महाराणा राजसिंह का जन्म :- महाराणा जगतसिंह व महारानी जनादे बाई जी के पुत्र कुँवर राजसिंह का जन्म 24 सितम्बर, 1629 ई. को हुआ। जन्म की तिथि विक्रम संवत 1686 कार्तिक वदी 2 है। इनकी माता महारानी जनादे बाई जी राजसिंह मेड़तिया राठौड़ की पुत्री थीं।
कुँवर राजसिंह के जन्म पर राज्य में सर्वत्र खुशियां मनाई गईं। ब्राह्मणों, चारणों आदि को मुक्त हस्त से धन भेंट किया गया। गायें दान में दी गईं। नगर व हाट सजाए गए। नृत्य, संगीत आदि से नगरवासी आनंद विभोर हो उठे।
ब्राह्मणों को कुँवर राजसिंह की जन्म पत्रिका दिखाई गई, जिन्होंने नक्षत्रों की स्थिति देखकर कहा कि ये एक प्रतापी व गौरवशाली शासक बनेंगे व आगे चलकर अपने पराक्रम से बड़ा नाम कमाएंगे।
महाराणा राजसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा राजसिंह बहादुर, दूरदर्शी, प्रजावत्सल, दानी, कवि, कवियों के आश्रयदाता, कूटनीतिज्ञ, धर्म पर दृढ़ व अपने कुल का नाम बढ़ाने वाले थे।
महाराणा राजसिंह मुगलों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना बेहतर समझते थे। जैसे मुगलों द्वारा जब मंदिर तोड़े जाते, तो ये महाराणा मस्जिदें तुड़वाकर हिसाब बराबर करते।
गुणों के साथ-साथ इन महाराणा में एक खामी भी थी। मेवाड़ के सभी महाराणाओं में महाराणा राजसिंह सबसे अधिक गुस्से वाले थे। महाराणा राजसिंह का अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रहता था। यहाँ तक की उनके परिवार वाले व सामंत भी उनसे कोई बात कहने में खौफ खाते थे।
ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार “महाराणा राजसिंह का कद छोटा, आंखें बड़ी, चौड़ी पेशानी, रंग गेहूंआ था। मिजाज़ तेज़ व सख्त, लेकिन किसी-किसी मौके पर रहम भी करते थे। ऐश आराम व फैयाज़ी ज्यादा पसंद थी। दूसरों की सलाह पर कम चलने वाले व ख़ुद बहादुर थे। इनके समय में प्रजा प्रसन्न व खज़ाना भरपूर था। धर्म के पक्के व परलोक का पूरा विचार रखते थे। इन महाराणा के खौफ से मुलाजिम हमेशा डरे हुए रहते थे, तो भी राजपूत लोग सच्चे खैरख्वाह और बहादुर थे।”
डॉक्टर ओझा के अनुसार “महाराणा राजसिंह रणकुशल, साहसी, वीर, निर्भीक, सच्चे क्षत्रिय, धर्मनिष्ठ और दानी थे। वे स्वयं कवि व विद्वानों का सम्मान करने वाले थे। महाराणा में क्रोध की मात्रा अधिक थी। किसी काम को करने से पहले अधिक विचार नहीं करते थे। इन महाराणा का स्वभाव तेज व कठोर था।”
महाराणा राजसिंह के इतिहास लेखन में प्रयोग में लिए गए ग्रंथ, तवारिख व अन्य किताबें :- कविराजा श्यामलदास द्वारा लिखित ग्रंथ वीरविनोद, गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा लिखित राजपूताने का इतिहास, राजेन्द्र शंकर भट्ट द्वारा लिखित महाराणा राजसिंह व औरंगज़ेब, प्रताप शोध प्रतिष्ठान की पुस्तक महाराणा राजसिंह, रामप्रसाद व्यास की पुस्तक, महाराणा राजसिंह, मुहणौत नैणसी री ख्यात, बांकीदास री ख्यात, राजप्रशस्ति महाकाव्य, राजरत्नाकर।
औरंगज़ेबनामा, मआसिरे आलमगिरी, मआसिर उल उमरा, अदब ए आलमगिरी, रूकात ए आलमगिरी, अहकम ए आलमगिरी, खफी खां द्वारा लिखित मुन्तखबउल्लुबाब आदि फ़ारसी तवारीखों से भी महाराणा राजसिंह से सम्बंधित विवरण लिया गया है। साथ ही कर्नल जेम्स टॉड की पुस्तक एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान से भी कुछ अंश लिए गए हैं।
1 दिसम्बर, 1636 ई. को शाहजहां अजमेर पहुंचा। महाराणा जगतसिंह ने अपने 7 वर्षीय पुत्र कुँवर राजसिंह को अजमेर भेजकर शाहजहां को 9 घोड़े भेंट किए। शाहजहाँ ने कुंवर राजसिंह को खिलअत, जड़ाऊ सरपेच व मोतियों की एक माला भेंट की।
