महाराणा राजसिंह व औरंगजेब के बीच उपहारों का आदान-प्रदान हुआ करता था। महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब को उत्तराधिकार संघर्ष के दौरान एक हज़ार सैनिकों की फ़ौजी मदद भी उपलब्ध करवाई थी। लेकिन औरंगज़ेब के बादशाह बनने के बाद मामला अलग हो गया, क्योंकि जिस तरह औरंगज़ेब अपने मज़हब के प्रति कट्टर था, महाराणा राजसिंह भी अपने धर्म पर उतने ही अधिक दृढ़ थे।
1660 ई. में एक घटना ऐसी घटी, जिससे औरंगज़ेब और महाराणा राजसिंह के बीच वैमनस्य का सूत्रपात हुआ। किशनगढ़ के राजा रुपसिंह राठौड़ का देहांत 1658 ई. में हुआ, तब इनके बेटे मानसिंह वहां के राजा बने।
राजा मानसिंह की बहन चारूमति बाई की खूबसूरती के किस्से सुनकर औरंगजेब ने मानसिंह से कहा कि हम तुम्हारी बहिन से शादी करेंगे। मानसिंह न चाहते हुए भी बादशाह को मना न कर सके। जब चारूमति बाई को यह बात पता चली, तो उन्होंने अपनी माता और भाई से कहा कि यदि ऐसा हुआ, तो मैं अन्न-जल का त्याग करके अपने प्राण त्याग दूंगी।
राजा मानसिंह ने अपने कुटुम्ब के लोगों से बातचीत कर फैसला किया कि मुगल बादशाह के खिलाफ जाने की बात सिर्फ मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के ही बस की बात है। राजा ने बहन से कहा कि तुम खुद महाराणा को पत्र लिखो, इससे महाराणा के चित्त पर प्रभाव पड़ेगा और वे मना नहीं करेंगे।
चारुमति बाई ने पत्र में लिखा कि “हे एकलिंगनाथ के दीवान, जिस प्रकार भीष्म राजा की बेटी रुक्मिणी को ब्याहने को दुष्ट राजा शिशुपाल चढ़ आया और रुक्मिणी की अर्जी जाने पर श्रीकृष्ण द्वारिका से चढ़े और शिशुपाल को हराकर रुक्मिणी को ले आए, उसी प्रकार मुसलमान बादशाह आलमगीर के पंजे से मुझको छुड़ाइये, मेरा धर्म व प्राण रखकर विवाह करके ले जाइए। यदि आप देर करेंगे, तो मैं विष खाकर मरूँगी और ये अपराध आपके सिर रहेगा।”
इस पत्र के साथ ही एक और पत्र राजा मानसिंह राठौड़ ने महाराणा को लिखा कि “यदि आप हमारी इच्छा से चारुमति को ले जायेंगे, तो औरंगजेब हमें जीवित नहीं छोड़ेगा। आप अपनी फौज के साथ यहां आकर हमें कैद कर चारुमति से विवाह करके ले जाइयेगा, जिससे की बादशाह को हम पर शक ना हो”
एक ब्राह्मण के हाथों ये संदेश उदयपुर भिजवाए गए, तो महाराणा राजसिंह ने दरबार बुलाकर इस विषय पर मंत्रणा की। इस बात पर विचार विमर्श हुआ कि ऐसा करने का अर्थ होगा औरंगज़ेब से सीधी टक्कर। परन्तु वार्ता के अंत में आखिरकार धर्म का पलड़ा भारी हुआ।
महाराणा राजसिंह ने दो वर्ष पूर्व किशनगढ़ वालों से हुई मांडलगढ़ की लड़ाई को लेकर हुआ वैमनस्य भुलाकर यह विवाह प्रस्ताव स्वीकार किया और फ़ौज समेत किशनगढ़ की ओर प्रस्थान किया। जैसा कि तय हुआ था, महाराणा ने राजा मानसिंह व उनके सहयोगियों को एक महल में बन्द किया व सबका आना-जाना बन्द करवाकर रानी चारुमति राठौड़ से विवाह कर उदयपुर पधारे।
किशनगढ़ के इतिहास में लिखा है कि मांडलगढ़ का किला, जो कि शाहजहां ने किशनगढ़ वालों को सौंपा था, महाराजा मानसिंह ने ये किला दहेज में महाराणा राजसिंह को भेंट किया। हालांकि ये तथ्य गलत है, क्योंकि महाराणा राजसिंह ने वे सभी परगने एक ही वर्ष में छीन लिए थे, जिनको छीनने की अनुमति औरंगज़ेब ने दी थी। राजप्रशस्ति में मांडलगढ़ का किला 1658 ई. में रूपनगर वालों को परास्त करके छीनना लिखा है।
