महाराणा राजसिंह द्वारा मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्तों का उल्लंघन करने व मुगलों की बर्ख़िलाफी करने के कारण शाहजहां ने सादुल्ला खां को 30 हज़ार की फौज देकर चित्तौड़ के किले में तोड़-फोड़ करने के लिए भेजा और साथ ही फ़ारसी के विद्वान मुंशी चंद्रभान ब्राह्मण को महाराणा को समझाने के लिए भेजा।
चंद्रभान ने कुछ दिन उदयपुर में रहकर वहां जो कुछ भी देखा या महाराणा से कहा वो सब 4 अलग-अलग पत्रों में लिखकर शाहजहां के पास भेजा। मुंशी चंद्रभान के सभी पत्र ‘इंशाए ब्राह्मण’ नाम से संकलित हैं। इन चार में से पहला पत्र यहां हूबहू पोस्ट किया जा रहा है :-
“ताबेदार (बादशाह का अधीनस्थ अर्थात मुंशी चंद्रभान) दशहरे के दिन हुज़ूर (शाहजहां) से रुखसत होना चाहता था कि एक हफ़्ते के अंदर मकसद ए मकाम पर पहुंचे, लेकिन राजा के आदमियों की हमराही में तैनाती हुई थी। ताबेदार सफ़र तय करके सोमवार के दिन 21 जिल्हिज सन 28 जुलूस को उदयपुर पहुंचा।
राणा राजसिंह पेशवाई के लिए एक मामूली जगह पर आया और बुजुर्ग फ़रमान (शाहजहां का फ़रमान) व जड़ाऊ सरपेच से सरबलन्द हुआ (अर्थात चंद्रभान ने जड़ाऊ सरपेच भेंट किया)। मामूली अदब की रस्मों के बाद हुज़ूर के इस अदना ताबेदार को मोतबर जानकर दूसरे कासिदों के बर्ख़िलाफ बगलगिरी से मुलाकात की और बहुत ताजीम से पेश आया। (अर्थात महाराणा ने चंद्रभान को विशेष समझकर अपने साथियों से थोड़ा दूर लेजाकर बात की)
सवारी में बातें करता हुआ मुझको अपने महल ले गया और वहां से रुख़सत किया। दूसरे दिन एकांत में बुलाकर अपने ख़ास लोगों के सामने उस (राणा) ने मुझसे हुज़ूरी हुक्मों का मजमून पूछा और अपने कुसूरों से ख़बरदार होना चाहा।
ताबेदार ने वे हुक्म जो हुज़ूर (शाहजहां) की पाक ज़बान से सुने थे, बहुत साफ़ और नर्म लफ़्ज़ों में उसको समझा दिए। राणा से कहा कि अब होशियारी के साथ बातें सुनने का वक्त है, ज़रा ज़ाहिरी बातिनी हवास दुरुस्त करके सुनना जुरूर है, अपने और अपने बाप (महाराणा जगतसिंह) की खताओं (कुसूर) पर इत्तिला (जानकारी) हासिल करनी चाहिए।
राणा से कहा कि अव्वल जो कुसूर तुम्हारे और तुम्हारे बाप की तरफ़ से ज़ाहिर हुआ, वह किले चित्तौड़ का बनाना है और हक़ीक़त में जबकि बादशाही फौज (अकबर के समय) ने किला फतह करके बिल्कुल बर्बाद कर दिया और ये शर्त क़ायम हुई (जहांगीर के समय) कि किला किसी तरह से भी दुरुस्त न किया जावे।
इस हुक्म का कोई लिहाज़ न रखा। इस बात की ख़राबी से जो आंख ढंककर किले की दुरुस्ती शुरू कर दी, वह अक्ल के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। तुमसे और तुम्हारे बाप से बड़ा कुसूर हुआ। बादशाही दर्गाह में इकरार के ख़िलाफ़ कार्यवाही करना बड़ा गुनाह है।
तुम्हारा दूसरा गुनाह ये कि जिस वक़्त में बादशाही लश्कर आगरे से दूर गया हुआ था, बहुत से सवार, पैदल साथ लेकर बादशाही सरहद पर आना, उसका दर्शन स्नान नाम रखना क्या समझा जावे।
बुजुर्ग बादशाहों के आगे मुल्की खिदमतों में कमी करने से यह कुसूर ज्यादा है। (अर्थात महाराणा राजसिंह बादशाही मुल्क लूटने का विचार करके सरहद तक चले आए थे, हालांकि इस दौरान मुल्क नहीं लूटा और पुनः लौट आए)।
