1 मार्च, 1192 ई. – तराइन का दूसरा युद्ध :- फ़ारसी तवारीख ताजुल मआसिर में लिखा है कि “राय पिथौरा के दिमाग में उसकी जर्रार फ़ौज की वजह से दुनिया फ़तह करने का भूत सवार हो चुका था”
तराइन की पहली शिकस्त के बाद बौखलाया गौरी हार का दंश झेलकर अपने ही सैनिकों को दंडित करने लगा, तब उसे उसकी माँ ने समझाया और दोबारा हमला करने को कहा। शहाबुद्दीन गौरी ने पिछली शिकस्त से बहुत कुछ सीखकर सुनियोजित तरीके से युद्ध की तैयारियां शुरू कर दीं।
गौरी ने तुर्क, ताजिक और अफगानों को तैयार करवाकर 1 लाख 20 हज़ार की जर्रार फौज इकट्ठी की।इस विशाल फौज के साथ वह लाहौर पहुंचा। शहाबुद्दीन गौरी की फौज के प्रमुख सिपहसालार व साथी :- कुतुबुद्दीन ऐबक को मुख्य सेनापति बनाया गया।
नासिरुद्दीन कुबाचा को हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति का नेतृत्वकर्ता बनाया गया। खारबक भी हरावल का नेतृत्वकर्ता था। मुहम्मद बिन महमूद, अल्बा, मुकलबा, खरमेल, ताजुद्दीन यलदुज आदि सिपहसालार भी सम्राट के विरुद्ध इस लड़ाई में शामिल हुए।
जम्मू के राजा विजयदेव ने अपने बेटे नरसिंहदेव को शहाबुद्दीन गौरी का साथ देने के लिए फौज समेत भेज दिया। इस लड़ाई से ठीक पहले सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सेना भेजकर जम्मू पर आक्रमण भी किया था।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान भी बहुत से राजा-महाराजाओं को साथ लेकर गौरी का सामना करने पहुंचे। सम्राट की फौज व हाथियों की संख्या गौरी के मुकाबले लगभग दुगुनी थी।फरिश्ता के अनुसार इस लड़ाई में सम्राट की तरफ से 150 छोटे-बड़े राजाओं ने भाग लिया। दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर, उदयराज, पदमशा रावल, भुवनैक मल्ल, रामराय बड़गूजर आदि योद्धा सम्राट के साथ थे।
गौरी का पहला षड्यंत्र :- इस लड़ाई में शहाबुद्दीन गौरी ने कूटनीति का प्रयोग करते हुए अपने सैन्य का मध्य भाग, सामान, झंडे व हाथी कई मील पीछे छोड़ दिए। सूर्योदय से पहले ही 40 हज़ार घुड़सवारों को उसने 4 दलों में विभक्त करके राजपूतों की फ़ौज के चारों तरफ़ से अचानक हमले करवाए।
जब राजपूत फौज निद्रावस्था में थी, तब ज़िरहबख़्तरों और अश्वों से सुसज्जित 40 हज़ार के सैन्य ने राजपूत खेमों में तबाही मचा दी। हज़ारों राजपूत बिना लड़े ही खेत रहे और फिर शेष राजपूतों ने जैसे-तैसे फौजी जमावट की।
सम्राट से इस बार चूक हुई और उन्होंने युद्धनीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। तराइन की पहली लड़ाई के अनुसार ही उन्होंने अपनी फौज जमाई। गजसेना को बीच में रखा गया, बाईं व दाईं तरफ अश्वसेना रखी गई, पीछे पैदल सेना रखी गई।
गौरी का दूसरा षड्यंत्र :- तराइन की पहली लड़ाई में गौरी के हाथियों के भागने के कारण गौरी के अश्व भी घबराकर भाग गए थे, इसलिए इस बार गौरी ने सैंकड़ों लकड़ी के हाथी बनवाए और गजसेना में खड़े कर दिए, जिससे सम्राट के हाथियों ने जब हमला किया, तो नकली हाथी जस के तस खड़े रहे, जिससे गौरी की फौज में शामिल घोड़ों की हिम्मत बंधी रही।
इस लड़ाई में दिल्ली के राजा गोविंदराय तोमर ने गौरी की फ़ौज के हरावल के सेनापति खारबक को पीछे धकेल दिया। गौरी फौज के पांचवे भाग में तैनात 12 हज़ार घुड़सवारों का नेतृत्व करते हुए लड़ाई में शामिल हुआ।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की गजसेना को पराजित करने के लिए गौरी ने अपने तीरंदाज़ आगे किए और हाथियों व महावतों पर तीर बरसाकर गजसेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। दिन के तीसरे पहर तक युध्द चलता रहा।
तीसरे पहर में गौरी ने पीछे खड़ी फौज को लड़ाई में शामिल होने का हुक्म दिया, जिसमें करीब 70 हज़ार सैनिक थे। सम्राट पृथ्वीराज चौहान को पीछे खड़ी इस फौज का कोई अंदाज़ा नहीं था। नतीजतन इस लड़ाई में गौरी ने फ़तह हासिल की।
