एक बार कुँवर कर्णसिंह गंगा नदी के तट पर पहुंचे, जहां उन्होंने चाँदी की तुला की व सोरों के ब्राम्हणों को एक गांव दान में दिया। इस घटना की जानकारी राजप्रशस्ति महाकाव्य से प्राप्त होती है। ये घटना कुँवर कर्णसिंह के कुंवरपदे काल की है, परन्तु इस घटना का वर्ष अनिश्चित है।
कुँवर कर्णसिंह द्वारा कुँवरपदे काल में दिखाई गई वीरता के बारे में ये दोहा कहा जाता है :- सखंड खुरसाण लाहौर पड़ संक सह, महा मेछां तणों माण मलियो। आपरी धरा उगराह कूंमर अभंग, बाय नीसाण दिस घरां बलियो।।
अर्थात हे कुँवर कर्णसिंह, आपके पराक्रम से खुरासान और लाहौर में भय घुस गया और म्लेच्छों का दर्प जाता रहा। इस प्रकार अपनी धरा का उद्धार करके वह राजकुमार ध्वजा उड़ाकर अपने घर वापिस आया।
महाराणा कर्णसिंह का राज्याभिषेक :- 26 जनवरी, 1620 ई. को महाराणा अमरसिंह का देहांत हुआ। इसी दिन उदयपुर के राजमहलों में महाराणा कर्णसिंह का राज्याभिषेक हुआ, परन्तु राज्याभिषेक के बाद महाराणा कर्णसिंह ने अपनी जरूरत का सामान साथ लिया और राजमहलों से प्रस्थान कर गए।
पितृभक्त महाराणा कर्णसिंह अपने पिता की निर्वाण स्थली पर पहुंचे, जहां एक विशाल छतरी का निर्माण करवाया और ये तय किया कि एक वर्ष तक इसी छतरी में रहकर राजकाज का कार्य संभालेंगे। इस तरह जब 1 वर्ष बीता, तभी महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर के राजमहलों में प्रवेश किया।
ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “महाराणा कर्णसिंह पृथ्वी पर साक्षात कर्ण का अवतार था। उसने ध्वजा, अंकुश और पद्म के चिन्ह प्राप्त किए थे। उसका मन हमेशा पिता की आज्ञा के अधीन रहा। भारतवर्ष में वह अनन्य प्रमत्त योद्धा माना जाता था।”
25 फरवरी, 1620 ई. को महाराणा अमरसिंह के देहांत का समाचार सुल्तानपुर गांव में जहांगीर को मिला। जहांगीर ने महाराणा अमरसिंह के भाई भीमसिंह और पोते जगतसिंह को ख़िलअतें और सांत्वना दी।
जहाँगीर ने राजा किशनदास को खिलअत, हाथी, घोड़ा आदि देकर महाराणा अमरसिंह के देहांत की मातमपुरसी करने और महाराणा कर्णसिंह के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में मुबारकबाद देने के लिए उदयपुर की तरफ रवाना किया।
कुछ इतिहासकारों ने सिरोही के बखेड़े की घटना (जो मैंने महाराणा अमरसिंह के भाग 40 में पोस्ट की है) महाराणा अमरसिंह से जुड़ी हुई ही बताते हैं, परन्तु ओझा जी उक्त घटना आधी तो महाराणा अमरसिंह के शासनकाल की व शेष आधी घटना महाराणा कर्णसिंह के शासनकाल की बताते हैं।
ओझा जी के अनुसार सिरोही के पृथ्वीराज देवड़ा द्वारा राव राजसिंह की हत्या के बाद महाराणा कर्णसिंह ने पर्वतसिंह सिसोदिया, रामा देवड़ा, खंगार आदि को भेजकर पृथ्वीराज को मारने के लिए भेजा।
मेवाड़ से फौज आने की खबर सुनकर पृथ्वीराज तो पालड़ी गांव में चले गए और महाराणा की सेना ने वैध उत्तराधिकारी बालक अखैराज को सिरोही की राजगद्दी पर बैठाया और पृथ्वीराज को सिरोही से बाहर निकालने में सहायता की।