तुम्हारा तीसरा गुनाह (महाराणा राजसिंह व उनके पिता ने मुगल सल्तनत से बगावत करने वालों को शरण देकर दी थी) सुनो। दुनिया के सब लोगों पर ज़ाहिर है कि यह सल्तनत सारी दुनिया की जाय पनाह है। इराक, खुरासान, मावराउन्नहर, बल्ख, बदख्शां, काशगर वग़ैरह के अमीर, सरदार बादशाही ख़िदमत में हाज़िर रहते हैं और मनसब व दर्जे पाते हैं।
दक्षिण वालों की क्या हकीकत है, जो बादशाह के हर तरह ताबेदार हैं। हर महीने हर वर्ष हर जगह के आदमी यहां (बादशाही हुज़ूर में) इज़्ज़त पाते हैं। जिसको कहीं पनाह न मिले, उसका ठिकाना यहां है। जो यहां आया, वह कहीं नहीं जाता और बग़ैर रुख़सत कोई नौकर किसी दूसरी जगह नहीं जा सकता। यह बड़े बादशाहों का दस्तूर है। उनके भागे हुए नालायक नौकर को कोई दूसरा अपने पास नहीं रख सकता।
पर तुम्हारे यहां बड़ी आरज़ू के साथ बाजे लोगों (मुग़ल सल्तनत के बागी) को मनसब इनायत किए गए और बावजूद सरकारी वाक़ियात के वह जिहालत से तुम्हारे यहां आकर बैठे रहे, तुमने और तुम्हारे बाप ने उनको अपना मोतबर (विश्वसनीय सेवक) बना लिया और कुछ परवाह न की, यह कौनसी अक्लमंदी की बात है।
तुम्हारा चौथा गुनाह (1615 ई. में हुई मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त के अनुसार महाराणा को एक हज़ार घुड़सवार बादशाही सेवा में भेजने थे, पर महाराणा राजसिंह ने बहुत बार आनाकानी करने के बाद भी कुछ घुड़सवार ही भेजे) सुनो।
जब कंधार की मुहिम ख़ातिर बादशाही फौज रवाना हुई, सब ताबेदारों के इम्तिहान का वक़्त था, तब तुमने बादशाही हुज़ूर में इतनी थोड़ी फौज भेजी जो गिनती के लायक भी न थी। दक्षिण में जो एक हज़ार सवार रखने का इकरार था, उसमें कमी रही।
इन बातों से खैरख्वाही का दावा बिल्कुल बेजा है। जबरदस्त बादशाहों के रूबरू जरूरत के वक्त नौकरी से बचना बड़ा कुसूर है। जब यह बातें तुमसे ज़ाहिर हुई, तो हज़रत शहंशाह अजमेर तशरीफ़ लाये और जबरदस्त फ़ौजें चित्तौड़ की तरफ़ रवाना की, जिससे यह मतलब था कि राणा ख़िदमत में हाजिर हो या अपने किये का एवज पावे।
इस अरसे में तुम्हारे वकीलों ने हाजिर होकर कुसूरों की मुआफ़ी चाही, हजरत ने जाती रहमदिली से तुम्हारे पुराने खानदान को, जो बिगड़ता जाता है, तरस खाकर कायम रखा और यही बात काफ़ी समझी की फौज भेजकर किले की मरम्मत बिगाड़ दी जावे और तुम्हारा वलीअहद (उत्तराधिकारी) बेटा अजमेर में हाजिर होकर रुख़सत पावे और हमेशा मामूली जमइत पूरी तादाद में (एक हज़ार की फ़ौज) किसी भाई-बन्धु के साथ दक्षिण में मौजूद रहे और आगे को कोई बात हुक्म के ख़िलाफ़ ज़ाहिर न हो।
अजमेर के पास वाले परगनों की बाबत हुज़ूर की मर्ज़ी के मुवाफिक कार्रवाई होगी। तुम्हें इन मिहरबानियों की कद्र अच्छी तरह जाननी चाहिए और इसका शुक्र अदा करना मुनासिब है। अपने वलीअहद बेटे को जल्द भेजना लाज़िम है, इसमें देर लगाना ठीक नहीं है।
जब ताबेदार ने ये सब सच्ची, तेज और नर्म बातें बादशाही वकीलों के दर्जे के मुवाफिक साफ-साफ बयान कर दीं, राणा जिसके कानों तक ऐसा हाल कभी न पहुंचा था, इनके सुनने से बहुत हैरान और परेशान हुआ। सिवाय मुआफ़ी के कोई और इलाज नज़र नहीं आया।
राणा ने कहा कि इन कुसूरों में से अक्सर मेरे दाजीराज (पिता महाराणा जगतसिंह) के वक़्त में हुए हैं, फिर भी मैं उन सबको अपने सिर लेता हूँ और इनकी मुआफ़ी चाहता हूँ। आगे को बादशाही मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम न होगा और अपने बड़ों (महाराणा कर्णसिंह, महाराणा जगतसिंह) से ज्यादा मैं खैरख्वाही करूँगा।
