मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 5)

महाराणा राजसिंह द्वारा सन्धि की शर्तों का उल्लंघन करने पर शाहजहां ने चित्तौड़ दुर्ग की दीवारें तोड़ने के लिए एक फ़ौज भेज दी और मुंशी चंद्रभान को महाराणा को समझाने के लिए भेजा। उदयपुर में रहते हुए मुंशी चंद्रभान ने शाहजहां को 4 पत्र लिखे, जिसमें से पहले पत्र का वर्णन पिछले भाग में किया जा चुका है। शेष 3 पत्रों का वर्णन इस भाग में किया जा रहा है :-

मुंशी चंद्रभान द्वारा शाहजहां को लिखा गया दूसरा पत्र :- “राणा (महाराणा राजसिंह) ने तमाम हिदायत और हुक्म की बातें अच्छी तरह सुनी हैं, तामील के लिए अपना फायदा समझकर दिल से तैयार है। खैरख्वाह लोगों की कोशिश से, जिनकी तफसील हुज़ूर में अर्ज़ की जाएगी।

कुँवर (महाराणा राजसिंह के ज्येष्ठ पुत्र) को सात घड़ी गुज़रने पर शनैश्वर की रात में रुख़सत करके उदयपुर के बाहर एक खेमे में ठहरा दिया है। राणा और उसके मुसाहिब उम्मीद करते हैं कि चित्तौड़ में तैनात बादशाही लश्कर लौट जावे, तो हम अच्छी तरह उदयपुर में रह सकें और कुँवर को बेफिक्री से अजमेर भेज दिया जावे।

ताबेदारों की तरफ से कोशिश में कोई कमी नहीं रखी गई। राणा को ऊंची-नीची बातों से खूब कायल कर दिया है और सच-सच बग़ैर घटाव-बढ़ाव के सब बातें अर्ज़ कर दी गईं। हुज़ूर की बादशाहत और नसीबे का सूरज हमेशा चमकता रहे।”

शाहजहां

मुंशी चंद्रभान द्वारा शाहजहां को लिखा गया तीसरा पत्र :- “हुज़ूर के बुजुर्ग रोशन फ़रमान से, जो अजमेर मकाम से जारी हुआ था, इज़्ज़त और सरबलन्दी हासिल की। (अर्थात शाहजहां ने अजमेर से एक फ़रमान जारी करके भेजा था)। राणा को, जो हुज़ूर की मिहरबानी का उम्मीदवार था, फ़रमान के मज़मून से ख़बरदार कर दिया।

कुँवर (महाराणा राजसिंह के पुत्र) की रवानगी में बहुत ज्यादा ताकीद की गई है। राणा फ़रमान को देखने और हम लोगों के पहुंचने के बाद बेफिक्री से अपने बेटे को हमारे साथ भेजने के लिए राज़ी था, पर निहायत डर के साथ बादशाही लश्कर के चित्तौड़ से लौट जाने का इंतज़ार कर रहा था। (डर इसलिए कि मुगल फौज कहीं चित्तौड़ की दीवारों के साथ-साथ मंदिर व महलों को भी नुकसान न पहुंचा दे)

अब हुज़ूर के ताज़ा हुक्म से, जो उसको बता दिया गया, बहुत तसल्ली हो गई है। राणा ने अपने फायदे का सोचकर बहुत मुसाहिब और पुरोहित इकट्ठे किये हैं। शुक्र के दिन शनैश्वर की रात में से सात घड़ी गुज़रने पर मुहर्रम महीने में अपने बेटे की रवानगी के लिए नेक घड़ी तजवीज़ की है। मुहूर्त का कागज़ जो राणा के पुरोहितों ने लिखा है, वह हुज़ूर में भेजा जाता है।

राणा अर्ज़ करता है कि मैंने साफ दिली के साथ हुज़ूरी हुक्मों की तामील की है, उम्मीद है कि मेरे मुल्क (मेवाड़) और माल पर कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा और मैं अपने बराबरी वालों से ज्यादा इज़्ज़त पाऊंगा और मेरा बेटा जल्दी लौटा दिया जाएगा।

