोकीयों से पश्चिम की तरफ होकर मोरचणा, पसून्ध, तासोल, भाणा और कांकरोली होते हुए 5 दिन में 14 कोस की परिक्रमा अपनी रानियों, पुत्रों, सामंतों व पुरोहित सहित पूरी की।

महाराणा राजसिंह ने अपनी पाटवी रानी व पाटवी कुँवर के साथ स्वर्ण का तुलादान किया, इस समय अपने पौत्र भंवर अमरसिंह को भी अपने साथ तुला में बिठाया। इसमें कुल 12 हजार तोले सोने का वजन आया, अर्थात 12 हज़ार तोला सोना दान किया गया। महाराणा राजसिंह की रानी सदा कंवर ने चांदी का तुलादान किया, ये बिजोलिया के राव इन्द्रभान पंवार की पुत्री थीं।
पुरोहित गरीबदास ने भी इस अवसर पर स्वर्ण का तुलादान किया व उनके बेटे रणछोड़राय ने चांदी का तुलादान किया। टोडा के राजा रायसिंह की माता, पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान और बारहठ केसरीसिंह ने भी इस अवसर पर चांदी के तुलादान किये।
महाराणा राजसिंह ने इस अवसर पर सप्तसागर का दान किया। इस दान में 7 कुंड बनाए जाते थे :- ब्रह्मा जी का कुंड नमक से, विष्णु जी का कुंड दूध से, शिवजी का घी से, सूर्य का गुड़ से, इंद्र का धान्य से, रमा का शर्करा से व गौरी का कुंड जल से भरा जाता था। फिर ये सातों कुंड दान किए जाते थे।
इसी अवसर पर झील का नामकरण किया गया। झील का नाम राजसमुद्र, पास ही पहाड़ पर बनवाए गए महल का नाम राजमंदिर और इस नगर का नाम राजनगर रखा गया। झील व नगर का नाम कालांतर में राजसमंद हो गया। वर्तमान में राजसमंद राजस्थान राज्य का एक जिला है।
महाराणा ने प्रतिष्ठा के लिए सभी राजा महाराजाओं को न्योता भेजा, पर इसमें जो राजा किसी कारण से नहीं आ पाए, उनके लिए महाराणा ने ये उपहार भेजे :- जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ के लिए 9 हज़ार रुपए, परमेश्वर प्रसाद नाम का एक हाथी, नरतन, फत्ते और कनक कलश नाम के 3 घोड़े व 3 दुशाले रणछोड़ भट्ट के हाथों भिजवाए गए।
(महाराणा राजसिंह ने जब कुँवरपदे काल में पहला विवाह किया था, तब जैसलमेर में महाराजा जसवंत सिंह से पहले तोरण बंधाई को लेकर विवाद हुआ था। इसके अतिरिक्त महाराणा राजसिंह ने बदनोर का परगना महाराजा जसवंतसिंह के आदमियों से छीन लिया था, जो कि शाहजहां ने मेवाड़ वालों से छीनकर महाराजा जसवंतसिंह को दे दिया था। इस प्रकार पहले से चले आ रहे आपसी विवादों को भुलाकर महाराणा राजसिंह ने जोधपुर महाराजा को उपहार आदि भिजवाए।)

महाराणा राजसिंह ने आमेर के राजा रामसिंह कच्छवाहा के लिए 10,250 रुपए, सुंदरगज नाम का एक हाथी, सुंदर व हद्द नाम के 2 घोड़े व 6 दुशाले पुरोहित रामचंद्र के हाथों भिजवाए।
बीकानेर के राजा अनूपसिंह राठौड़ के लिए 7500 रुपए, मदनमूर्ति नाम का एक हाथी, शाहश्रृंगार व तेजनिधान नामक 2 घोड़े व 11 दुशाले ज्योतिषी माधव जोषी के हाथों भिजवाए।
बूंदी के राव राजा भावसिंह हाड़ा के लिए होनहार नामक एक हाथी, नरतन, सर्वशोभा व सिरताज नामक 3 घोड़े व कई दुशाले भास्कर भट्ट के हाथों भिजवाए।