राणा के मुसाहिब जो सलाह में शरीक थे, उनमें से किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया, सब चुप रहे। यह ताबेदार सरकारी नौकर (मैं अर्थात मुंशी चंद्रभान) बेगरज सच कहने वाला है और ये लोग भी शुरू से एतिबार (विश्वास) करते हैं, इसलिए बेख़ौफ़ सब बातें उम्दा तौर पर कह डालीं।
अगले दिन राणा ने अपने लोगों से मशवरा करके अपने फायदे के वास्ते यह बात ठहराई कि मैं अपने वलीअहद बेटे को भेजने के लिए तैयार हूँ। राणा ने बहुत सलाह के बाद दूसरी बात ये बयान की कि सब शहर और गांव के आदमी बादशाही फ़ौज के आने से घबरा गए हैं, जब बादशाही लश्कर चित्तौड़ से लौटेगा उसी रोज अपने बेटे को तुम्हारे साथ भेजूंगा।
ताबेदार (चंद्रभान) ने कहा कि ये सब वहम बेफायदा है। राणा ने जवाब दिया कि मैं बेफिक्री से अपने बेटे को भेजना चाहता हूं, लेकिन हमारे इलाके के लोग जंगली हैं, बड़ा वहम करते हैं, इस ख़ातिर जब बादशाही फौज चित्तौड़ खाली करेगी, तो उस फौज के लौटते वक़्त ही मैं अपने बेटे को भेज दूंगा।
बहुत फ़िक्र और मुश्किल के बाद इस मुआमले की अर्जी लिखकर बल्लू के हाथ, जो मुआमले से वाकिफ है और अक्ल से खाली नहीं है, भेजी। चित्तौड़ के लश्कर के सिवाय मंदसौर की तरफ से भी फौज के आ जाने का वहम हो गया है।
इन लोगों (मेवाड़ वासियों) ने पहिले से अपने बाल-बच्चे और सामान को पहाड़ों में भेज दिया है कि जब लश्कर चित्तौड़ से लौट जावेगा, उनको उदयपुर में बुला लेंगे। हुक्म के मुवाफिक तमाम बातें बेगरजी के साथ ज़ाहिर कर दीं। राणा भी जो अपने सरदारों से ज्यादा अक्लमंद है, अच्छे बर्ताव और नरमी के साथ हर तरह इस काम को पूरा करना चाहता है।
राणा के मुल्क का मेवा एक किस्म की खास ककड़ी है, गन्ना भी बुरा नहीं है। कुछ अनार राणा के बाग में से मंगवाकर देखे गए, हालांकि अरक ज्यादा है, पर मिठास नहीं है। हवा दोपहर को किसी कद्र गर्म होती है और रात को कुछ ठंडी।
इस मुल्क की रअय्यत पहाड़ियों में चली गई है, आबादी बहुत कम नज़र आती है। उदयपुर में महाजन व्यापारी और शहरवालों में किसी का पता नहीं है, सब इस बात के तय हो जाने की फिक्र में हैं। (अर्थात सब लोग बादशाही फौज के लौट जाने की राह देख रहे हैं ताकि आराम से काम धंधा कर सके)। हुज़ूर (शाहजहां) की सल्तनत हमेशा क़ायम रहे।”
(मुंशी चंद्रभान के इस ख़त से पता चलता है कि महाराणा राजसिंह व उनके पिता ने बादशाही हुक्मों को नज़रअंदाज़ किया था और हर तरह से संधि के ख़िलाफ़ कार्य जारी रखे। इस समय महाराणा राजसिंह बड़ी दुविधा में थे, क्योंकि मेवाड़ की सेना बड़े युद्ध को लड़ने के लिए तैयार नहीं थी और दूसरी तरफ चित्तौड़ में 30 हज़ार मुगल सिपाही किले की मरम्मत खराब कर रहे थे।
महाराणा किसी तरह बस ये चाहते थे कि बादशाही फौज जल्द से जल्द किला खाली कर दे। हालांकि महाराणा राजसिंह बड़े कूटनीतिज्ञ थे, मुंशी चंद्रभान उनके भीतर छुपे रहस्य व इरादों से अनजान था।) अगले भाग में मुंशी चंद्रभान द्वारा लिखे गए शेष 3 पत्रों का वर्णन किया जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)