महाराणा जगतसिंह का राज्याभिषेक उत्सव :- 28 अप्रैल, 1628 ई. को महाराणा जगतसिंह के राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया। मेवाड़ में यह रिवाज था कि जब भी किसी शासक का देहांत होता, तो उत्तराधिकारी का राजतिलक उसी दिन कर दिया जाता था। उत्तराधिकारी अपने पिता के दाह संस्कार में भी भाग नहीं लेता था। कारण ये था कि राजगद्दी खाली नहीं रहनी चाहिए। परन्तु राज्याभिषेक का उत्सव कुछ दिन बाद शुभ मुहूर्त में रखा जाता था।
महाराणा जगतसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा जगतसिंह का कद मंझला, बदन मज़बूत, आंखें बड़ी, चौड़ी पेशानी, हँसमुख चेहरा व रंग गेहुंआ था। ये महाराणा मिलनसार स्वभाव व बुलंद हिम्मत वाले थे। महाराणा जगतसिंह में गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी थे। महाराणा जगतसिंह अदूरदर्शी थे।
दान-पुण्य का कार्य करना बहुत भला काम है, परन्तु इन महाराणा ने बिना सोचे समझे हद से ज्यादा धन दान पुण्य में लगा दिया, बिना विचार किए कि उनकी पिछली 4 पीढ़ियों ने धन का काफी अभाव देखा और भीषण संघर्षमय जीवन जिया।
महाराणा जगतसिंह में एक अन्य दोष ये भी था कि आवेश में आकर व किसी के कान भरने पर अनैतिक कार्यवाही भी कर देते थे। बगावत को निर्दयता से कुचलते थे। जो क्षेत्र पहले मेवाड़ के अधीन थे और जिन्होंने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने के प्रयास किए, उनको एक-एक करके महाराणा जगतसिंह ने परास्त किया।
महाराणा जगतसिंह को ना तो मुगलों की सन्धि कभी रास आई और ना ही मुगल दरबार की शान। महाराणा जगतसिंह ने उन सन्धि की शर्तों को तोड़ना तय कर लिया था, जो कि 1615 ई. में महाराणा अमरसिंह व ख़ुर्रम के बीच तय हुई थीं।
9 मार्च, 1628 ई. को नौरोज का जलसा हुआ, जिसमें मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के पुत्र राजा भीमसिंह के पुत्र रायसिंह शाहजहां के सामने उपस्थित हुए। शाहजहां ने रायसिंह को एक खिलअत, जड़ाऊ जमधर, दो हजार सवार का मनसब, राजा का खिताब, हाथी, घोड़ा, 20 हज़ार रुपए नकद भेंट किए।
देवलिया के रावत जसवंतसिंह सिसोदिया की हत्या :- जहाँगीर के समय बादशाही सिपहसालार महाबत खां बगावत करके अपने मुश्किल दिनों में देवलिया में रुका था, तब उसने देवलिया के रावत जसवन्तसिंह को मेवाड़ के खिलाफ़ बहका दिया था। वर्तमान प्रतापगढ़ जिला ही पहले देवलिया कहलाता था।
रावत जसवंतसिंह महाराणा कुम्भा के भाई क्षेमकर्ण के वंशज थे। रावत जसवन्तसिंह ने महाबत खां के बहकावे में आकर मंदसौर के हाकीम जांनिसार को देवलिया की फौज देकर कहा कि मेवाड़ के मोड़ी नाम के गांव पर हमला करो। इस लड़ाई में मेवाड़ के बहुत से सैनिक काम आए।
महाराणा जगतसिंह बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने रावत जसवन्तसिंह को उदयपुर दरबार में बुलाया, तो जसवन्तसिंह ने मारे जाने के डर से देवलिया का काम तो अपने छोटे बेटे हरिसिंह को सौंप दिया और स्वयं अपने बड़े बेटे महासिंह के साथ एक हज़ार की फौज समेत उदयपुर से एक मील दूर चम्पाबाग में डेरा डाला।
