मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी (भाग – 13)

महाराणा राजसिंह द्वारा उदयकर्ण चौहान को औरंगज़ेब के पास भेजकर छीने गए परगने वापिस प्राप्त करने का प्रयास करना :- 1660 ई. में महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब के खिलाफ जाकर किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति बाई राठौड़ से विवाह किया, तो उसके बाद औरंगज़ेब को एक पत्र लिखा। ये पत्र लेकर कोठारिया के उदयकर्ण चौहान औरंगज़ेब के यहां गए।

उदयकर्ण चौहान ने, गयासपुर और बसावर के परगने जो औरंगज़ेब ने नाराज़ होकर रावत हरिसिंह को दे दिए थे, वो वापिस प्राप्त करने की बहुत कोशिश की, पर औरंगज़ेब नहीं माना। 31 दिसम्बर, 1661 ई. को औरंगज़ेब ने उदयकर्ण चौहान को तसल्ली का फरमान और खास खिलअत देकर विदा किया।

औरंगज़ेब ने उदयकर्ण चौहान के साथ अपने एक विश्वस्त सेवक को भी महाराणा राजसिंह के पास भेजा। औरंगज़ेब के उस सेवक ने महाराणा राजसिंह को तसल्ली दी, लेकिन महाराणा को अपने परगने वापिस चाहिए थे, न कि मात्र तसल्ली।

उदयभाण की हत्या :- एक दिन औरंगज़ेब का कोई एलची महाराणा राजसिंह के दरबार में आया, तो महाराणा ने हुक्म दिया कि आज दरबार में जो कोई भी देरी से आयेगा, उसे हम ताजीम नहीं देंगे।

उदयभाण बारहठ नामक एक कवि मना करने के बावजूद दरबार में आ गया, महाराणा ने उसका कोई स्वागत नहीं किया और ना ही कोई हावभाव दिए। तब उदयभाण ने नाराज़ होकर एक दोहा कहा :-

“गया राणा जगतसिंह जग का उजवाला, रही चिरम्मी बप्पड़ी कीधां मुंह काला” अर्थात जगत को रोशन करने वाले महाराणा जगतसिंह तो संसार से चल बसे और उनकी जगह पर अब सिर्फ काले मुंह की चिरमिटी रह गई है।

महाराणा राजसिंह ने क्रोध में आकर उसी समय पास में रखा लोहे का गुर्ज उदयभाण के सिर पर दे मारा, जिससे उदयभाण की मृत्यु हो गई। कहीं-कहीं ऐसा भी लिखा है कि महाराणा ने उदयभाण को कारागार में डलवा दिया, जहां उसने आत्महत्या कर ली।

महाराणा राजसिंह

महाराणा राजसिंह द्वारा क्रोध में आकर पुत्र की हत्या करना :- महाराणा राजसिंह की एक रानी ने अपने बेटे सर्दार सिंह को राजगद्दी पर बिठाने की खातिर महाराणा के बड़े बेटे सुल्तान सिंह को लेकर महाराणा को बहकाया। सुल्तान सिंह पर कई झूठे आरोप भी लगाए गए।

न जाने ऐसा क्या हुआ, पर एक दिन महाराणा राजसिंह ने क्रोध में आकर उसी लोहे के गुर्ज से कुँवर सुल्तान सिंह की हत्या कर दी। मेवाड़ के इतिहास में सम्भवतः ये पहला मौका था, जब किसी शासक ने अपने ही बेटे को मारा हो।

घटना के बाद इसी रानी ने मेवाड़ के एक पुरोहित को पत्र लिखा कि “सुल्तान सिंह को तो मैंने फरेब से मरवा डाला है, अब दरबार (महाराणा) को भी ज़हर दे दिया जावे, तो मेरा बेटा राज्य का मालिक बने।”

पुरोहित ने उस पत्र को अपनी कटारी के खीसे में रख दिया। उस पुरोहित के यहां दयाल नाम का एक महाजन काम करता था, उसकी शादी किसी महाजन के यहां दिवाली नामक गाँव में हुई थी, जो कि उदयपुर से दो मील की दूरी पर स्थित है।

एक दिन त्योहार से पहले दयाल ने अपने मालिक पुरोहित से छुट्टी मांगी, लेकिन रात होने की वजह से उसने पुरोहित से एक शस्त्र मांगा। पुरोहित ने भूलवश अपनी कटारी उसको दे दी। दयाल रात को रवाना हुआ और अपने ससुराल पहुंचा। वहां उसने कटारी का खीसा खोला, तो पत्र देखा और पढ़ लिया।

दयाल आधी रात को दौड़ता हुआ उदयपुर राजमहल आया। पहरेदारों ने रोका, तो दयाल ने कहा कि बात इतनी जरूरी है कि अगर आज महाराणा को नहीं बताया, तो कल वे तुमको जरूर मार देंगे। फिर पहरेदारों ने महाराणा को सूचित किया।

