मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी (भाग – 6)

मुगल बादशाह शाहजहां, जिसके बारे में पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है कि उसका शासनकाल स्थापत्य कला का स्वर्णकाल था। बहरहाल, इसी शाहजहां ने अपने 30 हज़ार मुगल सिपाहियों को चित्तौड़गढ़ किले की दीवारें गिराने के लिए भेज दिया, क्योंकि महाराणा राजसिंह व उनके पिता ने सन्धि की शर्तों के बर्ख़िलाफ जाकर किले की मरम्मत करवाई थी।

शाहजहांनामा में लिखा है कि “बादशाह ने सादुल्ला खां वज़ीर को हुक्म दिया कि 30 हज़ार सवार ले जाकर किले को गिरा दे। राणा ने ख़बर पाकर अपने वकील भेजे और शहज़ादे दाराशिकोह की सिफ़ारिश के साथ मुआफ़ी अर्ज़ कराई।”

शाहजहांनामा में आगे लिखा है कि “बादशाह ने फ़रमाया कि अगर राणा अपने टिकाई लड़के को हुज़ूर में भेजे और दस्तूर के मुवाफिक एक हज़ार सवार दक्षिण में हाजिर रखे, तो उसके कुसूर मुआफ़ कर दिए जाएंगे। राणा ने जवाब में अर्ज़ कराई कि अगर सरकार का दीवान शेख अब्दुल करीम आ जावे, तो मैं अपने बेटे को उसके साथ दरबार में भेज दूंगा और वायदे के मुताबिक एक हज़ार सवार भी दक्षिण में भेज दूंगा।”

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

महाराणा राजसिंह ने कहा कि जब बादशाही फौज चित्तौड़ के किले से रवाना होगी, तभी मैं अपने कुँवर को शेख अब्दुलकरीम के साथ बादशाही दरबार में भेजुंगा। फिर कुछ समय बाद महाराणा राजसिंह ने माधवसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में एक हज़ार सवार दक्षिण में बादशाही सेवा में भेज दिए।

14 नवम्बर, 1654 ई. को शाहजहां अजमेर से रवाना हुआ। 21 नवम्बर, 1654 ई. को महाराणा राजसिंह ने अब्दुल करीम व मुंशी चंद्रभान के साथ अपने 6 वर्ष के ज्येष्ठ पुत्र को शाहजहाँ के पास भेजा। उस वक्त शाहजहां मालपुरा में था।

इस समय तक कुँवर का कोई नाम नहीं रखा गया था, शाहजहाँ ने कुँवर का नाम सौभाग्य सिंह रख दिया। शाहजहां ने कुंवर को एक मोतियों का सरपेच, जड़ाऊ तुर्रा, मोतियों का बालाबन्द व एक जड़ाऊ उरवसी भेंट किया। कुँवर के साथ आए 8 मेवाड़ी सर्दार, जिनमें से एक बेदला के राव रामचन्द्र चौहान थे, उन सभी को शाहजहां ने ख़िलअतें व घोड़े भेंट किए।

22 नवम्बर, 1654 ई. को चित्तौड़ की खराबी करने वाला वज़ीर सादुल्ला खां फौज सहित शाहजहां के सामने हाज़िर हुआ। 15 दिनों तक 30 हज़ार की मुगल फ़ौज ने केवल चित्तौड़गढ़ की दीवारें और कंगूरे तोड़ने का ही काम किया था।

26 नवम्बर, 1654 ई. को शाहजहां ने मेवाड़ के कुंवर को हाथी, घोड़े आदि भेंट करके विदाई दी। जब कुँवर लौटकर मेवाड़ आए, तो महाराणा राजसिंह को पता चला कि शाहजहां ने कुंवर का नाम सौभाग्यसिंह रख दिया। सौभाग्यसिंह नाम रखने के पीछे आशय ये था कि बादशाह के सामने हाजिर होने से कुँवर सौभाग्यशाली हो गए अर्थात कुँवर पर बादशाह की कृपा है।

