शाहजहां ने चित्तौड़ के किले की दीवारें और कंगूरे तुड़वाकर महाराणा राजसिंह के क्रोध को चरम सीमा पर पहुंचा दिया। बादशाही फ़ौज के मेवाड़ आने के कारण प्रजा को तकलीफें उठाकर पहाड़ों में जाना पड़ा, ये सब महाराणा से सहन नहीं हुआ।
इसके अतिरिक्त शाहजहां ने मेवाड़ के पुर, मांडल, खैराबाद, मांडलगढ़, जहाजपुर, सावर, भणाय, फूलिया, बनेड़ा, हुरड़ा, बदनोर आदि परगनों को मेवाड़ से अलग करते हुए अजमेर सूबे का हिस्सा बना लिया।
आखिरकार महाराणा राजसिंह ने एक दिन अपने सामन्तों के साथ बैठकर इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया और तय किया कि “मेवाड़ में शाहजहां द्वारा करवाई गई अनुचित कार्रवाई का परिणाम सल्तनत को भुगतना ही पड़ेगा। भले ही सल्तनत बड़ी है, पर हमारे पुरखों ने भी इन सल्तनतों से बरसों तक संघर्ष किया है।”
महाराणा राजसिंह ने अपनी फ़ौज दुरुस्त की और सामन्तों को भी आदेश दिए गए कि जरूरत की फौज अपनी-अपनी जागीरों में तैनात करके बाकी फ़ौज के साथ फौरन उदयपुर आओ।
मांडलगढ़ पर महाराणा का आक्रमण :- शाहजहाँ ने मांडलगढ़ दुर्ग किशनगढ़ के राजा रुपसिंह राठौड़ को सौंप रखा था। राजा रूपसिंह ने राघवदास महाजन को मांडलगढ़ का किलेदार बना रखा था। 1657 ई. में महाराणा राजसिंह ने मांडलगढ़ पर आक्रमण करने के लिए एक फ़ौज भेजी।
किलेदार राघवदास महाजन मेवाड़ी फौज से मुकाबला करने आया। 1-2 दिन तक लड़ाई होती रही और आखिरकार राघवदास महाजन अपने बचे-खुचे सैनिकों को लेकर वहां से भाग निकला। मेवाड़ वालों ने इस महत्वपूर्ण दुर्ग पर अधिकार स्थापित किया। इसी प्रकार महाराणा राजसिंह ने बदनौर में तैनात मुगलों पर भी फ़ौज भेजकर विजय प्राप्त की।
महाराणा राजसिंह का विजय अभियान :- शाहजहाँ की तबियत खराब हुई और उसके चारों पुत्रों दाराशिकोह, औरंगज़ेब, मुराद व शुजा में उत्तराधिकार संघर्ष शुरू हो गया, जिसका फायदा महाराणा ने उठाया। महाराणा राजसिंह ने 18 अक्टूबर, 1657 ई. को दशहरा पूजन के बाद टीका दौड़ की रस्म पूरी करने के लिए फौज तैयार की और बादशाही मुल्क लूटने के लिए कमर कसी।
टीका दौड़ मेवाड़ में एक रस्म होती थी, जिसमें मेवाड़ के महाराणा ऐसे पड़ोसी राज्यों या क्षेत्रों को लूटते थे, जो उनके शत्रु होते थे। कोई शत्रु ना होने की स्थिति में मेवाड़ के ही भीलों को नाटकीय अंदाज़ में लूटकर रस्म पूरी की जाती थी।
टीका दौड़ की इस रस्म में केवल मुगल सिपाहियों को ही नहीं, बल्कि मेवाड़ के उन राजपूतों को भी सबक सिखाया गया, जिन्होंने मुगलों के साथ मिलकर मेवाड़ की बर्बादी करने में योगदान दिया। शुभ मुहूर्त के साथ महाराणा की सेना ने विजय की हुंकार भर दी।
नवम्बर, 1657 ई. में महाराणा राजसिंह ने बादशाही मुल्क लूटने के लिए अपनी जर्रार फौज के साथ उदयपुर से कूच किया। महाराणा राजसिंह सफर तय करके चित्तौड़ पहुंचे। चित्तौड़ की तलहटी व मालवे के लोग भी मेवाड़ की फौजी ताकत का हिस्सा बन गए। 4-5 माह तक महाराणा राजसिंह चित्तौड़गढ़ में ही रहे।
12 मई, 1658 ई. को महाराणा राजसिंह ने चित्तौड़ से कूच किया और खैराबाद को लूट लिया। फिर महाराणा ने पुर, मांडल व दरीबा को घेर लिया। इन जगहों पर शाहजहां ने अपने थाने बिठा रखे थे। यहां हुई लड़ाई में बादशाही फौजी टुकड़ियां परास्त हुईं, बहुत से मुगल मारे गए और बाकी ने जान बचाकर भागने में गनीमत समझी।
महाराणा राजसिंह ने पुर, मांडल व दरीबा के थानेदारों से 22 हज़ार रुपए दण्डस्वरुप (लूटकर) वसूल किए और शाही मुलाजिमों को मार-भगा कर अपने थाने बिठा दिए। फिर महाराणा राजसिंह ने फौज सहित बनेड़ा की तरफ कूच किया।