1621 ई. में महाराणा उदयसिंह के पुत्र व महाराज शक्तिसिंह के छोटे भाई वीरमदेव का देहांत हो गया। वीरमदेव के वंशज वीरमदेवोत राणावत कहलाते हैं। वीरमदेव ने आजीवन महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह का साथ दिया था।
1621 ई. में महाराणा कर्णसिंह ने रोहड़िया बारहठ लक्खा को लाख पशाव दान किए। इसके अतिरिक्त महाराणा कर्णसिंह ने बारहठ लक्खा को मांडलगढ़ परगने का गांव मन्सूवा, फूलिया परगने का गांव थरावली और भिनाय परगने का गांव जडाणा भी दान में दे दिए।
इस सम्बन्ध में एक दानपत्र चित्तौड़गढ़ दुर्ग के रामपोल द्वार पर खुदवाया गया, जिस पर उक्त घटना का समय विक्रम संवत 1678 आश्विन सुदी 15 अंकित है। बारहठ लक्खा जहांगीर के दरबार में मनसबदार शायर थे।
इन्हीं दिनों कश्मीर के सफर में जहांगीर ने महाराणा कर्णसिंह के छोटे भाई भीमसिंह को ‘राजा’ की पदवी दी, जिसके बाद ये राजा भीम के नाम से मशहूर हुए। इसके बाद राजा भीम को ख़ुर्रम के साथ अभियानों पर भेज दिया गया।
महाराणा कर्णसिंह के शासनकाल में मुगलों से लड़ाई-झगड़े ना होने के कारण इन्हें मेवाड़ में मुल्की इंतज़ाम सुधारने का अवसर मिला, जिससे वे लोग भी मेवाड़ लौट आए, जो युद्धों के समय मेवाड़ छोड़कर दूसरे राज्यों में रहने चले गए थे। पिछली 3 पीढ़ियों से मेवाड़ में जो संघर्ष चला, उसके कारण अर्थव्यवस्था खत्म हो गई थी, जिसे महाराणा कर्णसिंह ने पुनः सुचारू रूप से व्यवस्थित किया।
कुछ महीने जहांगीर के यहां रहने, दक्षिण के अभियानों में भाग लेने, दिल्ली, अजमेर आदि जगह अन्य राजाओं से मिलने के कारण महाराणा कर्णसिंह को काफी अनुभव मिला। उन्होंने न केवल अपने उजड़े हुए मुल्क को आबाद किया, बल्कि यहां व्यापार और कृषि की पुनः शुरुआत करवाकर मेवाड़ को एक प्रकार से नया जीवन प्रदान किया।
महाराणा कर्णसिंह ने राजव्यवस्था में भी सुधार किया। उन्होंने राज्य के अलग-अलग परगने स्थिर करके गांवों में पटेल, चौकीदार, पटवारी आदि नियत किए। प्रजा के सुख का हर तरह से प्रबंध किया गया। देखते ही देखते कुछ ही महीनों में मेवाड़ की आय बढ़ने लगी।
1611 ई. में रणकपुर में हुई लड़ाइयों में मुगलों द्वारा वहां के प्रसिद्ध जैन मंदिरों को कुछ तोड़ दिया गया था। महाराणा कर्णसिंह ने राजगद्दी पर बैठने के एक वर्ष बाद 1621 ई. में रणकपुर के जैन मंदिरों की खराबी ठीक करने के लिए आवश्यक धन उपलब्ध करवाया।
1622 ई. में महाराज शक्तिसिंह की पौत्री व भाण शक्तावत की पुत्री प्रतापदे बाई का विवाह मारवाड़ नरेश गजसिंह राठौड़ से हुआ। इसी वर्ष जहांगीर के चहेते बेटे ख़ुर्रम ने अपनी वास्तविकता दिखा दी और सल्तनत से बगावत का रास्ता अपनाया, जिसके बारे में अगले भाग में विस्तार से लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)