औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह को एक फ़रमान भेजकर डूंगरपुर, बांसवाड़ा, देवलिया, गयासपुर, बसावर आदि परगने महाराणा के नाम कर दिए और कह दिया कि इन सब इलाकों पर आक्रमण करके इनको मेवाड़ के अधीन कर लो।
महाराणा राजसिंह ने उक्त फ़रमान की नकल इन सब परगनों के मालिकों तक पहुंचा दी, पर डूंगरपुर, बांसवाड़ा और देवलिया वालों ने मेवाड़ की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया।
मेवाड़ी फौज का बांसवाड़ा की तरफ कूच :- 16 अप्रैल, 1659 ई. को मंगलवार के दिन महाराणा राजसिंह ने अपने प्रधान फतहचन्द कायस्थ को 5 हज़ार की फ़ौज देकर बांसवाड़ा की तरफ भेजा। बांसवाड़ा में इस समय रावल समरसी का राज था।
मेवाड़ की तरफ से इस सैन्य अभियान में कोठारिया के रावत रुक्मांगद चौहान, घाणेराव के दुर्जनसिंह राठौड़, सलूम्बर के रावत रघुनाथसिंह चुंडावत, भींडर के महाराज मुहकमसिंह शक्तावत, बेगूं के रावत राजसिंह चुंडावत, कानोड़ के रावत मानसिंह सारंगदेवोत, देसूरी के दलपत सोलंकी, कोठारिया के कुँवर उदयकर्ण चौहान, गिरधर शक्तावत, माधवसिंह सिसोदिया, ईडर के जोधसिंह राठौड़, महासिंह झाला, रावल रणछोड़दास आदि योद्धा शामिल थे।
मेवाड़ की इस फ़ौज में रणजंग नाम का एक हाथी भी था, जो युद्धों में माहिर था। जब यह फौज बांसवाड़ा पहुंची, तो बांसवाड़ा के रावल समरसी ने बिना लड़े ही सुलह कर ली। रावल समरसी ने महाराणा राजसिंह के लिए एक लाख रुपए फ़ौज खर्च के, दस गांव, देश दाण (चुंगी का अधिकार), एक हाथी और एक हथिनी महाराणा राजसिंह को भेंट स्वरूप भेजने के लिए तैयार कर ली और मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली।
प्रधान फतहचन्द कुछ दिन बांसवाड़ा में ठहरे और फिर रावल समरसी को साथ लेकर उदयपुर आए। महाराणा राजसिंह के सामने आकर अधीनता स्वीकार करने के बाद महाराणा ने खुशी से दस ग्राम और देश दाण छोड़ दिए अर्थात रावल समरसी को पुनः लौटा दिए और साथ में 20 हज़ार रुपए भी लौटा दिए।
मेवाड़ी फौज का देवलिया की तरफ कूच :- प्रधान फतहचन्द जिस फौज के साथ बांसवाड़ा गए थे, उसी फौज के साथ उदयपुर से कूच करके देवलिया की तरफ प्रस्थान किया। देवलिया पर इस समय हरिसिंह का राज था।
रावत हरिसिंह के पिता रावत जसवंतसिंह को महाराणा राजसिंह के पिता महाराणा जगतसिंह ने धोखे से मरवाया था। रावत हरिसिंह मेवाड़ी फौज के आगमन की खबर सुनकर बिना लड़े ही दिल्ली की तरफ चले गए। मेवाड़ की फौज ने देवलिया को तहस-नहस कर दिया।
रावत हरिसिंह की माता अपने पौत्र प्रतापसिंह को साथ लेकर फतहचन्द के साथ उदयपुर आईं और महाराणा राजसिंह को 5 हज़ार रुपए व एक हथिनी भेंट की। महाराणा ने उनसे कहा कि हरिसिंह देवलिया की तरफ आवे, तो उसको हमारे पास भेज देना।
