चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित विजय स्तम्भ व जैन कीर्ति स्तम्भ को लेकर बहुत से लोग भ्रमित हो जाते हैं। कई लोग दोनों को एक ही स्तंभ समझने लगते हैं, जो कि अनुचित है।
विजय स्तम्भ/कीर्ति स्तम्भ :- ये 9 मंजिला एक स्तम्भ है जो महाराणा कुम्भा ने मालवा व गुजरात की फौजों पर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया। इसे कीर्ति स्तम्भ भी कहते हैं। इसके वास्तुकार जैता व उनके पुत्र नापा, पुंजा थे। विजय स्तम्भ को “भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष” भी कहते हैं।
इसकी ऊंचाई 122 फीट है, जिसमें 157 सीढियां हैं। स्तम्भ का निर्माण वास्तुशिल्पी मंडन द्वारा निर्मित नक्शे के आधार पर उनके निर्देशन में हुआ। विजय स्तम्भ के आन्तरिक तथा बाह्य भागों पर भारतीय देवी-देवताओं, अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मा, सावित्री, हरिहर, पितामह विष्णु के विभिन्न अवतारों तथा रामायण एवं महाभारत के पात्रों की सैंकड़ों मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
जैन कीर्ति स्तम्भ :- 12वीं शताब्दी में इसका निर्माण जैन व्यापारी जीजा द्वारा रावल कुमारसिंह के शासनकाल में करवाया गया। स्तम्भ की ऊंचाई 24.5 मीटर है। यह प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। इसका एक हिस्सा बिजली गिरने के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था जिसका बाद में जीर्णोद्धार किया गया।
शुभ्रक से सम्बंधित ऐतिहासिक भ्रम :- आजकल शुभ्रक नामक एक घोड़े की कहानी सोशल मीडिया पर आए दिन वायरल होती है, जिसे लोग बिना सत्यता जाने पोस्ट करते रहते हैं। शुभ्रक को मेवाड़ के कुँवर कर्णसिंह का घोड़ा बताया जाता है। कहानी में कहा गया है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने मेवाड़ पर आक्रमण करके कर्णसिंह को बंदी बना लिया और शुभ्रक ने कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिराकर उसको मार दिया।
कहानी सुनने में अच्छी लगती है और कई राजपूत भी इसे शेयर करते हैं और जल्दबाजी में कहानी का दूसरा प्रभाव नहीं देख पाते कि मेवाड़ के कुंवर को मेवाड़ से बंदी बनाकर ले जाने में राजपूतों का गौरव नहीं है। बहरहाल, मेवाड़ में 2 कुँवर कर्णसिंह हुए हैं। एक तो महाराणा प्रताप के पौत्र जो कि 17वीं सदी के थे और एक 12वीं सदी में हुए।
12वीं सदी में जो कर्णसिंह हुए उनका समयकाल 1150 के आसपास रहा। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हुई 1210 ई. में। मेवाड़ में 1210 ई. में कर्णसिंह के पुत्र क्षेमसिंह के पुत्र कुमारसिंह के पुत्र मन्थनसिंह के पुत्र पद्मसिंह का शासनकाल था और इनका शासनकाल उस समय के शिलालेखों से स्पष्ट है।
इसके अतिरिक्त कहानी में लिखा है कि शुभ्रक घोड़ा कुतुबुद्दीन को मारकर कुँवर कर्णसिंह को लेकर रवाना हुआ और उदयपुर के महलों के आगे रुका। लेखक इतना नादान है कि उसे ये तक नहीं मालूम कि उदयपुर के महलों की नींव महाराणा उदयसिंह ने 16वीं सदी में रखी।
इसके अतिरिक्त सम्भवतः लेखक को यह भी ज्ञात नहीं कि लाहौर से उदयपुर तक की दूरी लगभग 800 किलोमीटर है और इतनी दूरी अकेला घोड़ा एक राजकुमार को लेकर तय नहीं कर सकता। इसलिए बगैर जाने सोशल मीडिया पर हर कुछ शेयर करना भविष्य में हमारे ही लिए घातक सिद्ध होगा।
राजा वीरसाल से सम्बंधित ऐतिहासिक भ्रम :- जो लोग आवेश में आकर आजकल एक पोस्ट धड़ल्ले से शेयर किये जा रहे हैं, कि अमरकोट के राजा वीरसाल ने हुमायूं की पत्नी हमीदा बानो बेगम से विवाह किया और अकबर उन्हीं का पुत्र था।
उन ज्ञानी बंधुओं को बताना चाहेंगे कि जिस क्षत्रिय मर्यादा को हम जानते हैं, उसके अनुसार एक क्षत्रिय अपने शरणार्थी के लिए अपना राजपाट तक बलिदान कर सकता है।
रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। जिन्होंने अलाउद्दीन की फौज के भागे हुए एक भगोड़े को अपने यहां शरण दी और उसी की खातिर अपना राजपाट, अपना दुर्ग खो दिया, अनगिनत राजपूतों ने रणथंभौर की भूमि को अपने व शत्रुओं के रक्त से नहला दिया, हज़ारों वीरांगनाओं ने जौहर कर अपने सतीत्व की रक्षा की, मात्र अलाउद्दीन के उस एक भगोड़े सिपाही के लिए।
चित्तौड़गढ़ के तीसरे शाके का प्रमुख कारण महाराणा उदयसिंह द्वारा मालवा के बाज बहादुर को शरण देना था।ये थी क्षत्रिय मर्यादा और जो कुछ राजा वीरसाल के लिए ज्ञानी बंधु शेयर कर रहे हैं, वो इस मर्यादा के इर्दगिर्द भी नहीं।
वास्तव में हुमायूं 1540 से भटक रहा था, परन्तु हमीदा बानो बेगम से उसका निकाह सितंबर, 1541 ई. में हुआ था। हुमायूं ने राजा वीरसाल के यहां अगस्त, 1542 ई. में शरण ली और अक्टूबर, 1542 ई. में अकबर का जन्म हुआ।
क्या आपको लगता है कि अकबर के खून में ऐसा गुण भी था, जो राजपूती मर्यादाओं पर खरा उतरता हो ? सोच विचारकर पोस्ट शेयर किया करें, कहीं ऐसा न हो कि आप अपने ही हाथों से अपने ही गौरवशाली इतिहास का गला घोंट दें।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)