1658 ई. में औरंगज़ेब ने धरमत व सामूगढ़ के युद्धों में अपने भाई दाराशिकोह को शिकस्त दी। फिर अपने पिता शाहजहां को कैद करके मुगल बादशाह के तख़्त पर बैठा। तख़्त पर बैठने के कुछ समय बाद अपने भाई मुराद को भी बंदी बना लिया। बाद में मुराद को कैदखाने में ही मरवाकर उसकी लाश वहीं दफना दी।
हालांकि औरंगज़ेब ने अभी अपने भाइयों दाराशिकोह और शुजा को पूरी तरह शिकस्त नहीं दी थी। औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह के लिए एक फ़रमान भिजवाया। इस फरमान में जो कुछ भी लिखा था, उसका हूबहू वर्णन कुछ इस तरह है :-
“मामूली आदाब और अल्काब के बाद मालूम हो, इन दिनों जो अर्ज़ी साफ़ खैरख्वाही और उम्दा ताबेदारी से हमारी जबरदस्त दरगाह में भेजी थी, बुज़ुर्ग नज़र से गुज़रकर हमारी मिहरबानी बढ़ने का सबब हुई। उसमें बाज़ी जागीरों के मिलने की उम्मीद की गई है, जो पहले दिनों में उस खैरख्वाह के बाप राणा जगतसिंह के इलाके में थी।
(अर्थात महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब के पास एक अर्ज़ी भेजकर कहलाया था कि हमारे जो परगने शाहजहां ने जब्त किए, वे हमको फिर से दिलाए जाएं)। निहायत मिहरबानी और बहुत खुशी के साथ जो हमको उस उम्दा नेक खैरख्वाह पर है, उस (महाराणा राजसिंह) का पहला मनसब जो पांच हजारी जात और पांच हजारी सवार था।
वह मनसब बढ़ाकर हमने छः हजारी जात और छः हजारी सवार और एक हजार सवार दो अस्पा सिह अस्पा मुकर्रर किया है। इसके सिवा 5 लाख रुपए इनाम के तौर पर भिजवाए हैं। (अर्थात 5 लाख रुपए औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह तक भिजवाए)।
परगने बदनोर और मांडलगढ़, जो एक मुद्दत से उस उम्दा खैरख्वाह ताबेदार से उतार लिए गए थे, उनमें पहिला जसवंत सिंह से और दूसरा रूपसिंह से उतार कर शुरू सियाली से आप (महाराणा राजसिंह) को इनायत किए गए हैं।
(अर्थात औरंगज़ेब ने बदनोर का परगना जसवंतसिंह से और मांडलगढ़ का परगना किशनगढ़ के महाराजा रूपसिंह राठौड़ से लेकर महाराणा राजसिंह को दे दिए हैं, अब महाराणा राजसिंह को चाहिए कि ये दोनों परगने हमले करके छीन लेवे)।
परगने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, बसावर, गयासपुर, जो मुद्दत से राणा जगतसिंह की हुकूमत से अलहदा (अलग) हो गए थे, गिरधर पूंजा और हरिसिंह देवलिया वग़ैरह से इसी फसल से उतारकर मनसब की ज्यादा तनख्वाह और इनाम के तौर पर आपको इनायत किए हैं।
(अर्थात ये परगने भी औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह को दे दिए, ये भी हमले करके छीन लिए जावें)। अब मुनासिब है कि हमारी बुज़ुर्ग मिहरबानियों को अपने हाल और उम्मीद के मुवाफिक जानकर इस बड़ी मिहरबानी का शुक्र अदा करे और लिखी हुई जागीरों पर कब्ज़ा करके हमेशा ताबेदारी और खैरख्वाही और ख़िदमत गुज़ारी के तरीके पर अपने कदम को मज़बूत रखे।
हमारे पाक हुक्मों की तामील को बलन्द मिहरबानियों के ज्यादा होने का सबब समझे। कुँवर (महाराणा राजसिंह के पुत्र) उस उम्दा खैरख्वाह का बेटा और उसका भाई (महाराणा राजसिंह के भाई अरिसिंह) हमारी बादशाही दरगाह में पहुंचे।
इन दोनों ने हाज़िरी की बुजुर्गी हासिल करके बादशाही मिहरबानियों का मौका पाया। उस उम्दा सरदार की अर्ज़ के मुवाफिक उसके भाई को बहुत सी बुज़ुर्ग मिहरबानियों के साथ इज़्ज़त देकर जल्द वापस जाने की रुख़सत बख्शी जावेगी।”
इस प्रकार उत्तराधिकार संघर्ष के दौरान महाराणा राजसिंह और औरंगज़ेब के बीच पत्र व्यवहार होता रहता था। औरंगज़ेब का फ़रमान मिलते ही महाराणा राजसिंह ने बदनोर और मांडलगढ़ पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की। महाराणा यहीं नहीं रुके, उन्होंने टीका दौड़ की रस्म के तहत बादशाही मुल्क के बहुत से क्षेत्र भी लूट लिए।