डूंगरपुर के रावल गिरधरदास ने भी महाराणा राजसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। जुलाई, 1659 ई. में महाराणा राजसिंह ने पहाड़ी दौरा करने के लिए बहुत सी फ़ौज लेकर बांसवाड़ा की तरफ प्रस्थान किया। बांसवाड़ा के रावल समरसी ने महाराणा राजसिंह की बहुत खातिरदारी की।
इन्हीं दिनों देवलिया के रावत हरिसिंह औरंगज़ेब के पास पहुंचे और मदद की गुहार लगाई, परन्तु उन दिनों औरंगज़ेब खुद अपने भाइयों से लड़ाई में उलझा हुआ था और उसको महाराणा राजसिंह का सहयोग भी प्राप्त था।
वह रावत हरिसिंह की मदद करके महाराणा से बिगाड़ नहीं करना चाहता था, इसलिए रावत हरिसिंह की वहां कोई सुनवाई नहीं हुई। रावत हरिसिंह देवलिया लौट आए, तो खबर मिली कि महाराणा राजसिंह पहाड़ी दौरे पर हैं और जल्द ही बसावर की तरफ फौज लेकर चढ़ाई करेंगे।
रावत हरिसिंह सिसोदिया ने घबराकर सादड़ी के राज सुल्तान सिंह झाला, बेदला के राव सबल सिंह चौहान, सलूम्बर के रावत रघुनाथ सिंह चुंडावत और भींडर के महाराज मुहकम सिंह शक्तावत के ज़रिए महाराणा राजसिंह से सुलह हेतु बातचीत तय करवाई।
वास्तव में रावत हरिसिंह द्वारा औरंगज़ेब के पास जाना और फिर लौटकर मेवाड़ के कुछ सामन्तों के ज़रिए महाराणा से बातचीत करवाना यूं ही नहीं था। रावत हरिसिंह को भय था कि कहीं मुझको भी मेरे पिता की तरह धोखे से मरवा न दिया जावे।
जब रावत हरिसिंह को हर तरह से तसल्ली हो गई, तब वे महाराणा राजसिंह के सामने हाजिर हुए और गयासपुर व बसावर के परगनों का दावा छोड़कर महाराणा की अधीनता स्वीकार करते हुए 50 हज़ार रुपए महाराणा को भेंट किए।
इस तरह महाराणा राजसिंह ने अप्रैल, 1659 ई. से अगस्त, 1659 ई. तक मात्र 5 महीनों में डूंगरपुर, बांसवाड़ा, देवलिया, गयासपुर, बसावर को अपने अधीन कर लिया। फिर महाराणा राजसिंह फौज समेत उदयपुर लौट आए।
महाराणा राजसिंह ने सन्तू के मगरे में एक ही तीर में सांभर मार गिराया, जिसकी याद में महाराणा ने उसी स्थान पर एक स्तंभ बनवाकर प्रशस्ति खुदवाई।
महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब को खुश करने के लिए उदयकर्ण चौहान को उपहारों के साथ वहां भेजा। उदयकर्ण चौहान ने दिल्ली पहुंचकर 9 सितंबर, 1659 ई. को महाराणा राजसिंह की तरफ से औरंगज़ेब को चांदी से सुसज्जित एक हाथी व हथिनी, जवाहरात आदि भेंट किए।
6 दिसम्बर, 1659 ई. को औरंगज़ेब ने उदयकर्ण चौहान को एक घोड़ा भेंट किया और साथ में महाराणा राजसिंह के लिए सर्दी के मौसम में पहनने की एक खिलअत भिजवाई।
1660 ई. में महाराणा राजसिंह की सुंदर नाम की एक खवासण ने पारड़ा गांव के पास सुंदर बाव नामक एक बावड़ी बनवाई, जिसकी प्रतिष्ठा में महाराणा ने गोविंदराम व्यास व बलभद्र व्यास को भवाणा गांव में 72 बीघा जमीन दी। इस ज़मीन पर गोविंदराम की माता ने एक बावड़ी व लाली की सराय का निर्माण करवाया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)