दयाल ने महाराणा राजसिंह को वह पत्र दे दिया। महाराणा राजसिंह को पत्र पढ़ते ही अपनी भूल का अहसास हुआ, कि उन्होंने अपने पुत्र को ऐसे फरेबी लोगों की बातों में आकर मार दिया।

महाराणा राजसिंह उस रानी के कक्ष में गए और रानी को मार दिया। फिर महाराणा ने पुरोहित को राजमहल में बुलवाया और उसको भी मार दिया। इन रानी के पुत्र सरदारसिंह इस समय राजमहल में विश्राम कर रहे थे।

कुँवर सरदारसिंह को जब सारी घटना मालूम हुई, तो उनको लगा कि अब सभी को यही लगेगा कि कुँवर सुल्तानसिंह को मरवाने में मेरा भी हाथ था। कुँवर सरदारसिंह का मन इसलिए दुःखी हो गया कि मेरी माता के कारण मुझे भी दोषी की तरह देखा जाएगा।

कुँवर सरदारसिंह ने कागज़ पर एक दोहा लिखा और फिर ज़हर खाकर अपने प्राण दे दिए। यह दोहा था :- “पाणी पिंड तणाह पिंड जातां पाणी रहै। चींतारसी घणाह सुपना ज्यूं सरदार सी।।” अर्थात इज़्ज़त तो शरीर की है, पर अगर शरीर जाए और इज़्ज़त रह जाए, तो उस व्यक्ति को लोग सपनों में भी याद करेंगे।

लोकदेवता सगस जी बावजी सरदार सिंह

इस घटना के बाद कुँवर सरदारसिंह की पूजा शंभू निवास के पास कुँवरपदे के महल की छतरी में होती रही। आज भी लोग उनका स्थान देवतुल्य रखते हैं।

एक घटना ये भी सुनने में आती है कि महाराणा राजसिंह की मारवाड़ी रानी रतन कंवर के भाई अर्जुनसिंह गणगौर की सवारी देखने उदयपुर आए। महाराणा राजसिंह ने किसी बात पर नाराज होकर गणगौर के दिन जब सवारी निकली, तब अर्जुनसिंह को पिछोला झील के बीच पानी में गिराकर उनकी हत्या कर दी।

महाराणा राजसिंह द्वारा की गई इन सभी हत्याओं का वर्णन तो पढ़ने में आता है, लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता कि कौनसी घटना कितनी सत्य है। इनमें से अधिकतर बातें सुनी-सुनाई हैं, लेकिन उस दौर से ही कुंवर सरदारसिंह, कुँवर सुल्तानसिंह, अर्जुनसिंह आदि को सगस जी बावजी मानकर पूजा होती आई है, इसलिए मेरे विचार से ये घटनाएं मोटे रूप से सत्य हैं, हां ये सम्भव है कि हत्याओं के कारण मूल कहानियों से कुछ अलग रहे हों।

ऊपर लिखी हुई हत्याओं में से कवि, रानी और पुरोहित की हत्याएं उचित ही लगती हैं, परन्तु सुल्तानसिंह और अर्जुनसिंह की हत्या का मूल कारण पता नहीं लगा है। सुल्तानसिंह की हत्या का अवश्य ही कोई बड़ा कारण रहा होगा, क्योंकि मामूली बात पर कोई शासक अपने ज्येष्ठ पुत्र की हत्या नहीं कर सकता। बहरहाल, यदि क्रोध पर नियंत्रण ना हो, तो अनर्थ करवाने के लिए कुछ पल ही पर्याप्त होते हैं।

लोकदेवता सगस जी बावजी सुल्तान सिंह

महाराणा राजसिंह ने अपने द्वारा हुई हत्याओं का पश्चाताप करने के लिए ब्राह्मणों से पूछा, तो ब्राह्मणों ने ये तीन उपाय बताए :- 1) सूखे पीपल के पेड़ में बैठकर आग में जल मरना चाहिए। 2) किसी लड़ाई में लड़कर मर जाना चाहिए। 3) कोई एक बड़ा तालाब बनवाना चाहिए।

महाराणा राजसिंह ने पहला उपाय तो खारिज कर दिया, दूसरे उपाय के लिए कहा कि जब लड़ाई होगी तभी कुछ हो सकता है। महाराणा राजसिंह ने तीसरा उपाय चुना, क्योंकि 1661 ई. में मेवाड़ में भीषण अकाल भी पड़ा, जिसके कारण लोगों का जीवन प्रभावित होने लगा।

महाराणा ने विचार किया कि इससे बढ़िया कार्य और क्या होगा कि जनता की भलाई भी हो जाए और पश्चाताप भी। फिर महाराणा राजसिंह ने ऐसा तालाब बनवाया, जिसका लाभ आज तक राजसमंद और उसके आसपास की जनता ले रही है। अगले भाग में इसी राजसमंद झील के निर्माण का वर्णन किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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