रामराय बड़गूजर वीरगति को प्राप्त हुए। दिल्ली के राजा गोविंदराय तोमर अंतिम श्वास तक लड़ते रहे। अंत में उनका सिर काट दिया गया और रणभूमि में ही यह सिर गौरी के समक्ष ले जाया गया। गौरी ने इनकी पहचान इनके टूटे हुए दांतों से की, जो कि तराइन की पहली लड़ाई में गौरी के हाथ का बरछा लगने के कारण टूटे थे।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान हाथी से उतरकर घोड़े पर सवार हुए और सरस्वती नदी के किनारे शत्रुओं द्वारा घेर लिए गए। इतिहास के इस युगपरिवर्तनकारी युद्ध में एक लाख राजपूतों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी।
मालवा के महाराजा हरिश्चंद्र के पुत्र महाराजकुमार उदयवर्मन को तराइन की दूसरी लड़ाई में आने का निमंत्रण दिया गया था, लेकिन वे जब तक आए तब तक परिणाम सम्राट के विरुद्ध जा चुका था।
1192 ई. में राजकोष से चोरी :- जैसे ही तराइन की दूसरी लड़ाई में सम्राट की पराजय की खबर अजमेर पहुंची, तो सम्राट का अमात्य वामन अजयमेरु दुर्ग के राजकोष से धन चुराकर फ़रार हो गया।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अंतिम समय :- सम्राट के अंतिम समय को लेकर अलग-अलग लेखकों ने अपने मत रखे हैं। फ़ारसी तवारीखों के अनुसार :- हसन निजामी ताजुल मआसिर (1205-1230 ई.) में लिखता है कि “सुल्तान राय पिथौरा को बंदी बनाकर अजमेर ले गया और कुछ दिन बाद मौत की सज़ा दी।”
मिनहाज सिराज तबकात-ए-नासिरी (1227-1259 ई.) में लिखता है कि “राय पिथौरा अपने हाथी से उतरा, घोड़े पर बैठा और भागा, पर सरसुती नदी (सरस्वती/घग्गर) के पास पकड़ा गया और नरक भेज दिया गया। दिल्ली का राजा गोविंद (चाहड़पाल तोमर) लड़ाई के मैदान में मारा गया। सुल्तान ने गोविंद के सिर को उसके 2 टूटे हुए दांतों से पहचान लिया, जो सुल्तान ने ही पिछली लड़ाई में तोड़े थे।”
मिनहाज सिराज का ही समकालीन लेखक ऊफी तवारीख जामीउल हिकायात में लिखता है कि “राय कोला (पृथ्वीराज) को बंदी बना लिया गया और कुछ दिन बाद अजमेर में मौत के घाट उतार दिया गया”। फरिश्ता लिखता है कि “राय पिथौरा लड़ाई के मैदान में ही मारा गया।”
हिन्दू ग्रंथों के अनुसार :- हम्मीर महाकाव्य के अनुसार “लड़ाई में सम्राट पृथ्वीराज चौहान को एक सिपाही ने धनुष का फंदा गले में डालकर अन्य सिपाहियों की मदद से बंदी बनाकर मार दिया।” सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद का पौत्र लक्ष्मीधर ग्रंथ विरुद्ध-विधि-विध्वंस में लिखता है कि “युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तुर्कों द्वारा मार दिए गए।”
पृथ्वीराज विजय में जयानक ने सम्राट के देहांत का वर्णन नहीं किया। इसके पीछे का मूल कारण यही प्रतीत होता है कि जयानक द्वारा लिखित ग्रंथ रामायण पर आधारित है और वह अपने नायक का अंत पराजय से नहीं करना चाहता था।
निष्कर्ष :- समकालीन हिन्दू ग्रंथों व फ़ारसी तवारीखों से ज्ञात होता है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर अजमेर ले जाया गया, जहां उन्हें इस्लाम कुबूल करने व गौरी की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया गया।
यातनाओं का सिलसिला करीब 10 दिन तक चलता रहा, लेकिन सम्राट टस से मस न हुए। तब गौरी के आदेश से एक सैनिक ने मोतियों से जड़ित सोने की तलवार से सम्राट का शिरच्छेदन कर दिया। यह घटना सम्भवतः 11 मार्च, 1192 ई. को हुई। सम्राट के भाई हरिराज ने अजयमेरु दुर्ग में ही सम्राट का अंतिम संस्कार किया।
एक अन्य मत का कोई समकालीन प्रमाण नहीं है, परन्तु यह मत भी प्रसिद्ध है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया, जहां उन्होंने शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन को शब्दभेदी बाण से मारा। परन्तु यहां एक तथ्य उल्लेखनीय है कि जो समाधि सम्राट पृथ्वीराज चौहान की बताई जाती है, वहां से लेकर गयासुद्दीन गौरी के मृत्यु स्थल हरात के बीच की दूरी तकरीबन 500 से 600 किलोमीटर है।
