मेवाड़ महाराणा कर्णसिंह (भाग – 3)

खुर्रम (शाहजहाँ) मेवाड़ की शरण में :- 1615 ई. में जहाँगीर ने खुर्रम के ज़रिए ही मेवाड़ को संधि के लिए विवश किया था। समय ने फिर पासा पलटा और मेवाड़ को इस अपमान का बदला लेने का मौका मिला।

एक समय पर जहांगीर ने ख़ुर्रम को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का मन बना लिया था, परन्तु 1622 ई. में जहाँगीर शराब के नशे में धुत रहने लगा और सल्तनत का सारा काम नूरजहां के हाथों में आ गया। नूरजहां अपनी मनमानी करने लगी और ख़ुर्रम के विरोध में जहांगीर के कान भरने लगी, जिसके बाद ख़ुर्रम ने बगावत का रास्ता अपनाया।

खुर्रम ने जहांगीर के खिलाफ बगावत कर दी। ख़ुर्रम दक्षिण से सैन्य सहित मांडू आया और फिर आगरा की ओर बढ़ा, जहां के अमीरों की संपत्ति छीनता हुआ वो मथुरा की तरफ बढ़ा। वहां से आगे बढ़ने पर बिलोचपुर में हुई लड़ाई में ख़ुर्रम ने जहांगीर की सेना से शिकस्त खाई।

भागते हुए वह अपनी फौज समेत आमेर गया। खुर्रम ने आमेर में लूटमार की। बादशाही फौज ने खुर्रम का फिर पीछा किया, तो उसे छुपने की जगह नसीब न हुई। आखिरकार खुर्रम ने मेवाड़ में प्रवेश किया और ख़त लिखकर महाराणा कर्णसिंह के पास भिजवाया और विनती की कि “हम बादशाही फौज के बर्खिलाफ़ हो चुके हैं, हमें कुछ दिन मेवाड़ में पनाह देकर हमारी मदद करें।”

ख़ुर्रम

महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर के महलों में खुर्रम को शरण दी। मेवाड़ में खुर्रम कुछ दिनों तक देलवाड़े की हवेली में रहा, फिर कुछ दिन जगमंदिर में रहा। इसके बाद खुर्रम कुछ दिन बड़ी सादड़ी में राजा भीमसिंह (महाराणा कर्णसिंह के छोटे भाई) के साथ रहा। बड़ी सादड़ी में खुर्रम ने एक दरवाज़ा भी बनवाया।

खुर्रम कुछ महीनों तक उदयपुर में ही रुका। खुर्रम महाराणा कर्णसिंह से मेलजोल बढ़ाना चाहता था, ताकि भविष्य में जहाँगीर की फौज से होने वाले युद्ध में उसे मेवाड़ का साथ मिले। ऐसा विचार करके खुर्रम ने महाराणा कर्णसिंह के साथ अपनी पगड़ी बदली।

खुर्रम की ये पगड़ी अब तक उदयपुर के विक्टोरिया हॉल में मौजूद है। ये पगड़ी कुसुम रंग की थी, पर समय के साथ उसका रंग फीका पड़ते-पड़ते हल्का पीला हो गया। उस पर ज़री का लपेटा बंधा हुआ है, जिस पर ज़री के फूल थे, जिनमें से अधिकांश गिर गए हैं।

ख़ुर्रम के मेवाड़ में ठहरने की घटना का उल्लेख मुगल लेखकों ने नहीं किया है। परन्तु वंशभास्कर, राजप्रशस्ति, वीरविनोद, जोधपुर की ख्यात, बीकानेर की ख्यात आदि कई ग्रंथों में इस घटना का वर्णन किया गया है।

महाराणा कर्णसिंह

खुर्रम की विदाई के वक़्त उसने महाराणा कर्णसिंह से फौजी मदद मांगी, तो महाराणा ने अपने छोटे भाई राजा भीमसिंह को थोड़ी बहुत फौज देकर विदा किया। ख़ुर्रम की सहायता करके महाराणा कर्णसिंह ने ख़ुर्रम और जहांगीर दोनों से ही हिसाब चुकता कर लिया। क्योंकि जहांगीर के विरुद्ध खड़े ख़ुर्रम की फ़ौज में राजा भीमसिंह को भेजना सीधे तौर से मुगल सल्तनत से बगावत थी।

ख़ुर्रम के जाने के बाद जहांगीर अजमेर पहुंचा। जहांगीर ने अजमेर में जयपुर, जोधपुर आदि राज्यों से सेनाएं मंगवाई और अपने बेटे परवेज़ को भी सेना सहित बुलाया। जहांगीर ने परवेज़ को 40 हज़ार की जर्रार फ़ौज और 20 लाख का खज़ाना देकर ख़ुर्रम को परास्त करने के लिए विदा किया।

ख़ुर्रम सेना सहित मांडू पहुंचा। फिर वहां से रवाना हुआ और नर्मदा नदी पार करके असीरगढ़ और बुरहानपुर होता हुआ गोलकुंडा के मार्ग से उड़ीसा और बंगाल पहुंचा। वहां ढाका और अकबरनगर की लड़ाइयों में विजयी होकर ख़ुर्रम ने बंगाल पर अधिकार कर लिया। इन लड़ाइयों में राजा भीमसिंह की वीरता ने दोनों तरफ की सेनाओं का ध्यान खींच लिया।

ख़ुर्रम ने खुश होकर राजा भीमसिंह को 2 लाख रुपए भेंट किए। ख़ुर्रम ने बिहार, अवध और इलाहाबाद को जीतने का विचार करके राजा भीमसिंह को सेना का नेतृत्व सौंपकर पटना की तरफ भेजा। वहां शहज़ादे परवेज़ के दीवान मुखलिस खां का राज था।

राजा भीम के पटना पहुंचते ही मुखलिस खां किले से भागकर इलाहाबाद चला गया और पटना के किले पर राजा भीम का अधिकार हो गया। ख़ुर्रम ने खुश होकर राजा भीम को अब्दुल्ला खां के साथ इलाहाबाद के अभियान पर भेज दिया और स्वयं ख़ुर्रम भी इस सेना के पीछे चला।

राजा भीमसिंह

ख़ुर्रम व राजा भीम की सेनाएं मिल गई और टोंस नदी के किनारे कम्पत के पास डेरा डाला। इसी दौरान शहज़ादे परवेज़ की सेना आ पहुंची और ख़ुर्रम की सेना को 3 तरफ से घेर लिया। परवेज़ की ये सेना जहांगीर की तरफ से भेजी गई थी। इस शाही सेना की संख्या 40 हज़ार थी।

जब राजा भीम जौनपुर में थे, तब उन्होंने अपने राजपूत सरदारों को जिरहबख्तर और घोड़े दिए और सबको केसरिया बाना पहनने के लिए कहा था। राजा भीम ने एक घोड़ा और एक जिरहबख्तर बाकी रखा। जब साथी राजपूतों ने पूछा कि ये किसके लिए है, तो राजा भीम ने कहा कि मेरे मित्र मानसिंह शक्तावत को बुलावा भिजवाया है मैंने।

राजा भीम के साथी राजपूतों ने पूछा कि मेवाड़ तो यहां से काफी दूर है, मानसिंह शक्तावत इतनी दूर इतनी जल्दी कैसे आ सकते हैं। तब राजा भीम ने कहा कि मानसिंह शक्तावत मेरा सच्चा मित्र है, मेरी तकलीफों और ऐसे तीर्थों (युद्ध) के मौके पर लड़ाइयों का हाल सुनकर जरूर आएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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