पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ चन्दबरदाई ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर लिखा। इस ग्रन्थ को अधिकतर लोग सही मानते हैं, पर कई महान इतिहासकारों ने इसकी सच्चाई पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं। अब यहां उन बातों को विस्तार से लिखा जा रहा है, जो इस ग्रंथ की वास्तविकता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं :-
1) चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के देहान्त का वर्ष 1101 ई. लिखा है, जबकि उनका देहान्त 1192 ई. में होना सभी जानते हैं। अब यदि कोई ये कहे कि चन्दबरदाई ने ऐसा गलती से लिख दिया होगा, तो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि पृथ्वीराज रासो में संवत् वगैरह सब कुछ काव्य रुप में लिखा है।
2) इसी तरह पृथ्वीराज चौहान के जन्म का वर्ष चन्दबरदाई कुछ इस तरह बताता है :- “एकादस से पंचदह विक्रम साक अनन्द। तिही रिपुपुर जय हरन को भे पृथिराज नरिन्द।।” अर्थात् शुभ संवत् विक्रमी 1114 (1057 ई.) में राजा पृथ्वीराज अपने शत्रु का नगर अथवा देश लेने को उत्पन्न हुआ। उक्त संवत वास्तविक तिथि से लगभग 100 वर्ष पहले का है।
3) पृथ्वीराज रासो के मुताबिक मेवाड़ के रावल समरसिंह भी पृथ्वीराज चौहान के साथ 1101 ई. में वीरगति को प्राप्त हुए। इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि रावल रतनसिंह रावल समरसिंह के पुत्र थे और रावल रतनसिंह 1302 ई. में राजगद्दी पर बैठे। रावल समरसिंह के देहान्त के 201 वर्ष बाद उनके पुत्र रत्नसिंह का मेवाड़ की गद्दी पर बैठना सम्भव नहीं।
4) पृथ्वीराज रासो में मेवाड़ के रावल समरसिंह का विवाह पृथ्वीराज चौहान की बहिन से होना लिखा है, जबकि रावल समरसिंह 1273 ई. में राजगद्दी पर बैठे, तो उनका विवाह पृथ्वीराज चौहान की बहन से होना सम्भव नहीं है, क्योंकि पृथ्वीराज चौहान रावल समरसिंह से 100 वर्ष पहले के थे।
5) रावल रतनसिंह व रानी पद्मिनी के बारे में चन्दबरदाई ने लिखा है कि “अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को पराजित किया। रानी पद्मिनी समेत कई औरतें कैद हुई व कैदखाने में मर गई”। वास्तव में ये जौहर 1303 ई. में हुआ था अर्थात रासो में चंदबरदाई की मृत्यु के 100 वर्ष बाद की घटना भी दर्ज है।
6) चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान द्वारा गुजरात के भीमदेव सोलंकी का वध करने की बात लिखी है, जबकि प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि राजा भीमदेव सम्राट पृथ्वीराज के देहांत के कुछ बर्ष बाद तक भी जीवित रहे।
7) विवाह वगैरह के खयाली किस्से :- पृथ्वीराज चौहान का संयोगिता के साथ प्रेम-प्रसंग यदि कोई पृथ्वीराज रासो से पढे, तो शायद ही विश्वास कर पाए। चन्दबरदाई के अनुसार एक तोते द्वारा संदेशों के आदान-प्रदान से ये प्रेम प्रसंग चला।
पृथ्वीराज चौहान द्वारा एक अन्य रानी हंसावती से विवाह के बारे में चन्दबरदाई ने फिर उसी तोते द्वारा संदेशों के आदान-प्रदान की बात लिखी। चन्दबरदाई के अनुसार एक हंस के कहने पर पृथ्वीराज चौहान ने देवगिरी के राजा की पुत्री पद्मावती से विवाह किया।
पृथ्वीराज रासो के अनुसार उज्जैन के राजा भीमदेव परमार की पुत्री इन्द्रावती से पृथ्वीराज चौहान का विवाह हुआ, जबकि उज्जैन के परमारों की वंशावली देखने पर मालूम हुआ कि वहाँ भीमदेव नाम का कोई राजा हुआ ही नहीं।
8) पृथ्वीराज रासो के अनुसार राजा जयचन्द गंगा में डूब के मर गए। राजा जयचन्द 1194 ई. में वीरगति को प्राप्त हुए थे, जबकि यदि चन्दबरदाई 1192 ई. में ही मर गया होता, तो वो ये बात नहीं लिख सकता।
9) चन्दबरदाई ने मुहम्मद गौरी के पिता का नाम विश्वविजेता सिकन्दर लिखा है, जो कि मुहम्मद गौरी से 1300 वर्ष पहले का था। असल में मुहम्मद गौरी बहाउद्दीन का बेटा था।
10) चन्दबरदाई ने मुहम्मद गौरी के काज़ी का नाम “मदन” लिखा है, जबकि मुहम्मद गौरी का काज़ी “काज़ी ममालिक सद्र शहीद निजामुद्दीन अबूबक्र” था। चन्दबरदाई ने कभी फारसी तवारिखें नहीं पढी, जिस वजह से उसने मुहम्मद गौरी के सिपहसालारों के जो नाम लिखे हैं, वे सभी काल्पनिक हैं और हर एक नाम के पीछे “खां” लगा दिया, जो कुछ इस तरह हैं :-
