जगदीश मंदिर का निर्माण :- महाराणा जगतसिंह ने लाखों रुपए खर्च करके भगवान विष्णु का पंचायतन शैली का भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर पर मूर्तियों का जो अलंकरण किया गया है, उसका कोई सानी नहीं है। यह देशभर के सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।
भगवान विष्णु के पंचायतन शैली की मंदिर की विशेषता ये होती है कि मध्य में मुख्य विशाल मंदिर भगवान विष्णु का होता है और मंदिर की परिक्रमा के चारों कोनों में से ईशान कोण में शंकर भगवान, अग्नि में गणपति, नैऋत्य में सूर्य व वायव्य में देवी के छोटे-छोटे मंदिर होते हैं।
पूर्व और उत्तर के बीच की दिशा को ईशान, दक्षिण और पूर्व के बीच की दिशा को अग्नि या आग्नेय, दक्षिण और पश्चिम के बीच की दिशा को नैऋत्य, उत्तर और पश्चिम के बीच की दिशा को वायव्य कहते हैं।
जगदीश मंदिर गूगावत पंचोली कमल के पुत्र अर्जुन की निगरानी में व सूत्रधार भाणा और उनके पुत्र मुकुंद की अध्यक्षता में बना। इस मंदिर की प्रतिष्ठा 24 मई, 1652 ई. को की गई। यह दिन गुरुवार का था, इस दिन भव्य समारोह रखा गया, जिसमें बहुत धन दान किया गया।
जगदीश मंदिर को “सपने में बना मंदिर” भी कहते हैं। इस मंदिर में कुल 50 स्तम्भ हैं। मंदिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर हज़ार गायें, सोना, घोड़े आदि दान किए गए। 5 गांव ब्राह्मणों को दान किए गए। भाणा और उनके पुत्र मुकुंद को सोने व चांदी के हाथी और चित्तौड़गढ़ के पास का एक गांव भेंट किया गया।
जगदीश मंदिर में एक प्रशस्ति खुदवाई गई, जिसकी रचना कृष्णभट्ट ने की। यह प्रशस्ति मेवाड़ के इतिहास की दृष्टि में बहुत उपयोगी है। इस मंदिर के निर्माण में उस ज़माने के 15 लाख रुपए का खर्चा हुआ था।
जगदीश मंदिर उदयपुर का सबसे ऊंचा मंदिर है, जिसकी ऊंचाई 79 फीट है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए 32 सीढियां हैं। यह मंदिर उदयपुर राजमहल के निकट ही स्थित है। जगदीश मंदिर की मूर्तिकला संसार भर में प्रसिद्ध है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत :- मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त के मुताबिक महाराणा द्वारा चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं करवाई जा सकती थी। इस सन्धि की शर्त के बर्खिलाफ जाकर महाराणा कर्णसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत शुरु करवाई थी।
महाराणा जगतसिंह ने भी चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत जारी रखी। 1567-68 ई. में बादशाह अकबर के हमले से चित्तौड़ दुर्ग में टूटे हुए पाडनपोल, लक्ष्मणपोल व माला बुर्ज़ महाराणा कर्णसिंह ने बनवाना शुरू किया था, लेकिन यह निर्माण कार्य पूरा महाराणा जगतसिंह ने करवाया।
धाय के मंदिर का निर्माण :- महाराणा जगतसिंह की धाय नौजूबाई ने जगदीश मंदिर के पास उत्तर दिशा में एक मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर पर उत्कीर्ण प्रशस्ति मेवाड़ी भाषा में लिखित है।
जगमंदिर व मोहनमन्दिर का निर्माण :- जगमंदिर का बड़ा गुम्बज महाराणा कर्णसिंह ने बनवाया था। फिर महाराणा जगतसिंह ने जगमंदिर में जनाना महल, बगीचा आदि बनवाकर इसका नाम अपने नाम से जगमंदिर रखा। महाराणा जगतसिंह ने अपनी खवास के बेटे मोहनदास के नाम से पीछोला झील में मोहनमंदिर महल बनवाया।
उदयसागर झील किनारे महल का निर्माण :- महाराणा उदयसिंह ने उदयसागर झील का निर्माण करवाया था। महाराणा जगतसिंह ने उदयसागर झील की पाल के नीचे पूर्वी तरफ एक नाले के पास महल बनवाया, जिसके खंडहर अभी भी मौजूद हैं।
महाराणा जगतसिंह द्वारा किए गए दान पुण्य के कार्य :- महाराणा जगतसिंह जिस वर्ष गद्दी पर बैठे, तब से ही प्रतिवर्ष चाँदी का तुलादान करते थे। इन महाराणा ने कुल 24 वर्ष राज किया, इसलिए 24 बार चांदी का तुलादान भी किया।