जिन अहदी और नाजिर लोगों को औरंगज़ेब ने डोले लेकर किशनगढ़ जाने को कहा था, वे लोग खाली डोले लेकर लौट आए। इतने में देवलिया के रावत हरिसिंह सिसोदिया भी औरंगज़ेब के पास पहुंच गए और महाराणा राजसिंह की शिकायत कर दी।
रावत हरिसिंह से एक वर्ष पूर्व ही 1659 ई. में महाराणा राजसिंह ने जबरन अधीनता स्वीकार करवाई थी। इसलिए रावत हरिसिंह मन से महाराणा के खिलाफ थे। रावत हरिसिंह से सारी बात सुनने के बाद औरंगज़ेब का क्रोध सातवें आसमान पर था।
लेकिन औरंगज़ेब लाचार था। अगर वो इस वक्त लड़ाई करता, तो हर जगह बात फैल जाती और उसकी भारी बदनामी होती, इसलिए उसे विष का ये घूंट पीना पड़ा। लेकिन औरंगज़ेब ने महाराणा को सबक सिखाने के लिए गयासपुर व बसावर के परगने महाराणा से छीनकर रावत हरिसिंह को दे दिये।
औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह को पत्र लिखकर भेजा और कहलाया कि मेरे हुक्म के बिना तुमने किशनगढ़ जाकर शादी क्यों की। इसके अलावा औरंगज़ेब ने यह भी लिखा कि देवलिया का हरिसिंह बेकसूर है।
दरअसल औरंगज़ेब ने हुक्म के बिना शादी करने की बात इसलिए लिखी, क्योंकि जहांगीर ने एक आदेश जारी करवाया था, जिसके अनुसार उसकी सल्तनत में कोई भी राजा किसी अन्य राजघराने में विवाह करे, तो उसकी आज्ञा मुगल बादशाह से लेनी अनिवार्य होती थी।
महाराणा राजसिंह को इस बात पर क्रोध आया और उन्होंने देवलिया पर आक्रमण करने के लिए तैयारी शुरू कर दी, परन्तु सामन्तों द्वारा समझाने पर यह विचार त्याग दिया और कूटनीति से काम लेते हुए औरंगज़ेब को एक खत लिखा।
यह खत ऐसे ज़बरदस्त तरीके से लिखा गया था कि औरंगज़ेब इसका जवाब देने की स्थिति में भी न रहा। यह खत फ़ारसी में लिखा गया था, जिसकी उसी ज़माने की नकल को ग्रंथ वीरविनोद में हूबहू लिखा गया था, जो कुछ इस तरह है :-
“आदाब व अल्काब के बाद अर्ज़ है कि सुबह शाम आपकी उम्र, दौलत और बादशाहत की ख़ैरियत मुद्दत तक बरकरार रहने की दुआ ईश्वर से करता रहता हूँ कि वह हर तरह से आपका मर्तबा बलन्द करे। जो बुज़ुर्गी का फ़र्मान बहुत मिहरबानियों से मेरे पास आया, उसका ताजीम के साथ इस्तिकबाल करके तसलीम और ताजीम के साथ दोनों जहां की बुज़ुर्गी (बड़प्पन) हासिल की।
उसमें लिखा था कि बादशाही हुक्म के बग़ैर शादी के वास्ते कृष्णगढ़ गया, जो जाति बंदगी से दूर दिखलाई दिया। सो क़िबले दिन और दुनिया के सलामत, राजपूतों का रिश्ता सदा से ही राजपूतों के साथ होता आया है और इस सूरत में कोई मनाही भी जानने में नहीं आई।
पहिले राणा (राणा सांगा) भी पंवारों के साथ अजमेर के पास ब्याहे थे, इसी सबब से मैंने भी हुक्म की दर्ख़्वास्त नहीं की और न कोई बादशाही मुल्क में फ़साद पैदा हुआ, अगर ऐसा कोई फसाद हमसे पैदा हुआ हो तो अर्ज़ करें।
मैंने आपकी शाहज़ादगी के मुबारक वक़्त से ही अपनी साफ़ नियति के साथ जहान में ख़ास इनायतों और दौलत में तरक्की पाने की गरज से बुजुर्गी पाने की उम्मीद रखी है। इसके अलावा बुज़ुर्ग फ़र्मान में ये भी लिखा था कि हरिसिंह बेकसूर था, इस ख़ातिर आपने उसको गयासपुर और बसावर के परगने इनायत कर दिए।
