महाराणा राजसिंह का राजतिलक :- 25 अक्टूबर, 1652 ई. को महाराणा जगतसिंह का देहांत हो गया। महाराणा उदयसिंह द्वारा निर्मित नौचौकी महल में ऊंदरी गांव के भील मुखिया ने अपना अंगूठा चीरकर महाराणा राजसिंह का राजतिलक किया।
इस समय महाराणा राजसिंह की उम्र 23 वर्ष थी। महाराणा ने ‘हरिया’ के समारोह में आवश्यक पूजा कार्य संपन्न किया व विष्णु मंदिर में पूजा अर्चना की। गद्दीनशीनी के बाद महाराणा राजसिंह हाथी पर सवार होकर नगर भ्रमण के लिए निकले।
25 नवम्बर, 1652 ई. को महाराणा राजसिंह एकलिंग जी मंदिर में दर्शन करने पधारे, वहां गुसाई जी ने एकलिंग जी की तरफ से मेवाड़ के महाराणा को दीवान पद के चिन्ह स्वरुप तलवार, छत्र, चंवर और सिरोपाव भेंट किए। मेवाड़ के सभी महाराणा स्वयं को कोई शासक ना मानकर एकलिंग नाथ जी का ‘दीवान’ अर्थात् पहरेदार कहा करते थे।
इस अवसर पर महाराणा राजसिंह ने रत्नों का तुलादान किया। इतिहासकार ओझा जी का कहना है कि रत्नों के तुलादान का संपूर्ण भारत में सिर्फ यही एक लिखित उदाहरण मिला है।
लगभग 100 वर्ष पूर्व इस तुला के तोरण के टुकड़े और शिलालेख एकलिंग जी के मंदिर के पास वाले नाथों के मंदिर के सामने के चबूतरे पर कूड़े करकट के ढेर में मिले थे। ये शिलालेख वर्तमान में उदयपुर के विक्टोरिया हॉल में मौजूद हैं।
4 फरवरी, 1653 ई. को महाराणा राजसिंह का राज्याभिषेकोत्सव मनाया गया। इस अवसर पर महाराणा ने चाँदी का तुलादान किया।
इसी वर्ष महाराणा राजसिंह ने अपनी बहन का विवाह बीकानेर नरेश कर्णसिंह के पुत्र से करवा दिया। इस अवसर पर महाराणा ने अपने भाईयों व परिवार की अन्य 71 कन्याओं के विवाह भी बीकानेर वालों के साथ आए राजपूतों से करवा दिये।
30 अप्रैल, 1653 ई. को महाराणा जगतसिंह के छोटे भाई गरीबदास शाहजहां के पास गए, जहां शाहजहां ने उनको 1500 जात व 700 सवार का मनसब व जागीर दिया।
15 मई, 1653 ई. को महाराणा राजसिंह द्वारा भेजा गया पत्र लेकर देलवाड़ा के झाला मानसिंह के पुत्र कल्याण झाला शाहजहां के दरबार में पहुंचे। इस पत्र में महाराणा जगतसिंह के देहांत की खबर लिखी थी।
शाहजहां ने कल्याण झाला व नरदमन गौड़ के साथ जड़ाऊ जमधर, घोड़े, हाथी आदि महाराणा राजसिंह के लिए भिजवाए। साथ ही शाहजहाँ ने महाराणा राजसिंह के लिए 5 हज़ार सवार व 5 हज़ार जात की मनसबदारी का फरमान भी भिजवा दिया।
1615 ई. की संधि की शर्त के अनुसार महाराणा को एक हज़ार घुड़सवार मुगल सेवा में भेजने जरूरी थे। 1653 ई. में महाराणा राजसिंह ने भूपत सिसोदिया के नेतृत्व में एक हज़ार मेवाड़ी सैनिकों को कन्धार के तीसरे घेरे में शाही फौज का साथ देने भेजा।
महाराणा राजसिंह के राज्याभिषेक के समय मेवाड़ की स्थिति :- इस समय मेवाड़ मुगलों से संधि कर चुका था, लेकिन ये संधि नाम मात्र की थी। मेवाड़ ने समय-समय पर इस संधि के विरुद्ध कार्य किए।
मुगल बादशाह शाहजहाँ ने अजमेर के पास वाले मेवाड़ के कई क्षेत्रों को मेवाड़ से अलग कर शाही सीमा में मिला दिया, जिनमें पुर, मांडल, खैराबाद, मांडलगढ़, जहांजपुर, सावर, फूलिया, बनेड़ा, हुरड़ा, बदनोर आदि परगने प्रमुख हैं।
इस समय मेवाड़ के पड़ौसी राज्यों ने सीधे मुगलों की अधीनता स्वीकार की हुई थी, जिससे उन्होंने मेवाड़ शासक के हुक्म मानना छोड़ दिया। इन राज्यों में प्रमुख देवलिया (वर्तमान प्रतापगढ़), डूंगरपुर व बांसवाड़ा थे।
शाहपुरा :- महाराणा अमरसिंह के दूसरे पौत्र सुजानसिंह सिसोदिया को फूलिया परगना मिला था, तब उन्होंने शाहपुरा नाम से एक नया नगर बसा दिया। इन्होंने सीधे मुगलों की अधीनता स्वीकार की व मेवाड़ के विरुद्ध रहे।
टोंक व टोडा :- महाराणा अमरसिंह के पुत्र भीमसिंह सिसोदिया जो कि शाहजहाँ की तरफ से लड़ते हुए काम आए थे। तब शाहजहाँ ने भीमसिंह के बेटे रायसिंह को टोंक व टोडा का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया, जिससे ये क्षेत्र भी मेवाड़ की नाफ़र्मानी करने लगा।
राज्याभिषेक के बाद से ही महाराणा राजसिंह ने मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त का उल्लंघन जोर शोर से शुरू कर दिया और चित्तौड़गढ़ किले की मरम्मत तेजी से करवाई। इन्हीं दिनों मुगलों ने मालवा और अजमेर में मंदिरों को तोड़ना व गोवध करना शुरू कर दिया।
इन कारणों से महाराणा राजसिंह के आदेश से मेवाड़ी बहादुरों ने भी बादशाही सिपहसालारों को परेशान करना शुरू कर दिया। महाराणा राजसिंह के इस रवैये की ख़बर बादशाह शाहजहां तक पहुंचने में समय नहीं लगा, लेकिन शहज़ादा दाराशिकोह मेवाड़ की तरफदारी करता था, इसलिए शाहजहां ने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)