जैसलमेर के रावल अमरसिंह भाटी के लिए प्रतापश्रृंगार नामक एक हाथी, हयमुकुट व रतिमुकुट नामक 2 घोड़े व दुशाले ज्योतिषी देवनन्द जोषी के हाथों भिजवाए।
डूंगरपुर के रावल जसवंत सिंह के लिए सारधार नामक एक हाथी, जहतरंग व कनक नामक 2 घोड़े हरजी के हाथों भिजवाए। रावल जसवंत सिंह प्रतिष्ठा के अवसर पर उपस्थित थे, लेकिन भेंट बाद में भिजवाई गई।
रामपुरा के राव मुह्कम सिंह चंद्रावत के लिए फतह दौलत नामक एक हाथी व 2 घोड़े ब्राह्मण द्वारिकानाथ के हाथों भिजवाए, जिनमें से एक घोड़े का नाम मोहन था।
महाराणा राजसिंह ने अपने प्रधान दोसी भीखू को प्रतापश्रृंगार नाम का हाथी व रामसिंह राणावत को सिंहनाद नामक हाथी भेंट किया। इन दोनों को सिरोपाव भी भेंट किए गए।
बांधूगढ़ (रीवां) के राजा भावसिंह बाघेला को अनूप नामक हाथी, विनयसुन्दर व एक अन्य सहित कुल 2 घोड़े, दुशाले, गहने आदि लादू महासहाणी के हाथों भिजवाए।टोडा के राजा रायसिंह के पुत्रों के लिए सहेली नाम की एक हथिनी भिजवाई।
झील की प्रतिष्ठा में महाराणा राजसिंह ने पुरोहित गरीबदास को धार नामक गाँव सहित कुल 12 गांव व मुख्य शिल्पी को 25 हज़ार रुपए भेंट किए गए। इस अवसर पर 46 हज़ार ब्राह्मण व अन्य लोग बाहर से आए, जिन्हें वस्त्र आदि भेंट किए गए। इनके अतिरिक्त बहुत से रिश्तेदार व बाहरी रियासतों से भी कई राजपूत आए थे।
राजसमंद झील को बनवाने में जिन-जिन दारोगाओं को नियुक्त किया गया था, जो काम की निगरानी और प्रबंध व्यवस्था देखते थे, उन सभी को कुल 60 घोड़े, वस्त्र, ज़ेवर आदि दिए गए। 206 घोड़े कवि लोगों को भेंट किए गए।
ब्राह्मणों और चारणों को 552 घोड़े, 13 हाथी व हथिनी, सिरोपाव, गहने आदि भेंट किए, जिनमें से घोड़ों की कुल कीमत 1,22,268 रुपए थी व हाथियों की कुल कीमत 1,02,110 रुपए थी।
तालाब के काम में सामग्री वग़ैरह में, मजदूरों की पगार, प्रतिष्ठा के कार्यक्रम, दान दक्षिणा, राजाओं को भिजवाए गए उपहार आदि सब मिलाकर कुल 1 करोड़, 44 लाख, 72 हज़ार, 207 रुपए खर्च हुए।
राजसमंद झील के नौचौकी नामक बाँध पर ताकों में 25 बड़ी शिलाओं पर 25 सर्गों में राजप्रशस्ति महाकाव्य खुदवाया गया, जो भारत का सबसे बड़ा शिलालेख और शिलाओं पर खुदे हुए ग्रंथों में सबसे बड़ा है। इसकी रचना रणछोड़ भट्ट ने की। रणछोड़ भट्ट तैलंग जातीय कंठोड़ी कुल के गोसाईं मधुसूदन के पुत्र थे।
राजसमंद झील की पाल की लंबाई 999 फीट, चौड़ाई 99 फीट, तीन छतरियां स्थित हैं जिनमें प्रत्येक में 9 का कोण, प्रत्येक छतरी की ऊंचाई 9 फीट, पाल की सीढ़ियां किसी भी तरफ़ से गिनने पर प्राप्त संख्या 9, पाल पर बनी चौकियों की संख्या 9 है, इसीलिए इसे नौचौकी पाल कहते हैं।
राजसमंद झील की पाल पर घेवर माता का मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि मालवा की रहने वाली घेवर माताजी सती हुई थीं, जिनके उपलक्ष्य में यह मंदिर बनवाया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)