अकबर और जहांगीर बादशाह के ज़माने से ही देवलिया मेरे बाप दादों की हुकूमत में था, शाहजहां के वक्त में दूसरी तरह हुआ, वह भी अर्ज़ में पहुंचा होगा। भाई अरिसिंह के हाथों मैंने अर्ज़ियाँ भिजवाई थीं, तब हुक्म सादिर हुआ कि हुक्म बादशाहों का सिकन्दर की दीवार के मानिंद मज़बूत है, हरगिज़ नहीं बदलेगा, ख़ातिर जमा से कब्ज़ा करे।
(अर्थात जब महाराणा राजसिंह ने देवलिया, बसावर, गयासपुर आदि परगने औरंगज़ेब से मांगे तब औरंगज़ेब ने डींगें हांकते हुए कहा था कि मैंने ये परगने तुम्हारे नाम कर दिए, अब इन पर हमला करके कब्ज़ा कर लो, मेरा हुक्म सिकन्दर की दीवार की तरह है जो कभी नहीं बदलेगा।)
बहुत से बादशाही हुक्मों के मुवाफिक मैंने अपने राजपूतों को उन परगनों में भेजा, जिन पर हरिसिंह ने हुक्म के बर्ख़िलाफ बिना सोचे बदजाती से परगनों की रअय्यत (प्रजा) को गुमराह किया और थोड़े दिनों के बाद वह अपने परगनों को उजाड़कर खुद भी उठ गया और जाते वक्त वह (हरिसिंह) अपने आदमियों को वहां छोड़ गया कि इस जगह को हरगिज़ आबाद न होने देवें, तब मैंने एक फ़ौज वहां भेजी।
आप हरिसिंह को बेक़सूर कहते हैं, पर हम आपको बता दें कि वह बेवकूफ़ अपनी रअय्यत को उजाड़कर पहाड़ों में फिरता था। उसने सियाली (सर्दी की फ़सलें) और उन्हाली (गर्मी की फ़सलों) को खराब करके अपनी रअय्यत को परेशान किया। उसने दोनों फसलों को इस क़दर खोया कि परगनों का एक दाम भी मेरे हाथ न आया।
उस शख्स (हरिसिंह) की अजब नेक बख्ती है कि जो हुक्म से खिलाफ करे उसको ऐसा हुक्म हो और वह शख्स (महाराणा राजसिंह) जो कि दौलत ख्वाही में कुर्बान हुआ हो, उसको ऐसा हुक्म हो। (अर्थात जिस हरिसिंह ने औरंगज़ेब की एक बात नहीं मानी, उसको परगने दिए गए और जिन महाराणा ने औरंगज़ेब की हर बात मानी, उनसे परगने छीन लिए गए)।
इस सूरत में कोई इलाज नहीं, इंसाफ़ हुज़ूर के हाथ है। अब जहान के इंतिज़ाम की जड़ मज़बूत हुक्म पर है। बाकी उदयकर्ण चौहान इस मुआमले में जो भी अर्ज़ करे, क़ुबूल फ़र्माया जावे”
महाराणा राजसिंह का यह पत्र लेकर कोठारिया के उदयकर्ण चौहान औरंगज़ेब के पास गए। औरंगज़ेब मन से बहुत नाराज़ हुआ, लेकिन बात युद्ध तक नहीं पहुंची। महाराणा द्वारा मांगे गए बसावर और गयासपुर के परगने औरंगज़ेब ने नहीं लौटाए।
बहुत सी किताबों में सलूम्बर की हाड़ी रानी के बलिदान की घटना को चारुमती विवाह प्रकरण से जोड़कर कहा गया है कि इस दौरान औरंगज़ेब ने जो सेना भेजी, उसको परास्त करके महाराणा राजसिंह चारुमती को हर लाए और इस लड़ाई में सलूम्बर के रावत रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए। कर्नल जेम्स टॉड ने भी लिखा है कि औरंगज़ेब ने 2 हज़ार घुड़सवारों की सेना भेजी थी।
लेकिन ये वास्तविकता नहीं है। हमारे विचार से हाड़ी रानी की घटना 1679 से 1680 ई. के मध्य की है, जब औरंगज़ेब और महाराणा राजसिंह की सेनाओं में भयंकर युद्ध छिड़ा था। यदि महाराणा राजसिंह के पत्र को गौर से पढ़ा जाए, तो उसमें महाराणा ने साफ लिखा है कि इस विवाह प्रकरण में कोई फसाद नहीं हुआ है। इसके अलावा एक कारण ये भी है कि सलूम्बर के रावत रतनसिंह 1679 ई. तक भी जीवित थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)