जैसा कि महाराणा अमरसिंह के इतिहास की सीरीज में लिखा गया था कि उनके छोटे पुत्र राजा भीमसिंह ने किस प्रकार बहादुरी दिखाकर मुगल सेना को परास्त किया था। राजा भीम ने और भी कई लड़ाइयों में बहादुरी दिखाई। सन्धि के 7 साल बाद जब ख़ुर्रम ने मुगल सल्तनत से बगावत करके मेवाड़ में शरण ली, तो महाराणा ने राजा भीम को ख़ुर्रम के साथ भेजकर उसका साथ दिया।
1622 ई. में जहांगीर ने बिहारीदास ब्राह्मण को एक फरमान देकर मेवाड़ भेजा था और महाराणा कर्ण से कहलाया कि वो अपने पुत्र और फौज सहित फौरन यहां आ जाए। परन्तु महाराणा कर्णसिंह ना तो स्वयं जहांगीर के सामने गए और ना ही कोई फ़ौज भेजी। फिर कुछ समय बाद जहांगीर को मालूम हुआ कि ख़ुर्रम की सेना में महाराणा कर्णसिंह के छोटे भाई राजा भीम भी शामिल है।
जहांगीर के 2 बेटों ख़ुर्रम और परवेज़ में भयंकर युद्ध छिड़ने जा रहा था, जिसमें परवेज़ की सेना जहांगीर के आदेश से लड़ रही थी। राजा भीम को एक बार पुनः मुगल सल्तनत के विरुद्ध लड़ने का मौका मिला।
टोंस नदी के किनारे ख़ुर्रम की 7 हज़ार की सेना पड़ाव डाले हुए थी। शहज़ादे परवेज़ की सेना आ पहुंची और ख़ुर्रम की सेना को 3 तरफ से घेर लिया। परवेज़ की ये सेना जहांगीर की तरफ से भेजी गई थी। इस शाही सेना की संख्या 40 हज़ार थी।
जब लड़ाई शुरू होने वाली थी, तभी मानसिंह शक्तावत वहां आ पहुंचे। राजा भीम ने ही पत्र लिखकर मानसिंह शक्तावत को इस लड़ाई में शामिल होने के लिए मेवाड़ से बुलाया था। राजा भीम ने उनको देखकर गले लगा लिया और एक जिरहबख्तर दे दिया।
जयपुर के मिर्ज़ा राजा जयसिंह कछवाहा और जोधपुर के राजा गजसिंह राठौड़ परवेज़ के शाही सैन्य में शामिल थे। उक्त राजाओं ने राजा भीमसिंह सिसोदिया के पास संदेश भेजकर कहलवाया कि “तुम तो कहते थे कि चित्तौड़ तुम्हारे सिर पर बंधा है, अब उसको पैर से बांधकर किस तरह घसीटते फिरते हो ? तुम पहाड़ों में लड़ने वाले यहां लड़ पाओगे ?”