चम्पाबाग महाराणा कर्णसिंह ने बनवाया था, जो कि उदयपुर शहर से एक मील की दूरी पर पूर्वी तरफ है। महाराणा जगतसिंह ने अपने विश्वस्त मंत्रियों को चम्पाबाग में भेजकर रावत जसवंतसिंह को समझाने की भरसक कोशिश की, पर वे नहीं माने।
इस परिस्थिति में सबसे उपयुक्त ये होता कि रावत जसवंतसिंह को वहां से जाने दिया जाता और कुछ समय बाद देवलिया पर आक्रमण किया जाता, परन्तु महाराणा जगतसिंह ने दगा करने का रास्ता अपनाया, जो कि निश्चित रूप से अनैतिक था।
महाराणा जगतसिंह ने राठौड़ रामसिंह कर्मसेनोत को अपने पास बुलाया। ये मारवाड़ के राव चंद्रसेन राठौड़ के पुत्र उग्रसेन के पुत्र कर्मसेन के पुत्र थे। रामसिंह राठौड़ महाराणा जगतसिंह के भांजे भी थे। महाराणा जगतसिंह ने रामसिंह राठौड़ को मेवाड़ी फौज के साथ आधी रात को चम्पाबाग में भेजकर रावत जसवंतसिंह को मारने का आदेश दिया।
चम्पाबाग में आधी रात को अचानक लड़ाई छिड़ गई। देवलिया वालों को सम्भलने का मौका ही न मिला और सैंकड़ों सैनिक मारे गए। इस लड़ाई में देवलिया के रावत जसवन्तसिंह और उनके पुत्र महासिंह भी परलोक सिधारे।
ये लड़ाई 1628 ई. में हुई थी। जिस वर्ष महाराणा जगतसिंह का राजतिलक हुआ, उसी वर्ष उन्होंने अपने सिर पर एक महापाप का बोझ ले लिया। इस अनुचित कार्रवाई का परिणाम ये हुआ कि हरिसिंह का अपने पिता व भाई के मारे जाने पर महाराणा से विश्वास उठ गया और वे शाहजहां के पास चले गए।
इस घटना के बाद देवलिया मेवाड़ के हाथों से निकल गया, क्योंकि शाहजहां ने देवलिया को मेवाड़ से अलग एक राज्य घोषित करके हरिसिंह को वहां का मालिक बना दिया। जब महाराणा जगतसिंह को ये बात मालूम हुई, तो उन्होंने शाहजहाँ की परवाह न करते हुए रामसिंह राठौड़ को फ़ौज देकर देवलिया की तरफ रवाना किया। रामसिंह ने देवलिया को लूटकर तहस-नहस कर दिया।
मेवाड़ का डूंगरपुर पर आक्रमण :- महाराणा प्रताप के शासनकाल में डूंगरपुर के रावल आसकरण ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली थी, उनके बाद रावल सहसमल ने महाराणा प्रताप का साथ दिया था, परन्तु उनके बाद डूंगरपुर के रावल ने मुगल सल्तनत के ही आदेश माने और मेवाड़ से स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने के प्रयास किए।
डूंगरपुर के रावल पूंजा मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह के आदेश नहीं मानते थे। महाराणा जगतसिंह ने अपने मंत्री अक्षयराज कावड़िया को सेना सहित डूंगरपुर भेजा। ये भामाशाह जी के पौत्र व जीवाशाह के पुत्र थे।
रावल पूंजा मेवाड़ी सेना को आता देखकर पहाड़ों में चले गए, क्योंकि संख्या में मेवाड़ी फौज ज्यादा थी, जिसका मुकाबला नहीं किया जा सकता था। मेवाड़ी फौज ने डूंगरपुर को तहस-नहस करके वहां के महल का चन्दन का गोखड़ा गिरा दिया। ये घटना भी 1628 ई. में घटी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)