मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 9)

औरंगज़ेब द्वारा महाराणा राजसिंह को लिखा गया पत्र हूबहू यहां पोस्ट किया जा रहा है :- “सरकारी नौकर इन्द्रभट्ट और अपने नौकर ब्रजनाथ के साथ जो अर्ज़ी भेजी थी, नज़र से गुज़री और तमाम बातें, जो कि उसके साथ कहलाई थीं, अर्ज़ मुबारक में पहुंची और मिहरबानियों की उम्मीद का हाल जाहिर हुआ।

(अर्थात औरंगज़ेब के सेवक इन्द्रभट्ट व महाराणा राजसिंह के सेवक ब्रजनाथ ने महाराणा की अर्ज़ियाँ औरंगज़ेब तक पहुंचाई)। अगर ख़ुदा ने चाहा, तो उन कारगुज़ारियों के पीछे, जिनके लिए वह उम्दा सरदार मुकर्रर हुआ है।

जैसा कि इकरार किया, अपने बेटे (महाराणा राजसिंह के पुत्र) को अच्छी जमइयत (फ़ौज) के साथ बुज़ुर्ग दरगाह (औरंगज़ेब की सेना) में भेजे और दोस्तों की मर्ज़ी के मुवाफिक काम हो, तो जैसा कि उस (महाराणा राजसिंह) ने अर्ज़ किया, राणा सांगा से भी ज्यादा हमारी तरफ से इनायत होकर कोई दर्जा हिमायत और रिआयत का उस खैरख्वाह के वास्ते न छोड़ा जाएगा।

बेफिक्री के साथ बन्दगी के रास्ते पर साबित कदम रहकर अपने बेटे को अच्छी जमइयत के समेत हुजूर में भेजे कि नर्मदा से लश्कर उतरने के बाद ख़िदमत में हाजिर हो और आप उस ख़िदमत पर कि जिसका इकरार किया, तैयार हो। परवरिश के तरीके से एक जड़ाऊ तुर्रा उस उम्दा सरदार (महाराणा राजसिंह) के लिए इनायत किया गया। हमारी खास इनायत को अपनी बाबत रोज़-ब-रोज़ ज्यादा समझे।”

महाराणा राजसिंह

15 अप्रैल, 1658 ई. – धरमत का युद्ध :- औरंगज़ेब और उसके भाई मुराद की फ़ौजें मिल गईं और ये लोग उज्जैन में नर्मदा नदी के करीब आए, जहां शाहजहां की तरफ से जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ के नेतृत्व में मुगल सेना उनसे लड़ने आ पहुंची। शाहजहां की तरफ से भेजी गई फौज के सेनापति तो महाराजा जसवंतसिंह थे, पर ये फ़ौजी दस्ता मुख्य रूप से दाराशिकोह का था।

औरंगज़ेब और मुराद की सेनाओं ने जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ की कमान वाली राजपूतों और मुगलों की मिली-जुली फौज को शिकस्त दी, तो उसके बाद औरंगज़ेब ने महाराणा राजसिंह के नाम एक ख़त लिखकर धरमत की लड़ाई का वर्णन किया और महाराणा से फौजी मदद मांगने की कोशिश की, ये ख़त हूबहू कुछ इस तरह है :-

“उम्दा सर्दार, बराबरी वालों से बेहतर, बलन्द इरादा बहादुरों का पेशवा राणा राजसिंह बेहद मिहरबानी और ख़ास तवज्जु से ख़ुश होकर जाने कि नर्मदा से लश्कर पार उतरने के बाद उज्जैन से छः कोस के फासिले पर जाकर हमने राजा जसवंतसिंह को कहलाया कि हम तो आगरा की तरफ जा रहे हैं

और उसको (राजा जसवंतसिंह को) चाहिए कि वह सूबे मालवा से, जो उसके नाम मुकर्रर हुआ, ख़बरदार होकर लड़ाई व झगड़े का ख्याल, जिसकी वो ताकत नहीं रखता, हरगिज़ न करे। लेकिन उस (राजा जसवंतसिंह) ने ख़राब इरादे से अपनी हैसियत से ज्यादा कदम बढ़ाया और फ़ौज तैयार करके लड़ाई को सामने आया।

इसलिए हम भी राजा जसवंतसिंह के गुरूर की सज़ा और अदब देने के लिए फतहमंद लश्कर को दुरुस्त करके उसका फसाद दूर करने के लिए तैयार हुए। ख़ुदा की बुजुर्गी से उस तरफ़ के लश्कर को जो बड़े तोपखाने के सिवाय बीस हज़ार सवार से ज़्यादा था, दो पहर के अर्से में साफ़ शिकस्त दी।

उस लश्कर के 6-7 हजार सवार जंग के मैदान में मारे गए। इस बड़ी फतह का शुक्र किसी तरह हमसे अदा नहीं हो सकता। यक़ीन है कि उम्दा खैरख्वाह राणा राजसिंह इस नेक ख़बर से खुशी हासिल करेगा और आप (महाराणा राजसिंह) उदयपुर से कहीं नहीं जाएगा।