बनेड़ा के जमीदारों ने महाराणा से क्षमा मांगी, तो महाराणा ने उनको अपने अधीन कर लिया और उनसे 26 हज़ार रुपए वसूल किए। यहां से महाराणा राजसिंह ने शाहपुरा की तरफ कूच किया। शाहपुरा पर इस समय महाराणा राजसिंह के काका सुजानसिंह का अधिकार था।
सुजानसिंह महाराणा अमरसिंह के पौत्र व सूरजमल जी के पुत्र थे। बहुत ही अपमानजनक बात थी कि सुजानसिंह चित्तौड़ की मरम्मत खराब करने में सादुल्ला खां की फौज में शामिल थे। इसी वजह से महाराणा ने शाहपुरा को घेर लिया।
इस समय सुजानसिंह शाहपुरा में नहीं थे। वे शाहजहां द्वारा उज्जैन की तरफ भेजी गई शाही फ़ौज में शामिल थे। महाराणा राजसिंह ने शाहपुरा वालों से 22 हज़ार रुपए वसूल किए।
फिर महाराणा ने शाहपुरा से कूच करके सावर व जहाजपुर वालों से दंड वसूल किया। सावर में महाराणा उदयसिंह के पुत्र महाराज शक्तिसिंह के वंशज व जहाजपुर में महाराणा उदयसिंह के पुत्र जगमाल के वंशज थे। ये लोग महाराणा के आदेश नहीं मानते थे। फिर महाराणा ने केकड़ी पहुंचकर दंड वसूल किया।
केकड़ी में महाराणा जब दंड वसूल कर रहे थे, तभी दाराशिकोह ने अपने दूत को भेजकर महाराणा को चेतावनी दी कि शाही मुल्क को लूटना बन्द किया जावे, पर महाराणा ने विजय अभियान जारी रखा। इस दौरान मुगल शहज़ादों व महाराणा राजसिंह के बीच जो पत्र व्यवहार हुए, उनका वर्णन आगे के भागों में किया जाएगा।
महाराणा राजसिंह ने केकड़ी से कूच किया और मेरयूं नगर में पहुंचे। यहां के जागीरदार वीरमदेव थे, जो कि शाहपुरा वाले सुजानसिंह के भाई व शाहजहां के सिपहसालार थे। महाराणा राजसिंह ने मेरयूं नगर को जलाकर खाक कर दिया।
फिर महाराणा राजसिंह मालपुरा पहुंचे। मालपुरा बहुत ही समृद्ध कस्बा था, जहां उस दौरान कोई गौड़ ज़मीदार था।महाराणा राजसिंह ने मालपुरा वालों से जमकर दंड वसूल किया। महाराणा यहां 9 दिनों तक पड़ाव डालकर ठहरे और इस दौरान तकरीबन 50 लाख रुपए वसूल किए।
टोडा के राजा रायसिंह सिसोदिया भी सादुल्ला खां की फौज के साथ चित्तौड़ की मरम्मत खराब करने में शामिल थे। राजा रायसिंह महाराणा अमरसिंह के पौत्र व राजा भीम के पुत्र थे। राजा रायसिंह ने चित्तौड़ की खराबी में शामिल होकर अपने महान पिता का नाम खराब किया।
महाराणा राजसिंह ने अपने प्रधान कायस्थ फतहचन्द को 3 हज़ार घुड़सवार देकर टोडा पर भेजा। उस समय राजा रायसिंह वहां नहीं थे, उनको शाहजहां ने मालवा की तरफ भेजा था। मेवाड़ी फौज टोडा में फसलें नष्ट करती हुई किले तक पहुंची और टोडा के महलों को घेर लिया। राजा रायसिंह की माता ने 60 हज़ार रुपए फतहचन्द को देकर घेराबंदी उठवाई।
महाराणा राजसिंह ने टोंक, मानपुरा, सांभर, लालसोट, चाटसू, हमीरपुर, रणथम्भौर, बगरु, बयाना व अजमेर के जागीरदारों से दंड वसूल किया। चित्तौड़ की खराबी का बदला लेने के लिए महाराणा राजसिंह ने अजमेर के ख्वाजा की दरगाह ध्वस्त करने का विचार किया, पर आमेर के मिर्ज़ा राजा जयसिंह कछवाहा के निवेदन पर ये विचार त्याग दिया।
महाराणा राजसिंह टीका दौड़ की रस्म पूरी कर उदयपुर पहुंचे और इस धूमधाम की खबर बादशाह शाहजहाँ के कानों में पहुंची। शाहजहां के साथ-साथ उसके सभी शहज़ादों तक भी महाराणा राजसिंह के विजय अभियान की खबर पहुंच गई। महाराणा राजसिंह ने रस्म के बहाने शाहजहां से भारी प्रतिशोध लेकर अपनी आत्मग्लानि दूर की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)