चर्चित कथा जो अक्सर बहुत से लोग सच मानते हैं कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली की गद्दी उनके नाना अनंगपाल तोमर द्वितीय ने भेंट की, तो ये मात्र कल्पना है। बहुत से लोग मानते हैं कि राजा अनंगपाल तोमर द्वितीय के कोई पुत्र नहीं था, जो की सरासर गलत धारणा है।
राजा अनंगपाल तोमर द्वितीय का शासनकाल 1051 से 1081 ई. तक का था, जिनके देहांत के 85 वर्ष बाद सम्राट पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ। अब यदि कोई कहे कि अनंगपाल नाम के 2 राजा हुए थे तो ये दूसरे वाले ही हैं।
राजा अनंगपाल तोमर से लेकर राजा चाहड़पाल तक की तोमर वंशावली :- राजा अनंगपाल तोमर द्वितीय (1051 ई. – 1081 ई.), राजा तेजपाल प्रथम (1081 ई. से 1105 ई.), राजा महिपाल (1105 ई. – 1130 ई.), राजा विजयपाल (1130 ई. – 1151 ई.), राजा मदनपाल (1151 ई. – 1167 ई.), राजा पृथ्वीपाल (1167 ई. – 1189 ई.), राजा चाहड़पाल (गोविंदराय) (1189 ई. – 1192 ई.)
सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समकालीन दिल्ली के तोमर शासकों के सिक्के भी अस्तित्व में आये हैं। खतरगच्छ बृहदगुर्वावली, इंद्रप्रस्थ प्रबंध, तबकात-ए-नासिरी आदि समकालीन ग्रंथ व तवारीखों में सम्राट के समकालीन दिल्ली के तोमर शासकों का वर्णन मिलता है। अब हम यहां 2 बड़े इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत रखते हैं :-
हरिहर द्विवेदी जी ने लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान और नागार्जुन की लड़ाई के समय राजा पृथ्वीपाल तोमर ने नागार्जुन को फौजी मदद दी थी, इसलिए उस समय दिल्ली का शासक स्वतंत्र था। फिर हरिहर द्विवेदी आगे लिखते हैं कि 1189 ई. में राजा चाहड़पाल तोमर जब दिल्ली की गद्दी पर बैठे तो पृथ्वीराज चौहान ने उनसे मित्रता की।
दूसरा मत प्रख्यात इतिहासकार डॉक्टर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का है, जो लिखते हैं कि बीसलदेव ने 1150 ई. में तोमरों से दिल्ली फतह की, जिसके बाद सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समय चौहान वंश की राजधानी थी अजमेर, जिसका एक सूबा था दिल्ली। अर्थात ओझा जी ने दिल्ली के तोमरों को चौहानों के अधीन बताया है और इसके पीछे दिल्ली के एक स्तम्भ शिलालेख का वर्णन साक्ष्य रूप में दिया है।
भादानकों से हुआ युद्ध :- यह लड़ाई अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग समय पर होना बताई गई है, इसलिए इसका समयकाल 1179 ई. से 1181 ई. के बीच होना चाहिए।
भादानकों का राज गुड़गांव, भिवानी, बयाना आदि इलाकों पर था। यदुवंशियों की राजधानी तिमनगढ़ थी, जिनका सामंत सोहनपाल भादानक (वर्तमान बयाना नगर) पर राज करता था। भादानकों से लड़ाई में चौहान सम्राट विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) को भी क़ामयाबी नहीं मिली थी।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने भादानकों की फौजी ताकत का सटीक अंदाज़ा लगाकर हमले की पहल की। सम्राट ने नारायन नामक स्थान पर अपनी कुल फौज जमा की। यह स्थान वर्तमान में अजमेर के निकट स्थित नरायणा ही है।
सम्राट ने सेनापति कैमास के साथ नारायन से कूच किया। सम्राट ने भादानकों को परास्त कर बयाना पर अधिकार कर लिया। जिनपति सूरी ने अपने ग्रंथ में सम्राट पृथ्वीराज चौहान को ‘भादानकोर्वीपति’ नामक उपाधि दी।