4-5 दिन बाद विदाई के समय शाहजहां ने कुँवर राजसिंह को खिलअत, जड़ाऊ खपवा, मीनाकारी के काम वाली एक तलवार, हाथी, घोड़ा आदि भेंट किए। कुँवर राजसिंह के साथ गए सरदारों में से राव बल्लू चौहान, रावत मानसिंह चुंडावत आदि को खिलअत व घोड़े भेंट किए गए। शाहजहां ने महाराणा जगतसिंह के लिए भी एक हाथी भिजवाया।
कुँवर राजसिंह की मुगलों से पहली मुठभेड़ :- 1641 ई. में महाराणा जगतसिंह की माता जाम्बुवती बाई जी द्वारिकापुरी की यात्रा हेतु पधारीं। महाराणा ने सुरक्षा खातिर अपने 12 वर्षीय पुत्र कुँवर राजसिंह को मेवाड़ी फौज की एक टुकड़ी समेत अपनी माता के साथ भेजा। इस अवसर पर राजमाता ने लाखों का धन दान किया।
अपने तेज़ तर्रार बर्ताव के कारण इस सफ़र पर जाते वक़्त व लौटते वक़्त दोनों ही बार कुँवर राजसिंह रास्ते में आने वाली मुगल चौकियों पर बादशाही अफसरों से उलझते हुए आए। बादशाही अफसरों ने कुँवर राजसिंह की शिकायत बादशाह शाहजहाँ से बहुत बढ़ा चढ़ाकर कर दी, जिससे शाहजहाँ सख्त नाराज़ हुआ।
कुँवर राजसिंह के ज़रिए महाराणा जगतसिंह का रक्षात्मक रवैया :- 1643 ई. में शाहजहाँ अजमेर ज़ियारत के बहाने महाराणा जगतसिंह को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए आया। महाराणा जगतसिंह ने बड़े युद्ध को टालने के लिए कुँवर राजसिंह को अजमेर में बादशाह के पास भेजा।
जोगी तालाब के निकट बादशाही डेरे में जाकर कुँवर राजसिंह ने शाहजहाँ को एक हाथी नज़र किया। शाहजहाँ ने ख़ुश होकर कुँवर राजसिंह को खिलअत, सरपेच, जडाऊ जम्धर, घोड़ा व सोना भेंट किया।
कुँवर राजसिंह को विदाई के वक़्त शाहजहाँ ने खिलअत, तलवार, ढाल, घोड़ा, हाथी व ज़ेवर भेंट किए। कुँवर राजसिंह के साथ आए मेवाड़ी सर्दारों को भी खिलअत, घोड़े वगैरह देकर विदा किया।
इसी वर्ष 30 अप्रैल को महाराणा जगतसिंह के छोटे भाई गरीबदास किसी नाराजगी के सबब से मेवाड़ छोड़कर बादशाह शाहजहां के पास चले गए, जहां शाहजहाँ ने उनको 1500 जात व 700 सवार का मनसब व जागीर दी।
जुलाई, 1647 ई. में शाहजहां ने महाराणा जगतसिंह के वकील बलराम के साथ महाराणा जगतसिंह व कुँवर राजसिंह के लिए खिलअत व सोने की जीन के दो घोड़े भिजवाए।
4 मार्च, 1648 ई. को कुँवर राजसिंह शाहजहां के पास गए और बधाई पत्र दिया। कुंवर राजसिंह फौरन ही ये कहते हुए लौट आए कि महाराणा सा यात्रा पर हैं, इसलिए राजकाज का कार्य मुझको सौंप गए हैं। इस समय कुंवर राजसिंह की आयु 19 वर्ष थी।
मुगलों से दोबारा मुठभेड़ :- 27 अप्रैल, 1648 ई. को कुंवर राजसिंह राजमाता के साथ गंगा स्नान व तुलादान के लिए गोकुल, मथुरा, प्रयाग व सोरमजी गए। इस यात्रा में राजमाता की दोहिती नंद कुँवरी भी उनके साथ थीं, जो कि बीकानेर के महाराजा कर्णसिंह राठौड़ की पुत्री व रामपुरा के हठीसिंह की धर्मपत्नी थीं।
मथुरा में राजमाता ने दीवाली और अन्नकूट उत्सव मनाया। सोरमजी में राजमाता व नन्द कुँवरी ने चांदी के तुलादान किए व कुँवर राजसिंह ने स्वर्ण का तुलादान किया। लौटते समय प्रयाग में राजमाता जाम्बुवती जी ने चांदी का तुलादान किया। इस यात्रा के दौरान 19 वर्षीय कुँवर राजसिंह की रास्ते में पड़ने वाली कई मुगल चौकियों पर तैनात मुगलों से मुठभेड़ हुई।
प्रथम विवाह :- कुँवर राजसिंह का प्रथम विवाह बूँदी के राव शत्रुसाल हाडा की पुत्री कुँवराबाई से तय हुआ। इन्हीं राव की एक अन्य पुत्री का विवाह मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह से इसी दिन व मुहूर्त पर तय हुआ।
दोनों बारातें एक समय पर तोरण के लिए पहुंची, तो दोनों तरफ से पहले तोरण बन्दाई को लेकर कहासुनी हो गई।राव शत्रुसाल ने बीच में पड़कर सुलह करवाई व कुँवर राजसिंह को पहले तोरण बन्दाई का मौका मिला। जब कुँवर राजसिंह नववधू सहित मेवाड़ के राजमहलों में पधारे, तो उनका भव्य स्वागत किया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
क्या महाराणा राज सिह की माता जी मारवाङ मे खौङ ( पाली) से थे..?