जंगली लोगों में ज़िद और वहम ज्यादा होता है। हुज़ूर के ताबेदारों ने हर तरह तसल्ली कर दी है। यह मुल्क (मेवाड़) बिल्कुल ख़राब हो रहा है। सब आदमी पहिले से शहर छोड़कर पहाड़ों में चले गए हैं। बाज़ार और मकान खाली पड़े हैं, सिर्फ राणा और उसके नौकर बाकी रह गए हैं।

यहां (मेवाड़) के लोग कहते हैं कि अगर मुआमला तय न हो पाता, तो राणा पहाड़ों में चले जाते (अर्थात अगर बादशाही फौज चित्तौड़ खाली करने पर राजी नहीं होती, तो महाराणा राजसिंह छापामार लड़ाई की तैयारियां करते)।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

ताबेदारों के तसल्ली दिलाने से उस (राणा) के होश हवास कायम रहे हैं। यहां एक सत्तर साल का फकीर नज़र आया, जो चालीस साल से शहर के बाहर अलहदा एक गुफा में आजादी से रहता है, इस वक्त शहर की वीरानी से वह भी घबरा गया था।

अभी लोगों को आपस में खुशी और त्यौहार मनाने की गुंजाइश नहीं है। सब लोग मुआमला तय होने पर नज़र रखते हैं। कल्याणदास राजपूत वग़ैरह मौके पर पहुंचे, उनकी ख़िदमत कद्र के लायक है। हुज़ूर (शाहजहां) की बादशाहत और दौलत हमेशा रहे।”

मुंशी चंद्रभान द्वारा शाहजहां को लिखा गया चौथा पत्र :- “ताबेदार (चंद्रभान) ने राणा के बेटे की रवानगी की कैफ़ियत शनैश्वर की रात चौथी मुहर्रम को उदयपुर शहर से भेजी है कि शहर से बाहर एक कोस पर डेरा जमा दिया गया है और राणा लश्कर के लौटने का इंतज़ार करता है। ऐसी अर्ज़ी हुज़ूर में पेश हुई होगी।

इन दिनों में इज़्ज़तदार सरदार शैख़ अब्दुल करीम मिहरबानी के फरमान समेत यहां पहुंचे, जिनसे राणा के लश्कर की वापसी की ख़बर सुनकर बहुत तसल्ली हुई। राणा ने अपने बेटे को एक हफ़्ते पहले शहर के बाहर ठहरा रखा था। वह अब दुबारा बहुत एहसानमंद हो गया है।

इज़्ज़तदार सरदार शैख़ अब्दुल करीम और ताबेदार (चंद्रभान) और राणा का बेटा इतवार की सुबह तारीख़ 12 मुहर्रम सन 28 जुलूस को हुज़ूर की खिदमत में रवाना होते हैं। इस कार्रवाई में ताबेदारों ने बहुत दिल से कोशिश की है। हुज़ूर (शाहजहां) का दिल, जो दुनिया का आईना है, रोशन होगा। हुज़ूर की सल्तनत और दौलत हमेशा रहे।”

महाराणा राजसिंह

इस तरह मुंशी चंद्रभान ने शाहजहां को 4 पत्र लिखकर सारा वर्णन विस्तार से बता दिया। जब चंद्रभान और महाराणा राजसिंह के बीच में वार्तालाप हो रहे थे, तब शाहजहां की फ़ौज सादुल्ला खां के नेतृत्व में चित्तौड़ की दीवारें तोड़ रही थी।

इस समय महाराणा राजसिंह सुलह के माध्यम से जितना जल्द हो सके बादशाही लश्कर के चित्तौड़ से लौट जाने का इंतज़ार करते रहे और अपने दिल पर पत्थर रख लिया। परन्तु इस घटना के बाद महाराणा राजसिंह ने यह तय कर लिया कि उचित अवसर आने पर मुगल सल्तनत को इस कार्रवाई का परिणाम भुगतना पड़ेगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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