तराइन की दूसरी लड़ाई के घातक दुष्परिणाम (1192 ई. से 1206 ई. तक) :- शहाबुद्दीन गौरी ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान की राजधानी अजमेर, सवालक, हांसी व सरस्वती पर फ़तह हासिल की। शहाबुद्दीन गौरी ने सम्राट के पुत्र गोविंदराज से अधीनता स्वीकार करवाकर उसको अजमेर की गद्दी पर बिठाया।
गौरी ने अजमेर में मंदिरों का विध्वंस करके मस्जिदें बनवाने का हुक्म दिया। फिर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज ने गौरी की अधीनता स्वीकार करके गोविन्दराज से अजमेर छीन लिया। गोविन्दराज रणथंभौर में रहने लगे।
तराइन की दूसरी लड़ाई के 16 दिन बाद की घटना :- तराइन की लड़ाई में दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर के पुत्र तेजपाल द्वितीय भी मौजूद थे, जो अन्य जीवित बचे राजाओं को साथ लेकर दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में फिर लड़ाई हुई, जिसके बाद तेजपाल तोमर ने संधि करके अधीनता स्वीकार की।
सुल्तान जब गज़नी की तरफ लौट गया तो एक वर्ष बाद 1193 ई. में तेजपाल तोमर ने फिर से दिल्ली जीतने की कोशिश की। तेजपाल तोमर ने राजपूतों व हरियाणा के जाटों की मिली-जुली फौज एकत्र की, लेकिन गौरी का ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक विजयी रहा। इस लड़ाई में रामराय बड़गूजर के बेटे कुँवर भोजराज बड़गूजर भी तेजपाल तोमर की सेना में शामिल थे।
हसन निजामी के अनुसार कुतुबुद्दीन ने तेजपाल का सिर काटकर लालकोट किले पर टांग दिया और इस तरह दिल्ली पर तोमर राजवंश का अंत हुआ। कुतुबुद्दीन ने तोमरों द्वारा निर्मित 27 मंदिर-प्रासाद तुड़वाकर उनके अवशेषों पर चूना चढ़वाकर कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवाई।
फिर अजमेर के हरिराज चौहान ने दिल्ली से कुतुबुद्दीन को निकालने के लिए अपने सेनापति चतरराय को भेजा, लेकिन चतरराय पराजित होकर लौट आया। 1194 ई. में शहाबुद्दीन गौरी फिर हिंदुस्तान आया। गौरी ने बनारस व चन्दवाल पर फ़तह हासिल की।
गौरी ने कन्नौज के राजा जयचंद गहड़वाल को चंदावर की लड़ाई में शिकस्त दी। 1194 ई. में हुई इन लड़ाइयों में गौरी ने 300 हाथी और बहुत सा सामान लूटा और अपने साथ गज़नी ले गया। 1195 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने हरिराज को पराजित करके उससे अजमेर छीन लिया और वहां मुस्लिम हाकिम नियुक्त किया।
इस तरह प्रतापी चौहान साम्राज्य का अंत हुआ और राजपूताने के मध्य (अजमेर) में मुस्लिमों का कब्ज़ा हो गया। इसी वर्ष कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर हमले किए, जिसका बदला लेने के लिए गुजरात वालों ने मेरों की मदद लेकर कुतुबुद्दीन को अजमेर तक खदेड़ दिया और अजमेर पर घेरा डाल दिया।
तब गौरी ने ग़ज़नी से फौज फिजवाकर यह घेरा उठवाया।इसी वर्ष गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक ने मिलकर तिमनगढ़ फ़तह किया। फिर शहाबुद्दीन गौरी ने गुजरात वालों को सज़ा देने के लिए उनसे आबू के निकट लड़ाई की, जिसमें शिकस्त खाकर गौरी को भागना पड़ा।
इस हार का बदला लेने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर चढ़ाई कर फ़तह हासिल की और गुजरात को लूटता हुआ लौट गया। 1202 ई. में शहाबुद्दीन गौरी ने गरजिस्तान के किले लखान में खुसरो मलिक को उसके बेटे समेत क़त्ल किया। इस तरह गौरी ने गज़नवी खानदान का ख़ात्मा किया।
13 मार्च, 1206 ई. को शहाबुद्दीन गौरी लाहौर से गज़नी की तरफ लौटते वक्त गज़नी के इलाके धमेक (दमयक) में खोखरों के हाथों कत्ल हुआ। गौरी का ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के तख़्त पर बैठा, जहां से गुलाम वंश की शुरूआत हुई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)