महाराणा जगतसिंह द्वारा बल्लू जी को घोड़ा भेंट करना :- 1644 ई. में नागौर के वीर योद्धा राव अमरसिंह राठौड़ ने शाहजहां के दरबार में बादशाह के साले सलावत खां को मार दिया था, जिसके कुछ समय बाद अर्जुन गौड़ ने राव अमरसिंह की हत्या कर दी। राव अमरसिंह की हत्या का बदला लेने के लिए वीर बल्लू चांपावत ने कमर कसी।
बल्लू चांपावत मारवाड़ नरेश सूरसिंह राठौड़ के यहां रहते थे, परन्तु बल्लू जी मिजाज़ के बहुत तेज थे, इसलिए कुछ तकरार होने के बाद मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के पास चले आए। फिर महाराणा कर्णसिंह के समय नागौर के कुँवर अमरसिंह राठौड़ ने बल्लू जी को नागौर बुलाया, तो बल्लू जी ने मेवाड़ से विदा ली।
महाराणा जगतसिंह को उत्तम घोड़े रखने का बहुत शौक था। इन्हीं दिनों एक काठियावाड़ी चारण 3 घोड़े लेकर महाराणा के सामने हाजिर हुए और हर एक घोड़े की कीमत 10 हज़ार रुपए बताई। कीमत बहुत ज्यादा होने के कारण महाराणा ने एतराज जताया, तो चारण ने कहा कि आप इन घोड़ों की परीक्षा ले सकते हैं।
इन घोड़ों की सख़्त परीक्षा ली गई, जिसमें एक घोड़ा मर गया और दो जीवित रहे। महाराणा जगतसिंह ने चारण को तीनों घोड़ों के 30 हज़ार रुपए दिए और कहा कि एक घोड़ा हम खुद अपने लिए रखेंगे और दूसरा घोड़ा बल्लू चांपावत के लिए ठीक रहेगा।
जब राव अमरसिंह जी की हत्या कर दी गई, तो बल्लू जी ने जैसे ही बदला लेने के लिए प्रण लिया, तभी वहां महाराणा जगतसिंह द्वारा भेजा गया एक आदमी वह उत्तम घोड़ा लेकर वहां आ पहुंचा और बल्लू जी को घोड़ा भेंट किया।
बल्लू जी ने उस आदमी से कहकर महाराणा जगतसिंह से अर्ज़ करवाई कि “आपने मुझे ऐसे समय पर यह भेंट दी है, कि मैं आपका शुक्रिया अदा नहीं कर सकता। मैं तो इस लड़ाई में मारा जाऊंगा, पर ईश्वर आपको इस उपकार का फल अवश्य देगा।”
बल्लू जी तो इस लड़ाई में अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए काम आए और घोड़े ने जो शौर्य दिखाया, वह भी इतिहास में सदा के लिए अमर हो गया। आगरा के किले के अमरसिंह दरवाज़े के निकट खाई के किनारे वेदी पर एक घोड़े की लाल पत्थर की मूर्ति है, जिसको आजकल लोग अमरसिंह राठौड़ का घोड़ा बताते हैं, पर असल में वह स्मारक बल्लू जी चांपावत के घोड़े का है।
महाराणा जगतसिंह द्वारा कल्याण झाला को शाही दरबार में भेजना :- सितंबर, 1644 ई. में महाराणा जगतसिंह ने देलवाड़ा के झाला मानसिंह के पुत्र कल्याण झाला को शाहजहां के यहां भेजा। कुछ दिन वहां रहने के बाद विदाई के दिन शाहजहां ने कल्याण झाला को खिलअत, सुनहरी मीनाकारी के काम वाली तलवार, ढाल, चांदी की जीन वाला घोड़ा और हाथी भेंट किया।