शाहजहां

महाराणा राजसिंह को ये बात पसन्द नहीं आई और उन्होंने उसी वक्त कुँवर का नाम बदलकर सुल्तान सिंह रख दिया। सुल्तान वैसे तो मुस्लिम नाम है, परन्तु महाराणा द्वारा ये नाम रखने के पीछे आशय ये था कि ‘सुल्तान पर सिंह की तरह ज़बरदस्त’।

17 दिसंबर, 1654 ई. को शाहजहां आगरा पहुंचा। मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त के अनुसार महाराणा राजसिंह ने जो एक हज़ार घुड़सवार शाही सेना की मदद हेतु भेजे थे, उनको दक्षिण में कल्याणी के किले की चढ़ाई हेतु भेजा गया। इस चढ़ाई के दौरान महाराणा राजसिंह की सैनिक टुकड़ी में शामिल शिवराय नाम का एक सैनिक काम आया।

19 मई, 1656 ई. को खवासन सुंदर ने महाराणा राजसिंह से अर्ज़ किया कि गंधर्व ब्राह्मण मोहन को कोई एक गांव भेंट कर दिया जावे, तो मिहरबानी होगी। महाराणा राजसिंह ने सुंदर की सिफ़ारिश पर गन्धर्व ब्राह्मण मोहन को रंगीली गांव रामार्पण भेंट किया।

महाराणा राजसिंह स्वयं एक अच्छे कवि भी थे। उनका लिखा हुआ एक छप्पय राजसमुद्र की पाल पर महल के झरोखे के पूर्वी पार्श्व में खुदा हुआ है। बाद में महाराणा सज्जनसिंह के समय कारीगरों ने यहां मरम्मत के दौरान अनजाने में कलई फेर दी, इसलिए कुछ अक्षर साफ़ पढ़े नहीं जा सकते। वह छप्पय कुछ इस तरह है :-

महाराणा राजसिंह

कहाँ राम कहाँ लखण, नाम रहिया रामायण। कहाँ कृष्ण बलदेव, प्रगट भागोत पुरायण।। बाल्मीक शुक व्यास, कथा कविता न करंता। कुण सरूप सेवता, ध्यान मन कवण धरंता।। जग अमर नाम चाहो जिके, सुणो सजीवण आखरां। राजसी कहे जग राणरो, पूजो पांव कवीसरां।।

अर्थात राम और लक्ष्मण अब कहाँ है ? उनका नाम रामायण में ही रह गया है। कृष्ण और बलदेव कहाँ है ? उनका नाम भागवत पुराण से प्रकट होता है। वाल्मीकि और शुकदेव व्यास यदि कविता में उनकी कथा न करते, तो कौन उनकी सेवा और ध्यान करता ? सुनो, सदा जीवित रहने वाले अक्षरों में राणा जगतसिंह का पुत्र राजसिंह कहता है कि यदि अपना नाम अमर कराना चाहो, तो कवीश्वरों के पैरों की पूजा करो।

अपने पुरखों के गौरवशाली किले चित्तौड़गढ़ को नुकसान पहुंचता देखकर महाराणा राजसिंह को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु उस समय मेवाड़ की सेना लड़ाई हेतु तैयार नहीं थी। लेकिन आख़िरकार वह समय आया, जब महाराणा राजसिंह को अपना प्रतिशोध लेने का अवसर मिला। अगले भाग में महाराणा राजसिंह की जवाबी कार्रवाई का विस्तृत वर्णन किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. b c jain
    August 27, 2021 / 9:13 am

    Thanks, I would like to know more about stay or attcaks of Shahjahan on Malpura…..
    However , Our history remind us torture by Islamist ….

  2. Raam Goutam
    September 20, 2021 / 9:19 am

    तनवीर सिंह जी,
    पाठ्यक्रम में इतिहास उतना ही पढ़ाया गया, जितने में विद्यार्थी उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में पढ़ सके!

    मेरा प्रयास रहेगा, आपकी इतिहास से जुड़ीं सभी पोस्ट पढ़ूँ।

    विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद!

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