अब मिहरबानी के तरीके से जो परगने उस (महाराणा) के इलाके में से निकालकर जागीरदारों को तनख्वाह में दे दिए गए थे, उस उम्दा खैरख्वाह को इनायत किए गए, उन पर जल्दी कब्ज़ा कर ले। (अर्थात महाराणा राजसिंह ने फौजी मदद देने के बदले में मेवाड़ के 4 परगने जो शाहजहाँ ने छीने थे, वो वापिस मांगे, तो औरंगजेब ने कहा कि मेरी तरफ से वो परगने आपके हुए, अब वहां फौज भेजकर कब्ज़ा कर लो)।

जिस वक़्त उस (महाराणा) का बेटा मुनासिब जमात के साथ हमारी ख़िदमत में हाज़िर होगा और ज़माना दोस्तों के मतलब के मुवाफिक हो, तो उन मेहरबानियों से जिनका की उसकी अर्ज़ के मुवाफिक पहले इक़रार किया गया है, सर्बलन्दी दी जावेगी। इस मुआमले में पूरी ताक़ीद जानकर हुक्म के मुवाफिक अमल रखे और किसी तरह देर और बहाना न करे।”

औरंगज़ेब

इस प्रकार औरंगज़ेब ने बार-बार महाराणा राजसिंह को पत्र लिखकर अच्छे व्यवहार बनाने की कोशिश की व फौज की मांग भी जारी रखी। बहरहाल, धरमत की इस बड़ी लड़ाई में रतलाम नरेश महाराजा रतनसिंह राठौड़, कोटा नरेश राव मुकुंद सिंह हाड़ा, शाहपुरा नरेश सुजानसिंह सिसोदिया आदि शाहजहां की फ़ौज की तरफ से लड़ते हुए काम आए।

8 जून, 1658 ई. को औरंगज़ेब ने आगरा के किले पर कब्ज़ा कर लिया और अपने पिता शाहजहां को क़ैद कर लिया। 13 जून, 1658 ई. को औरंगज़ेब ने आगरा से दिल्ली की ओर कूच किया।

जब महाराणा राजसिंह को औरंगज़ेब का ख़त मिला, तो महाराणा ने अपने पुत्र कुँवर सुल्तान सिंह और भाई अरिसिंह को बधाई संदेश के साथ औरंगज़ेब के पास भेजा। औरंगज़ेब का पड़ाव सलीमपुर में था, जहां 21 जून, 1658 ई. को कुँवर सुल्तानसिंह की उससे भेंट हुई।

औरंगज़ेब ने कुँवर सुल्तान सिंह को खिलअत, मोतियों की कंठी, सरपेच, जड़ाऊ छोगा भेंट किया और महाराणा राजसिंह के लिए कीमती जड़ाऊ सरपेच भिजवाया। कुँवर सुल्तानसिंह औरंगज़ेब के साथ-साथ मथुरा तक गए। मथुरा में औरंगज़ेब ने कुंवर को सरपेच और जड़ाऊ और तुर्रा भेंट किया।

मथुरा के पास औरंगज़ेब ने अपने भाई मुराद को धोखे से बंदी बना लिया और उसको ग्वालियर के किले में भेज दिया। औरंगज़ेब ने मथुरा के मुकाम पर महाराणा राजसिंह के भाई अरिसिंह को एक जड़ाऊ धुकधुकी भेंट की। औरंगज़ेब ने कुँवर सुल्तान सिंह को मथुरा से विदा कर दिया।

अरिसिंह औरंगज़ेब के साथ रायरायां की सराय तक गए, जहां औरंगज़ेब ने 7 अगस्त, 1658 ई. को अरिसिंह को एक खिलअत, जड़ाऊ जमधर, मोतियों की कंठी व एक घोड़ा भेंट करके विदा किया। औरंगज़ेब ने अरिसिंह के साथ महाराणा राजसिंह के लिए एक उम्दा खिलअत, फ़रमान, 5 लाख रुपए, एक हाथी और एक हथिनी भिजवाई।

महाराणा राजसिंह

औरंगज़ेब दिल्ली पहुंचा, जहां 21 जुलाई, 1658 ई. को शालिमार बाग में सिंहासन पर बैठा और आलमगीर गाज़ी के नाम से स्वयं को मुगल बादशाह घोषित किया। इस बादशाह का मानना था कि “तख़्त तक जाने के लिए अपनों की लाशों की सीढियां बनाकर चलना पड़ता है।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. जामा कोलर
    August 26, 2021 / 3:57 am

    धन्य हैं मेवाड़ जो महाराणा राजसिंह जैसे शासक मिला
    इतना महान इतिहास है हमारी पुज्यभुमी भारत का
    आप को कोटि कोटि प्रणाम है जो हमें सत्य इतिहास से हमारी अन्तरआत्मा को सत्य से वाकिफ करा रहे हो🙏🙏

  2. श्रीधर पाटिल गावंडे, अचलपुर, अमरावती, महाराष्ट्र
    September 20, 2021 / 3:40 pm

    सभी हिंदु राणाओंने दिल्लिके तख्तपर विराज होनेकी तमन्ना दीलमे नही रखी, मुस्लिम शासकोंका एकजुट होकर मुकाबला करते तो बहोत मुश्कील काम नही था

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