दो बार अपने भाई से शिकस्त खाने के बाद शहज़ादा दाराशिकोह पंजाब से सिंध और कच्छ की तरफ़ होता हुआ गुजरात पहुंचा। वहां से औरंगज़ेब का फिर से सामना करने के लिए 23 फ़रवरी, 1659 ई. को सिरोही पहुंचा। सिरोही से दाराशिकोह ने एक ख़त महाराणा राजसिंह को लिखा। ये ख़त कुछ इस तरह था :-
“मामूली अल्क़ाब के बाद मालूम हो, हम लश्कर समेत सिरोही आ गए हैं और अजमेर पहुंचेंगे। हमने अपनी शर्म सब राजपूतों पर छोड़ी है और असल में सब राजपूतों के मेहमान होकर आए हैं। महाराजा जसवंत सिंह भी हमारी तरफ़ दोस्ती का इक़रार कर चुके हैं।
आप (महाराणा राजसिंह) हर किस्म की मिहरबानियों के लायक तमाम राजपूतों के सरदार हैं। इन्हीं दिनों में मालूम हुआ कि उस राजा (महाराणा राजसिंह) का बेटा उस (औरंगज़ेब) की तरफ़ मिल गया है, पर उस उम्दा राजा (महाराणा) से हमको यह उम्मीद है कि तमाम राजपूतों को साथ लेकर हमारे पास आ जावे कि सब मिलकर आला हज़रत (शाहजहां) को छुड़ावें।
यह नेकनामी उस उम्दा राजा के खानदान में युगों तक यादगार रहेगी। अगर आने में मुश्किल हो, तो अपने किसी रिश्तेदार को दो हज़ार अच्छे सवारों समेत हमारी ख़िदमत में भेज देवें कि मेड़ते में जल्द पहुंच जावें। हमारी मिहरबानी अपने हाल पर बहुत ज्यादा समझें।”
इस तरह औरंगज़ेब और दाराशिकोह दोनों ही महाराणा राजसिंह से फौजी मदद मांगते रहे और महाराणा राजसिंह दोनों तरफ का तमाशा देखते हुए औरंगज़ेब को हल्की-फुल्की मदद भेजते रहे।
महाराणा राजसिंह ने दाराशिकोह के ख़त का जवाब नहीं दिया, क्योंकि वे जानते थे कि दारा पहले ही दो बार हार चुका है और अब जबकि औरंगज़ेब की गद्दीनशीनी हो चुकी है, दारा का जीतना मुमकिन नहीं लगता।
1659 ई. – दौराई का युद्ध :- औरंगज़ेब दाराशिकोह से मुकाबले के लिए अजमेर की तरफ आ रहा था। इस समय मेवाड़ के कुंवर सरदारसिंह औरंगज़ेब के साथ थे। महाराणा राजसिंह को जैसे ही दाराशिकोह का खत मिला, वे समझ गए कि फिर से लड़ाई छिड़ने वाली है, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को उदयपुर बुलाना चाहा।
जब औरंगज़ेब फतहपुर पहुंचा, तब वहां महाराणा राजसिंह के द्वारा भेजी गई 2 जड़ाऊ तलवारें और मीनाकारी के काम सहित एक जड़ाऊ बरछा औरंगज़ेब को भेंट हुआ। महाराणा राजसिंह ने खत में कहा कि कुँवर सरदार सिंह को वापिस उदयपुर भेज दिया जावे। औरंगज़ेब ने कुँवर सरदार सिंह को खिलअत, मोतियों की सुमर्णी, जड़ाऊ छोगा, एक हाथी, जरदोजी की झूल भेंट करके विदा किया।
औरंगज़ेब ने आमेर के मिर्ज़ा राजा जयसिंह की मदद से जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को अपनी तरफ मिला लिया, जिससे दाराशिकोह के हौंसले पस्त हो गए, पर दारा लड़ाई के जोश में बहुत नज़दीक आ गया था। लड़ाई में परास्त होकर दाराशिकोह भाग निकला।
कुछ दिन बाद दाराशिकोह, उसके बेटे और 2 बेटियों को कैद करके अपमानित किया गया। दाराशिकोह को बेड़ियों में जकड़कर एक मैली कुचैली छोटी सी हथिनी पर खुले हौदे में बिठाकर राजधानी की सड़कों पर घुमाया गया।
दारा शिकोह को कैद में ले जाकर मारने के बाद उसका सिर काटकर औरंगज़ेब के सामने लाया गया। औरंगज़ेब ने उसके सिर पर तीन बार तलवार से वार किया और फिर दारा की लाश को हाथी पर सवार करके फिर से जुलूस निकाला गया और फिर हुमायूं के मकबरे के नीचे एक गड्ढे में गढ़वा दिया।
औरंगज़ेब के इस कृत्य ने समूचे हिंदुस्तान को भयभीत कर दिया, क्योंकि जो अपने सगे भाई के साथ ऐसा कर सकता था, उसके लिए कोई और व्यक्ति क्या मायने रखता।
महाराणा राजसिंह स्वयं भी जानते थे कि औरंगज़ेब और उनका सामना एक न एक दिन जरूर होगा, क्योंकि महाराणा राजसिंह की फितरत किसी के दबाव में काम करने की नहीं थी और जब दो ताकतवर लोगों में से कोई एक को दबाने की कोशिश करे, तो संघर्ष होना ही है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
महाराणा राजसिंह इतने बड़े दूरदर्शीय मुगल कल्पना भी नहीं कर सकते
महाराणा जी की जय हो