इसका आशय ये है कि तुम तो स्वतंत्र थे, अब ख़ुर्रम की सेना में कैसे लड़ रहे हो। राजा भीम ने भी इसका जवाब भिजवाया और कहलवाया कि “चित्तौड़ अब भी मेरे सिर पर ही बंधा है और मैं भागता नहीं हूँ, कोई तीर्थ (युद्ध) का मौका देखता हूँ, ताकि हज़ारों को मोक्ष मिल सके। पहिले भी मुगल सल्तनत से ही लड़ा था और आज भी उसी के खिलाफ लड़ने जा रहा हूँ। पहाड़ों में लड़ने वाले आज मैदानी लड़ाई किस तरह लड़ते हैं, ये गौर से देख लेना।”
अब्दुल्ला खां ने ख़ुर्रम को सलाह दी कि यहां से भागने में ही भलाई है, वरना हम सब मारे जाएंगे। लेकिन राजा भीमसिंह सिसोदिया ने कहा कि “इससे पहले कि शाही सेना हम पर हावी हो जाए, उस पर तत्काल आक्रमण कर देना चाहिए।” ख़ुर्रम को राजा भीम की सलाह पसन्द आई और उसने रणभूमि में ही टिकना तय किया।
एक भयंकर व विनाशकारी युद्ध के लिए दोनों तरफ की सेनाएं तैयार हो गईं। ख़ुर्रम के पास महज़ 7 हज़ार की सेना थी। सेना में ख़ुर्रम स्वयं बीचोंबीच मौजूद रहा, दक्षिण पार्श्व में नसरत खां, हरावल में राजा भीम व शेर खां थे। राजा भीम की सहायता के लिए दाईं ओर दर्या खां और बाईं ओर पहाड़सिंह बुन्देला (राजा वीरसिंह देव बुन्देला के पुत्र) अपनी-अपनी सेनाओं के साथ तैनात थे।
ख़ुर्रम के तोपखाने का अध्यक्ष मीर आतिश रूमी था, जो जोश में आकर हरावल से ज्यादा आगे बढ़ गया। एक तो पहले ही ख़ुर्रम की सेना के कई सिपाही भयभीत थे। दूसरी तरफ परवेज़ ने मौका देखकर मीर आतिश रूमी के तोपखाने पर हमला करके तोपें छीन लीं।
इस घटना के बाद घबराकर राजा भीमसिंह की सहायता के लिए तैनात दोनों सैनिक टुकड़ियों के नेतृत्वकर्ता दर्या खां और पहाड़सिंह रणभूमि छोड़कर चले गए। ये मंजर देखकर ख़ुर्रम के हाथ पैर ठंडे पड़ गए, परन्तु राजा भीमसिंह तो शुरू से ही आक्रामक रणनीति वाले योद्धा रहे। उन्होंने 40 हज़ार की शाही सेना को निकट आता देखकर भी एक पग पीछे न रखा।
आमेर के राजा जयसिंह के पास सेना अधिक थी, इसलिए उनको शाही फौज की हरावल में रखा गया और राजा गजसिंह बाई ओर नदी के किनारे खड़े रहे।
राजा भीमसिंह सिसोदिया ने परवेज़ की हरावल को ललकारा और ऐसा भीषण आक्रमण किया कि परवेज़ की हरावल चंद लम्हों में तितर-बितर हो गई। जब राजा भीमसिंह ने परवेज़ की हरावल को पीछे धकेल दिया, तो ख़ुर्रम साहस करके आगे आया। राजा भीम ने ख़ुर्रम से कहा कि “हमारी विजय तो हुई है, पर सामने राजा गजसिंह सेना सहित खड़े हैं।”
यहां एक हास्यास्पद घटना हुई। राजा गजसिंह की ख़ुर्रम से कोई शत्रुता नहीं थी और ख़ुर्रम से अच्छा व्यवहार भी था। इस ख़ातिर लड़ाई में उनका मन नहीं था। वे नदी किनारे लघुशंका करने के लिए गए कि तभी कूंपावत गोरधन राठौड़ ने राजा गजसिंह से कहा कि “परवेज़ की सेना तो भागी जा रही है और आपको अभी समय मिला है इसका”
तब राजा गजसिंह ने कहा कि “हम भी राह देख रहे थे कि कोई हमको पूछता है कि नहीं।” इतना कहकर राजा गजसिंह को भी लड़ाई में शामिल होना पड़ा।
इस वक्त राजा भीम का साला शार्दूलसिंह भी वहीं मौजूद था, जिसने पिछली कई लड़ाइयों में बहादुरी दिखाई थी। लेकिन शार्दूलसिंह अपने से 5-6 गुना ज्यादा फौज और तोपखाना देखकर इस बार घबरा गया, तो राजा भीम ने उसका हाथ पकड़कर कहा कि “तू क्यों डरता है, ये वक्त तो राजपूतों के वास्ते खुशी का है।”