1182 ई. में चंदेलों से हुई लड़ाई :- सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर चढ़ाई की। चंदेल नरेश जेजामुक्ति के राजा परमर्दिदेव ने अपने सामंत मलखान को फौज देकर विदा किया।
सिरसागढ़ में सम्राट और मलखान के बीच हुई लड़ाई में सम्राट के सेनापति कैमास ने मलखान और उसके भाई सलखान को मार गिराया। राजा परमर्दिदेव ने संदेश भिजवाकर कन्नौज से आल्हा और ऊदल को बुलाया।
आल्हा और ऊदल बड़े दर्जे के वीर योद्धा थे। गहड़वाल राजा जयचंद ने आल्हा और ऊदल को एक फौज देकर विदा किया। इस तरह इस मिली-जुली फौज को सम्राट पृथ्वीराज ने शिकस्त दी। इस लड़ाई में सम्राट की तरफ से विजयराय वीरगति को प्राप्त हुए।
मदनपुर शिलालेख के अनुसार सम्राट ने उन्हें शिकस्त देकर उनके इलाकों को खूब लूटा। शिलालेख केवल लूटने की बात लिखता है, ना कि अधिकार करने की। कुछ इतिहासकारों ने तर्कों सहित यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट ने कालिंजर और महोबा पर अधिकार नहीं किया, बल्कि इन इलाकों को लूटा और सिरसागढ़ पर जरूर अधिकार किया।
इसीलिए इस अभियान को सम्राट का अपूर्ण अभियान भी कहा जाता है। जो क्षेत्र सम्राट ने जीता वह भी राजा परमर्दिदेव ने तराइन की लड़ाई के बाद फिर से चौहानों से छीन लिया।
सतलज घाटी की लड़ाई :- कुछ इतिहासकारों ने 1182-83 ई. में सम्राट पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन गौरी के बीच एक लड़ाई होने का ज़िक्र किया है, जो सतलज किनारे हुई।
हमें इस लड़ाई का वर्णन समकालीन ग्रंथों या किसी प्रामाणिक पुस्तक से नहीं मिला है। इस घटना का एक शिलालेख है जो फलौदी-जोधपुर में है, परन्तु यह शिलालेख भी 1555 ई. का है, जो विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता, इसलिए इस लड़ाई का वर्णन हमने नहीं लिखा है।
1184 ई. में शहाबुद्दीन गौरी ने देवल की तरफ़ चढ़ाई करके समुद्र के किनारे का मुल्क फ़तह किया। इसी वर्ष गौरी ने सियालकोट का किला बनवाया।
1184 ई. में नागौर की लड़ाई हुई। गुजरात के भीमदेव सोलंकी ने जगदेव व धारावर्ष को फौज देकर नागौर की तरफ भेजा। नागौर में चौहानों से हुई लड़ाइयों के बाद संधि हुई।
1187 ई. में अजमेर से कुछ व्यापारी गुजरात गए। अभयड नामक दंडनायक ने उनको लूटने की सलाह जगदेव को दी पर जगदेव ने संधि के नियमों का उल्लंघन नहीं किया।
1189 ई. में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर का देहांत हुआ व राजा चाहड़पाल तोमर दिल्ली की गद्दी पर बैठे। राजा चाहड़पाल को ही ग्रंथों में राजा गोविंदराय लिखा गया है।
इन्हीं दिनों शहाबुद्दीन गौरी ने तबरहिन्द (भटिंडा) का किला फ़तह करके काजी ज़ियाउद्दीन तोलक को सौंप दिया। गौरी ने यहां हज़ारों घुड़सवार भी तैनात कर दिए। ये गौरी की एक महत्वपूर्ण विजय थी। गौरी की इस विजय के बाद हिंदुस्तान के राजाओं को लगने लगा कि अब गौरी को इस मुल्क से नहीं खदेड़ा तो सभी के लिए घातक सिद्ध होगा।
शहाबुद्दीन गौरी के बढ़ते वर्चस्व को देखकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अन्हिलपाटन के चालुक्यों और दिल्ली के तोमरों से पुरानी शत्रुता भुलाते हुए मित्रता कर ली।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)