महाराणा जगतसिंह अपने जन्मदिन पर बहुत सा धन दान करते थे। इन्होंने कल्पवृक्ष, सप्तसागर, रत्नधेनु व विश्वचक्र जैसे बड़े दान किए। महाराणा ने काशी के ब्राह्मणों के लिए बहुत सा सोना भेजा।
महाराणा जगतसिंह ने अपने जन्मदिन पर जगदीश मंदिर की प्रशस्ति के रचनाकार कृष्णभट्ट को चित्तौड़ के पास स्थित भैंसड़ा गांव दिया। मधुसूदन भट्ट को आहाड़ गांव में 2 हलवाह भूमि दी। महाराणा जगतसिंह जब ओंकारनाथ की यात्रा पर गए, तो वहां स्वर्ण का तुलादान किया।
महाराणा जगतसिंह ने मेवाड़ के कैलाशपुरी स्थित एकलिंग जी के मंदिर पर स्वर्ण के कलश व ध्वजदंड चढ़ाए। इन महाराणा की माता ने द्वारिका व प्रयाग में चाँदी की तुलाएँ की। कुँवर राजसिंह ने भी इन यात्राओं पर तुलादान किए।
महाराणा जगतसिंह ने 1648 ई. से प्रतिवर्ष स्वर्ण का तुलादान करने का निश्चय किया। महाराणा जगतसिंह का देहांत 1652 में हुआ, इसलिए इन्होंने 5 बार स्वर्ण का तुलादान किया। चारण कवियों के अनुसार महाराणा जगतसिंह ने अपने शासनकाल में कुल 700 हाथी, 56 हज़ार घोड़े व 51 गांव दान में दिए थे।
महाराणा जगतसिंह के बारे में एक दोहा प्रचलित है कि “साईं करे परेवड़ा, जगपत रे दरबार। पिछोले पाणी पियां, कण चुग्गां कोठार।।” अर्थात यदि ईश्वर हमको जानवर भी बनावे, तो महाराणा जगतसिंह के दरबार का कबूतर बनावे, ताकि पिछोला का पानी पी सकें और कोठार में दाने चुग सकें।
महाराणा जगतसिंह का देहांत :- 1652 ई. में महाराणा जगतसिंह यात्रा पर जाना चाहते थे, परन्तु 25 अक्टूबर, 1652 ई. को महाराणा जगतसिंह का देहान्त हो गया। ओझा जी जैसे विख्यात इतिहासकार ने भी भूल कर दी। ओझा जी ने महाराणा जगतसिंह के देहांत का दिन 10 अप्रैल, 1652 ई. लिखा है और जगदीश मंदिर की प्रतिष्ठा का दिन 13 मई, 1652 ई. लिखा है।
महाराणा जगतसिंह की 11 रानियां थीं, जिनमें से ये 6 रानियां सती हुईं :- 1) ईडर की राठौड़ रानी 2) रानी बालोतणी जी चौहान 3) छप्पन की राठौड़ रानी 4) झाली रानी, जो कि राजराणा हरिदास झाला की पुत्री थीं 5) छोटी मेड़तणी रानी 6) परमार रानी
महाराणा जगतसिंह के देहांत से प्रजा को बहुत दुःख हुआ। महाराणा जगतसिंह ने अपने जीवन में बहुत अधिक दान पुण्य के कार्य करके अपना नाम कमाया, परन्तु जो धन संपत्ति उन्होंने दान की थी, वो उनके पूर्वजों ने बड़ी मेहनत से संचित की थी। फिर आगे जाकर मराठों के आक्रमण के दौरान एक समय ऐसा भी आया कि मेवाड़ ने बहुत ज्यादा आर्थिक तंगी का सामना किया।
महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में मुगलों से कोई बड़ी लड़ाई नहीं हुई, परन्तु इन महाराणा ने बार-बार मुगल-मेवाड़ सन्धि की शर्तों का उल्लंघन करने के प्रयास किए। हालांकि महाराणा जगतसिंह बीच-बीच में शाहजहां को उपहार आदि भेंट करके उसका क्रोध भी शांत करते रहे। इस कूटनीति का परिणाम ये हुआ कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग की रक्षा प्राचीर सुदृढ़ होने लगी।
आहड़ में महाराणा अमरसिंह की छतरी के ठीक पास में अग्निकोण की ऊँची कुर्सी पर स्थित 2 छोटी छतरियों में से एक महाराणा कर्णसिंह की है व दूसरी महाराणा जगतसिंह की है। महाराणा जगतसिंह की 4 पुत्रियां व 5 पुत्र हुए। महाराणा जगतसिंह की 4 पुत्रियों में से एक का विवाह बूंदी के कुँवर भावसिंह हाड़ा से हुआ।
महाराणा जगतसिंह के पुत्र :- 1) कुँवर संग्रामसिंह :- इनका देहांत बचपन में ही हो गया। 2) महाराणा राजसिंह :- ये मेवाड़ की राजगद्दी पर बिराजे। 3) कुँवर अरिसिंह :- इनके वंशजों का ठिकाना तीरोली है। शक्तावतों को हींता की जागीर मिलने से पहले वहां के जागीरदार भी कुंवर अरिसिंह के ही वंशज थे। 4) कुँवर अजयसिंह :- इनकी कोई संतान नहीं हुई। 5) कुँवर जयसिंह :- इनकी भी कोई संतान नहीं हुई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)