सन्धि की शर्त के अनुसार मेवाड़ के महाराणा को अपने ज्येष्ठ पुत्र को मुगल सेवा में भेजना था, परन्तु महाराणा जगतसिंह ने कुँवर राजसिंह को बहुत कम बार मुगल बादशाह के यहां भेजा। महाराणा जगतसिंह हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर अपने प्रतिष्ठित सरदार को भेजकर काम चलाने का प्रयास करते थे।
हमीरसिंह सिसोदिया का शाही सेवा में जाना :- 27 जून, 1645 ई. को दूदा सिसोदिया के पौत्र व ईश्वरदास के पुत्र हमीरसिंह सिसोदिया, जो कि महाराणा जगतसिंह की सेवा में थे, परन्तु किसी कारणवश मेवाड़ से निकलकर शाहजहां के पास चले गए, जहां शाहजहां ने उनको 500 जात और 300 सवारों का मनसब दिया।
महाराणा जगतसिंह द्वारा बलराम को शाही दरबार में भेजना :- 11 जुलाई, 1647 ई. को महाराणा जगतसिंह ने अपने वकील बलराम को एक अर्जी देकर शाहजहाँ के पास भेजा। बलराम ने शाहजहां को सोने से सुसज्जित एक घोड़ा भेंट किया।
ये घोड़ा शाहजहां ने नजर मुहम्मद खां के बेटे खुसरो को दे दिया। कुछ दिन बाद शाहजहां ने बलराम को खिलअत व घोड़ा भेंट करके विदा किया। शाहजहां ने बलराम के साथ महाराणा जगतसिंह व कुँवर राजसिंह के लिए खिलअत व सोने की जीन के दो घोड़े भिजवाए।
महाराणा जगतसिंह की मालवा के सूबेदार से झड़प :- 1647 ई. में महाराणा जगतसिंह उंकारनाथ की यात्रा करने के लिए उदयपुर से रवाना हुए। महाराणा ने सबसे पहला पड़ाव उदयसागर झील की पाल पर डाला। यहीं महाराणा जगतसिंह ने अपने लिए महल बनवाए थे, वहां रात रुके।
इसी प्रकार जगह-जगह पड़ाव डालते हुए महाराणा जगतसिंह उज्जैन पहुंचे। उज्जैन में मालवा के सूबेदार से महाराणा जगतसिंह का झगड़ा हो गया, लेकिन महाराणा की फौजी ताकत देखकर सूबेदार ने अधिक उलझना ठीक न समझा और वहां से चला गया।
महाराणा जगतसिंह ने क्षिप्रा नदी में स्नान किया और फिर मांधातापुरी (उंकारनाथ) में पहुंचे। फिर महाराणा जगतसिंह ने नर्मदा नदी में स्नान किया और 22 जून, 1648 ई. को स्वर्ण का तुलादान किया। स्वर्ण के तुलादान से आशय है कि अपने वजन के बराबर सोने का दान करना।
फिर महाराणा जगतसिंह उदयपुर पधारे। मालवा के सूबेदार ने महाराणा जगतसिंह की लंबी चौड़ी शिकायत की सूची बनाकर बादशाह शाहजहां को लिख भेजी, जिससे शाहजहां दिल से नाराज हुआ, पर उसकी तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई।
महाराणा जगतसिंह को पहले ही अंदेशा हो गया था कि सूबेदार उनकी शिकायत बादशाह से करेगा। महाराणा इस समय शाहजहां को भड़काना नहीं चाहते थे, इसलिए महाराणा ने यात्रा के दौरान ही मेवाड़ संदेश भेजकर कुँवर राजसिंह को शाहजहां की बल्ख और बदख्शां पर विजय के बधाई पत्र समेत शाहजहां के पास जाने को कहा।
4 मार्च, 1648 ई. को कुँवर राजसिंह शाहजहां के पास गए और बधाई पत्र दिया। कुंवर राजसिंह फौरन ही ये कहते हुए लौट आए कि महाराणा सा यात्रा पर हैं, इसलिए राजकाज का कार्य मुझको सौंप गए हैं। इस समय कुंवर राजसिंह की आयु 19 वर्ष थी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)