खुरासान खां, मूसन खां, दादू खां, सालम खां, सकत खां, हीरन खां, ताजन खां, हासन खां, पीरोज खां, अली खां, ऊमर खां, रेसन खां, काइम खां, देगन खां, तोसन खां, गजनी खां, आलम खां, ममरेज खां, जलाल खां, राजन खां, जोसन खां, ततार खां, सोसन खां, मुस्तफा खां,
पीरन खां, मीरन खां, जलू खां, हाजी खां, विराहम खां, नवरोज खां, सुरेम खां, कोजक खां, मोहबत खां, मिरजा खां, दोसन खां, जलेब खां, गाजी खां, मीर खां, एलची खां, सहदी खां, नगदी खां, महदी खां, लालन खां, सेरन खां, एरन खां, समोसन खां, गालिब खां।
पढने से ही ये नाम खयाली मालूम पड़ते हैं। मुहम्मद गौरी के सिपहसालारों के कुछ असली नाम इस तरह हैं :- अमीर हाज़िब हुसैन हवशी, अमीर हाज़िब हुसैन अली गाज़ी, मलिक ताजुद्दीन ज़ंगी बामियान, मलिक हिमामुद्दीन अली किर्माज़, मलिक ज़ियाउद्दीन, मलिक ताजुद्दीन मकरान, मलिक नासिरुद्दीन तमरान, मलिक शहाबुद्दीन मादिनी
व अन्य।
11) पृथ्वीराज चौहान की मदद के लिए रावल समरसिंह दिल्ली पहुंचे। इस बारे में रासो का ग्रंथकर्ता रावल समरसिंह की तारीफ करते हुए लिखता है “दक्खनि साहि भंजन अलग्ग चन्देरी लिइ किय नाम जग्ग”। इन शब्दों से ग्रंथकर्ता का प्रयोजन मांडू के बादशाह से है, क्योंकि चन्देरी उन्हीं के कब्जे में थी और मांडू राजपूताना से दक्षिण की तरफ है और चन्देरी को राणा सांगा ने मांडू के बादशाह से लिया था।
ग्रंथकर्ता यह भी नहीं जानता था कि मांडू की बादशाहत की बुनियाद दिलावर गौरी ने 1403 ई. में कायम की थी।
चन्देरी राणा सांगा ने 1518 ई. में ली थी, इसलिए साफ जाहिर होता है कि इस ग्रन्थ में 1518 ई. तक का वर्णन मौजूद है।
12) रासो के ग्रंथकर्ता ने स्वयं को शुरू से अंत तक नायक के बराबर दर्जा देते हुए केंद्र में रखकर इसकी रचना की है। जयानक का वर्णन अधिक स्पष्ट है, क्योंकि जयानक सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी थे। जयानक ने अपने ग्रंथ में कहीं भी चंदबरदाई का ज़िक्र नहीं किया है। चंदबरदाई ने चौहानों को अग्निवंशी बताया है, जबकि प्रतिदिन सम्राट के दरबार में विराजमान रहने वाले जयानक ने चौहानों को सूर्यवंशी बताया है।
निष्कर्ष :- पृथ्वीराज रासो के एक दोहे में छंदों की संख्या 7 हज़ार बताई गई है, लेकिन समय-समय पर इसमें अनगिनत बदलाव हुए और छंदों की संख्या 16300 या इससे भी अधिक हो गई, जिससे मूल रासो पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो गई।
वर्तमान रासो में ना तो सम्राट पृथ्वीराज की जन्म तिथि सही है, ना देहांत का समय, ना युद्धों का हाल सही है और ना ही विवाह संबंधों की जानकारी। कई ऐसी घटनाएं भी शामिल हैं, जो चंदबरदाई के देहांत के बाद घटित हुईं, इसलिए हमारे द्वारा लिखित विवरण में रासो का कोई भी अंश सम्मिलित नहीं है।
कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि मूल रासो को विकृत कर दिया गया है, जबकि कई इतिहासकार ये मानते हैं कि रासो की रचना ही 1518 ई. के बाद हुई। बहरहाल, ये सिद्ध करना मुश्किल है कि रासो की रचना कब हुई, परन्तु रासो के विकृत होने में कोई संदेह नहीं है। रासो को आधार मानकर जिन्होंने भी अपनी पुस्तकें लिखीं, उन्होंने भी उन्हीं गलतियों का प्रसार किया।
यहां हम एक बात का उल्लेख और कर रहे हैं। जो लोग पृथ्वीराज रासो के बयान पर ये कहते हैं कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान या उस समय राजपूत शब्द अस्तित्व में नहीं था, उन लोगों के लिए बड़ी समस्या आ गई है। क्योंकि रासो में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की फौज में शामिल अलग-अलग वंश के नामों का ज़िक्र करते हुए उन्हें स्पष्ट रूप से “रजपूत” लिखा गया है। जो लोग ये कहते हैं कि रासो में राजपूत शब्द का उल्लेख ही नहीं है, उन्होंने कभी रासो पढ़ी ही नहीं है। रासो का ग्रंथकर्ता सम्राट की बहिन की शादी मेवाड़ में होना लिखता है, अब जो लोग रासो को सही मानकर सम्राट के राजपूत होने पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं, उन्हें पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत
Sir us hisab se to chandra bardi ke dihe “char bans chibis gaj” pr b suk hota h.or jo suna jata hai ki prathavi raj ne gori ho afgan ja kr mara tha andha hone k bad b..ye bate shi h ya galt