शार्दूलसिंह ने कहा कि “पिछली लड़ाइयों में मुझको हाथी मेंढक और आदमी मच्छर की तरह दिखाई देते थे, पर इस लड़ाई में पहाड़ और शेर की तरह दिखाई दे रहे हैं, तलवार-भालों की चमक और तोपों की धमक से मेरा कलेजा फटा जा रहा है।”
ये सुनकर राजा भीम ने उसका हाथ छोड़ दिया और गंगाजल से अपने हाथ धोए। शार्दूलसिंह भागकर चला गया। ये स्थिति केवल शार्दूलसिंह की ही नहीं थी, ख़ुर्रम के सैन्य में राजा भीम के अतिरिक्त सभी भयभीत थे, क्योंकि 7 हज़ार और 40 हज़ार के बीच का मुकाबला तो एकतरफा था।
फ़ारसी तवारीख मुन्तखबउल्लुबाब में मुहम्मद हाशिम खफी खां लिखता है कि “मेवाड़ के राजा भीम ने जिस बहादुरी के साथ शहज़ादे परवेज़ की फौज के तोपखाने पर हमला किया, उसका बयान नहीं हो सकता। राजा भीम बादशाही फौज को चीरता हुआ शहज़ादे परवेज़ के गिरोह तक पहुंच गया। इस वक़्त जो कोई उसके सामने आया, वो तलवार और भाले से कत्ल हुआ।
परवेज़ के खास गिरोह तक पहुंचने के रास्ते मे परवेज़ की सेना के नामी सरदार राजा भीम के हाथों से मारे गए। राजा भीम के भी बहुत से साथी मारे गए, तो भी उसका हमला इतना तेज़ था कि 40 हज़ार की बादशाही फौज के पैर उखड़ने को ही थे कि तभी महाबत खां ने जटाजूट नाम के एक तेज़ तर्रार हाथी को राजा भीम से लड़ने भेजा।
राजा भीम ने अपनी तलवार और बर्छे से उस हाथी को मार गिराया। राजा भीम की तलवार के हर एक वार के बाद दोनों तरफ के फौजी आदमी उसकी तारीफ़ करते थे। आख़िरकार महाबत खां खुद अपने गिरोह समेत राजा भीम का सामना करने पहुंचा। राजा भीम सख्त जख्मी होकर महाबत खां के सामने घोड़े से गिर पड़ा। तभी एक बादशाही फौज का आदमी उसको मारने के लिए पास आया, तो राजा भीम ने अचानक उठकर उसका सर काट दिया।
जब तक राजा भीम लड़ता रहा, तब तक खुर्रम मैदान में ही खड़ा रहा। जब तक उसमें जान रही, उसने हाथ से तलवार नहीं छोड़ी। आख़िरकार राजा भीम भालों और तलवारों के 27 जख्म खाकर बहादुरी के साथ मारा गया। उसके मरते ही खुर्रम ने जीत की आस छोड़ दी और हारकर दक्खन की तरफ़ चला गया”
इस प्रकार ख़फ़ी खां ने राजा भीम के शौर्य का बहुत ही उम्दा वर्णन किया। इस लड़ाई में राजा भीम के मित्र मानसिंह शक्तावत भी काम आए। अब्दुल्ला खां के समझाने पर ख़ुर्रम बची खुची सेना सहित रोहतासगढ़ होते हुए दक्षिण की तरफ चला गया।
19 मई, 1623 ई. को जहांगीर की माता का देहांत हो गया और इस अवसर पर महाराणा कर्णसिंह ने बड़ी चतुरता दिखाई। महाराणा ने अपने पुत्र कुँवर जगतसिंह को जहांगीर के पास भेजा और सांत्वना दी व 4 हाथी भेंट किए। जब जहांगीर ने जगतसिंह से पूछा कि राणा ने फ़ौज क्यों नहीं भेजी, तो जगतसिंह ने बहाना बनाकर कहा कि राजा भीम के बागी होने की वजह से महाराणा बड़े दुःख में हैं।
लेखक की निजी राय में राजा भीमसिंह अपनी आक्रामक रणनीति, अद्भुत युद्ध कौशल और तेज तर्रार मिजाज के मामले में महाराणा सांगा के बड़े भाई उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज की तरह थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
लेखक जी प्लीज क्या आप महाराणा रायमल के बड़े बेटे या महाराणा संग के बड़े भाई उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज सिसोदिया का भी इतिहास याहा पोस्ट कर सकते हैं प्लीज ये तो महाराणा रायमल का इतिहास भी यह पोस्ट कर्दीजे आपको जो सही लगे